26 अक्टूबर 2023 को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खरगे की पहली वर्षगांठ थे, जो 25 वर्षों बाद पार्टी का नेतृत्व करने वाले पहले गैर-गांधी हैं. हालांकि एक साल पूरा होने पर किसी भव्य केक-काटने का कोई समारोह नहीं हुआ. आपने कांग्रेस नेताओं को गुलदस्ते और मालाओं के साथ उनके कार्यालय या घर के बाहर कतार में खड़े नहीं देखा होगा . वास्तविक हो या काल्पनिक, माना जाता है कि तीन आंखें हर समय उन पर नजर रखती हैं. लेकिन उनके शक को दोष न दें. वे सिर्फ कांग्रेसी हैं.
तीन आंखों की नजरों से दूर, ये कांग्रेसी नेता निजी तौर पर आपको बताते हैं कि कैसे खरगे का पहला साल कई मायनों में “वाटरशेड” काल रहा है. लेकिन यह बिलकुल नहीं मानना चाहिए कि, पार्टी पर गांधी परिवार की पकड़ ढीली हुई है. बिलकुल नहीं हुई है. चलिए खरगे द्वारा पुनर्गठित कार्य समिति को देखें, यह 84-सदस्यीय जंबो निकाय बन गया है. क्योंकि उन्हें गांधी परिवार के वफादारों को समायोजित करने के लिए ऐसा करना पड़ा. खरगे ने शीर्ष स्तर पर कोई महत्वपूर्ण संगठनात्मक बदलाव नहीं किया है क्योंकि वह राहुल गांधी के वफादारों और केसी वेणुगोपाल और रणदीप सुरजेवाला जैसे कागजी शेरों को नहीं छोड़ सकते हैं जो या तो चुनावी प्रतियोगिताओं से भाग जाते हैं या विधानसभा चुनाव भी हार जाते हैं. जब बात पार्टी के वेणुगोपाल और सुरजेवाला जैसे गांधी परिवार के इर्द-गिर्द घूमने वाले नेताओं की आती है तो खरगे असहाय नजर आते हैं.
लेकिन इस बात से उनकी नींद नहीं खराब हो रही है. गांधी परिवार ने अपने सभी विशेषाधिकारों के बावजूद, कांग्रेस अध्यक्ष पद के प्रति सम्मान दिखाया है. उदाहरण के लिए, पार्टी कार्यक्रमों में, वे यह सुनिश्चित करते हैं कि वे खरगे के आने और जाने का इंतज़ार करें. परिवार और पार्टी के प्रति उनकी निर्विवाद निष्ठा भी दोनों पक्षों के बीच विश्वास का एक कारक रही है.
गांधी परिवार के साथ यह सामंजस्य पार्टी प्रमुख के रूप में खरगे के पहले साल में सकारात्मक संकेत है. लेकिन उनकी असली उपलब्धि कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के ‘4 एम’ फॉर्मूले-मैसेंजर, मैसेज, मशीनरी और मैकेनिक्स- को लागू करने के लिए गांधी परिवार के साथ अपने समीकरण का उपयोग करना है.
दो ‘एम’ जिन्होंने काम किया
सबसे पहले मैं अंतिम दो के बारे में बात करना चाहता हूं – पार्टी संगठन और इसके काम करने के तरीके के बारे में. खरगे के सत्ता संभालने से पहले कांग्रेस बिना कप्तान के बहते जहाज की तरह दिखती थी. नेताओं और कार्यकर्ताओं को यह नहीं पता था कि किससे संपर्क करना है और कैसे करना है, गांधी परिवार काफी हद तक पहुंच से बाहर था या कार्रवाई करने में भी बहुत रुचि नहीं लेता था. और स्वघोषित परिवार के वफादार मौज कर रहे थे. पार्टी के शीर्ष पद पर पहुंचते हुए, खरगे, जो हमेशा से परिवार के बड़े वफादारों में से एक रहे हैं, ने ऐसे नेताओं को अप्रासंगिक बना दिया. वो कार्यकर्ताओं और नेताओं से लगातार संपर्क बना कर रख रहे हैं. जरूरत पड़ने पर वह चाबुक चलाने से नहीं डरते और फैसले टालने में विश्वास नहीं रखते.
एक साल में, खरगे साफ-साफ बोलने वाले अध्यक्ष के रूप में उभर कर आए – जिन्होंने दो तुक में दलित अत्याचारों पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को कहा, “मैं, कांग्रेस का दलित अध्यक्ष, लोगों को क्या चेहरा दिखाऊंगा?” उन्होंने सीएम को प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट की मांगों को पूरा करने का भी निर्देश दिया.
साथ ही, खरगे ने पायलट से धैर्य रखने और पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं का विश्वास जीतने के लिए कहा, और उन्हें याद दिलाया कि उन्हें खुद भी कर्नाटक के सीएम की कुर्सी नहीं मिली, लेकिन वे पार्टी के हित में काम करते रहे. कांग्रेस अध्यक्ष की सख्त, गैर-पक्षपातपूर्ण बातचीत ने राजस्थान की राजनीति के दो दिग्गजों के बीच टेम्पररी शांति सुनिश्चित कर दी है. हालांकि गहलोत अभी भी पायलट पर तंज करने से बाज़ नहीं आते हैं. उन्होंने कहा कि सीएम की कुर्सी भविष्य में भी मुझे “जाने नहीं देगी”, लेकिन पायलट ने अब तक चुप्पी साध रखी है और पार्टी अध्यक्ष की सलाह का पालन कर रहे हैं.
खरगे के इस दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप कर्नाटक में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच चल रहे संघर्ष का भी विराम हुआ. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि जब तेलंगाना कांग्रेस प्रमुख रेवंत रेड्डी के विरोधियों का एक समूह खरगे से उनके खिलाफ शिकायत करने के लिए मिला, तो अध्यक्ष ने उन्हें स्पष्ट रूप से कहा कि कोई नेतृत्व परिवर्तन नहीं होगा और उन्हें रेड्डी के साथ काम करना होगा.
हालांकि, उन्होंने रेड्डी को अपने मन की बात बताते हुए अपने सहयोगियों और समर्थकों को साथ ले जाने का निर्देश दिया. जब हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के आलोचक-कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला-शिकायत करने आए, तो कांग्रेस अध्यक्ष ने धैर्यपूर्वक उनकी बात सुनी, लेकिन उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए कुछ नहीं किया. वह जानते हैं कि हरियाणा में हुडा पार्टी के लिए सबसे बेहतर दांव बने हुए हैं.
खरगे के काम का ये स्टाइल काम कर गया है. लंबे समय बाद कांग्रेस अपेक्षाकृत एकजुट दिख रही है. इसके अलावा, वह पार्टी की सीमाओं से अवगत हैं – कांग्रेस कैडर-आधारित पार्टी नहीं है. इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसे संगठन का समर्थन नहीं है, जो वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को आकर्षित करने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए एक आपूर्ति श्रृंखला है. आरएसएस भाजपा के निर्माण के लिए आधार भी तैयार करता है. कांग्रेस संगठन में दशकों की उपेक्षा और क्षय को देखते हुए, बूथ समितियों और पन्ना प्रमुखों या पेज समितियों जैसी जमीनी स्तर की संरचनाओं के भाजपा मॉडल को रातोंरात दोहराना मुश्किल है.
इसलिए खरगे कांग्रेस में क्रांति लाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं. वह एक-एक करके इसे खड़ा कर रहे हैं, मौजूदा पार्टी मशीनरी को ही चला कर और मौजूदा नेतृत्व को काम करने के लिए प्रेरित करने पर अधिक भरोसा कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि यह अभी ठीक काम कर रहा है.
एक कांग्रेस सांसद ने हाल ही में मुझे बताया, “तथाकथित बूथ समितियों और पन्ना प्रमुखों को अत्यधिक प्रचारित किया जाता है. अगर लोग बदलाव चाहते हैं तो वे बदलाव लाते हैं, चाहे कुछ भी हो जाए. भाजपा के पास वे हैं लेकिन वे दिल्ली या कर्नाटक में कहां गए? बात यह है कि जब भाजपा जीतती है, तो अमित शाह के संगठनात्मक कौशल को श्रेय दिया जाता है और जब वह हारती है, तो स्थानीय नेतृत्व को दोषी ठहराया जाता है.”
यह आकलन बूथ कार्यकर्ताओं या पन्ना प्रमुखों के लिए शायद उचित नहीं हो जो वास्तव में जमीन पर लोगों को अपना मन बनाने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं. लेकिन हां, मशीनरी और यांत्रिकी की प्रभावशीलता काफी हद तक पीके की प्लेबुक में अन्य दो एमएस- मैसेज और मैसेंजर पर निर्भर करती है.
दो ‘एम’ खरगे इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते
पीके का तर्क है कि संदेशवाहक को वही व्यक्ति नहीं होना चाहिए जो संगठन चलाता हो या उसके यांत्रिकी को इंजीनियर करता हो. उनकी भूमिका लोगों के साथ अमवाद स्थापित करना और संदेश को प्रभावी ढंग से पहुंचाना है – कुछ ऐसा जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा के लिए करते हैं, बाकी काम अमित शाह और उनकी टीम के लिए छोड़ देते हैं. लंबे समय तक राहुल गांधी यह सारा काम अकेले करने की कोशिश कर रहे थे. कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में खरगे के बढ़ने के साथ, राहुल ने पूर्णकालिक संदेशवाहक की भूमिका निभाई है. ऐसा लगता है कि वह इसका आनंद भी ले रहे हैं. वह मोदी के समकक्ष हैं या नहीं, यह मुद्दा नहीं है.
मोदी का करिश्मा उन्हें एक महान संदेशवाहक बनाता है, लेकिन जो संदेश वे लेकर जाते हैं वह भी महत्वपूर्ण है. भाजपा के मामले में, जैसा कि पीके कहते हैं, संदेश में हिंदुत्व, अति-राष्ट्रवाद और कल्याणवाद शामिल है. यह विपक्षी टीम को मात देने के लिए एक जबरदस्त संदेश साबित हुआ है. वैसे भी, कांग्रेस के पास अभी तक कोई सुसंगत संदेश नहीं है – वह शासन की विफलताओं पर ध्यान केंद्रित करके काफी हद तक सत्ता विरोधी लहर पर भरोसा कर रही है. लेकिन ऐसा लगता है कि यह अब एक संदेश पर काम कर रहा है. यह जाति जनगणना की मांग के माध्यम से अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की राजनीति, गौतम अडानी जैसे बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों पर हमलों के माध्यम से अमीर-बनाम-गरीब राजनीति, कल्याणवाद से मेल खाने के लिए मुफ्त सुविधाएं, प्यार-बनाम-नफरत और कमल नाथ-का मैं बड़ा हिंदू शैली को अपना रहे हैं. अभी यह कहना मुश्किल है कि क्या यह संदेश 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी या भाजपा का मुकाबला कर सकता है.
खरगे एक सुसंगत संदेश के महत्व के प्रति सचेत दिखते हैं. मध्य पूर्व में चल रहे संकट पर पार्टी के रुख में उनका हस्तक्षेप एक संकेत के रूप में आया. उनके निर्देशों के अनुसार, कांग्रेस के कम्यूनिकेशन हेड जयराम रमेश ने फिलिस्तीनी लोगों की वैध आकांक्षाओं का समर्थन करते हुए इज़रायल पर हमास के क्रूर हमले की निंदा की थी. यह बिल्कुल संतुलित दृश्य था. फिर सीडब्ल्यूसी का एक प्रस्ताव आया, जिसमें हमास के हमले का कोई उल्लेख नहीं किया गया. राजनीतिक विरोधियों ने इसकी आलोचना की, जिन्होंने इसमें अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का एक और उदाहरण कहा. खड़गे के साथ मिलकर काम करने वाले कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों का दावा है कि वह कभी भी CWC प्रस्ताव में मध्य पूर्व संकट का संदर्भ नहीं चाहते थे. उनका कहना है कि इसकी रिलीज के समय कुछ ‘लिपिकीय त्रुटि’ के कारण इसका उल्लेख किया गया था और खरगे इससे नाराज थे. ख़ैर, खरगे नाराज़ थे जब उन्होंने ट्वीट करके रमेश द्वारा बताए गए पार्टी के रुख को दोहराया. हालांकि, उन्हें अब तक निश्चित रूप से पता चल गया होगा कि सीडब्ल्यूसी प्रस्ताव में वह पैराग्राफ किसने डलवाया था.
संक्षेप में कहें तो, खरगे ने अपने पहले साल में ही 138 साल पुरानी पार्टी की मशीनरी और यांत्रिकी पर काम करके उसके जंग लगे पहियों को कुछ हद तक गति दे दी है. वह पार्टी के दूत के बारे में कुछ नहीं कर सकते और यह भी कि राहुल गांधी मोदी के मुकाबले के हैं या नहीं. जहां तक 2024 में पीके के आखिरी एम-संदेश-का सवाल है, यह एक बड़ी चुनौती बनी हुई है. आगामी विधानसभा चुनाव के नतीजे इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हो सकते हैं. इतना कहा जा सकता है कि गैर-गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अपेक्षाकृत बेहतर दिख रही है.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. यहां व्यक्त विचार निजी है.)
(अनुवाद और संपादन – पूजा मेहरोत्रा)
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