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Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतअगर हम राजनीति में धन बल को रोक नहीं सकते, तो चुनावी खर्च की सीमा बांधने के पाखंड से क्यों न पिंड छुड़ा लें?

अगर हम राजनीति में धन बल को रोक नहीं सकते, तो चुनावी खर्च की सीमा बांधने के पाखंड से क्यों न पिंड छुड़ा लें?

मुनुगोडे भारत में चुनावी राजनीति का भविष्य बन सकता है. दरअसल, जमीनी स्तर पर राजनीति अब `साइड बिजनेस` के रूप में हो रही है..

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आपने मुनुगोडे के बारे में नहीं सुना है क्या? आगामी चुनावों का नरम-गरम भांपने के ख्याल से मैं तेलंगाना में था. यहां हर बातचीत की शुरुआत पैसे से हो रही थी और अंत भी पैसे पर ही हो रहा था.

इस सवाल के साथ इस बार कोई मुझपर मुस्कुरा रहा था. चंद हफ्ते पहले मैं अपने आंदोलनी मित्रों के भोलेपन पर मुस्कुराया था. तब बिहार के एक साथी ये जानकर बड़े अचरज में थे कि विधायकी के लिए खड़ा हुआ हर उम्मीदवार एक करोड़ से ज्यादा रूपये खर्च करता है और मध्यप्रदेश के एक साथी ने ये जानकारी साझा की थी कि गांठ में जबतक खर्च को कम से कम दो करोड़ रुपये ना हो तबतक आपको टिकट ही नहीं मिलता.

चुनाव-खर्च को लेकर बिहार और मध्य प्रदेश के अपने साथियों के अचरज से मेरे होठों पर मुस्कान आयी क्योंकि कुछ माह पहले मैं कर्नाटक में था. संयोगात मेरी भेंट एक बड़ी पार्टी के असफल उम्मीदवार से हुई. निराशा भरी चिड़चिड़ाहट में वे शिकायत कर रहे थे कि उम्मीदवारों के चयन में पारदर्शिता नहीं बरती जाती. मेरे दिल में उनके लिए सहानुभूति के भाव जागे. “ अब मैं अपने इन तमाम निवेश का क्या करूं?” उस उम्मीदवार ने मेरी तरफ मुखातिब होते हुए पूछा. ‘राजनीति लंबा चलने वाला खेल है, इसमें कोई निवेश बेकार नहीं जाता.’ मैंने उनके सवाल के जवाब में धीमे से ऐसा ही कुछ कहा. “ ना, ना.. मैं ये बात पूछ ही नहीं रहा. मेरी सामने एक खास मुश्किल आ खड़ी हुई है. मुझे पक्का भरोसा दिया गया था कि तुम्हें टिकट मिलेगा और मैंने लोगों में बांटने के लिए 40,000 रंगीन टीवी सेट्स खरीद लिये. मैं अब उन टीवी सेट्स का क्या करूं ? उन लोगों ने ये भी कहा था कि चुनाव के नजदीक आने पर चीजें महंगी हो जायेंगी, सो मैंने सोचा कि अभी खरीद लूं तो दाम में कुछ छूट मिल जायेगी..”

मतलब, अगर हम सबसे किफायती दाम और रियायती दर पर मिल रहे टीवी सेट्स की कीमत प्रति पीस 10 हजार रुपये लगायें तो कुल रकम 40 करोड़ की बैठेगी. मैंने मन ही मन हिसाब लगाया.


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चुनाव-खर्च का दायरा

इस जानकारी से हतप्रभ, मैंने सियासी दायरे में कुछ पूछताछ की. ये बात तो खैर जाहिर है कि अपने ‘निवेश’ का रोना रो रहे इस खास उम्मीदवार का चुनावी बजट कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा था लेकिन थोड़ा कम-बेश इसी दायरे का खर्च कर्नाटक में बाकी उम्मीदवारों को भी करना होता है. कर्नाटक के ग्रामीण इलाके के एक सामान्य विधानसभा क्षेत्र में चुनाव लड़ रहे किसी भी उम्मीदवार को 20–30 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ते हैं.

आरक्षित सीटों पर खर्चा इससे थोड़ा ही कम होता है जबकि सम्पन्न इलाकों की सीटों पर चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को इससे कुछ ज्यादा ही रकम खर्च करनी पड़ती है. शहरी इलाकों की सीटों, खासकर बेंगलुरु और उसके आस-पास के इलाके की सीटों से चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को 40–50 करोड़ रुपये खर्च करने होते हैं. बेंगलुरु से लगते एक सीट से चुनाव लड़ रहे उस उम्मीदवार की चर्चा हर किसी के जबान पर थी जिसके बारे में लोग-बाग मानकर चल रहे थे कि उसने चुनाव पर 150 करोड़ रुपये खर्च किये हैं.

तभी से मैं इस उधेड़बुन में लगा हूं कि आखिर अभी के चुनावों में खर्चा किस पैमाने का हो रहा है. बेशक कर्नाटक के चुनावों में खर्चा कुछ ज्यादा ही होता है लेकिन बात सिर्फ कर्नाटक की नहीं बल्कि केरल को छोड़कर दक्षिण भारत के बाकी राज्यों और पश्चिमी भारत के राज्यों में भी चुनावी खर्च इसी पैमाने का होता है. राजनीतिक भ्रष्टाचार के लिए कुछ ज्यादा ही बदनाम हिन्दी-पट्टी के राज्य चुनावी खर्च के मामले में दक्षिण और पश्चिम भारत के राज्यों का मुकाबला नहीं कर सकते. जो राज्य जितना अधिक धनी है, वहां चुनाव पर उम्मीदवार उतना ही ज्यादा खर्च करते हैं.

लेकिन उत्तर भारत के राज्यों में भी किसी सीट से लड़ रहा कोई गंभीर उम्मीदवार 5 से 10 करोड़ रुपये तो खर्चता ही है. अगर हर राज्य के लिए 10 करोड़ रुपये का औसत खर्च मानकर चलें और ये भी मान लें कि हर चुनावी सीट पर कम से कम तीन उम्मीदवार चुनावी जंग के लिए पूरी गंभीरता से मैदान में डटे हैं तो कुल मिलाकर पूरे देश में होने वाले विधानसभा चुनावों पर ही 1.25 लाख करोड़ रुपये का खर्च होता है. और, हमें मानकर चलना चाहिए कि आगामी लोकसभा चुनाव में इससे कम रकम खर्च नहीं होने जा रही.

‘पैसा नहीं तो वोट नहीं’

मैं इसी हिसाब-किताब में पड़ा था कि मुझे मुनुगोडे के बारे में पता चला. मैं तेलंगाना में था और कर्नाटक में हुए चुनाव-खर्च को लेकर अपनी निराशा का इजहार कर रहा था. तभी मेरी बातों पर मुस्कुराते हुए मेरे एक साथी ने कहा, “ बस 20 – 30 करोड़ रुपये? आप जरूर ही मजाक कर रहे हैं. आपने मुनुगोडे के बारे में नहीं सुना क्या?” मुझे उस उप-चुनाव की हल्की सी याद रह गई थी.

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान 2022 के नवंबर में ये उप-चुनाव हुआ था. मुझे वो बात याद आयी कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव अपने नवगठित भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के हक में उस उप-चुनाव को जीतने के लिए किस हद तक बेताब थे. इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा था और कांग्रेस इस सीट को बचाने के लिए जी-जान से जुटी थी जबकि भारतीय जनता पार्टी इस सीट पर अपनी बढ़ती हुई पकड़ साबित करने के लिए मैदान में उतरी थी.

इसके नतीजे चौंकाने वाले थे, कम से कम चुनाव-खर्च के लिहाज से. यहां बात किराये पर लोगों को लाकर रैली करने, लोगों को दारू के साथ बिरयानी खिलाने या साड़ी बांटने तक सीमित नहीं थी. इस उप-चुनाव के बारे में खबर ये छपी थी कि एक उम्मीदवार ने हर परिवार को 10 ग्राम सोना बांटा है. रैली में आने या फिर एक दिन के प्रचार-कार्य के लिए ही नहीं बल्कि कोई दिन भर पार्टी का पटका पहना रहे तो उसे भी तयशुदा दर से रकम दी जा रही थी. कुछ गांवों में पैसा नहीं बंटा तो वहां के निवासी मतदान के दिन धरने पर बैठ गये, उन्होंने अपने हाथ में तख्तियां उठा रखी थी जिनपर लिखा थाः नोट नहीं तो वोट नहीं.

इन मतदान-केंद्रों पर बड़े मान-मनौव्वल के बाद मतदान आखिर को दिन ढले 3 बजे से शुरू हुआ और गई रात 11 बजे तक जारी रहा. तेलंगाना के सियासी हलकों में लोग-बाग दबी जुबान से कह रहे थे कि सत्ताधारी पार्टी ने मुनुगोडे में 400 करोड़ रुपये खर्च किये हैं. फोरम फॉर गुड गवर्नेंस नाम के एक एनजीओ ने चुनाव आयोग में इस आरोप के साथ शिकायत दर्ज करायी कि इस उप-चुनाव में 627 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं.

मुनुगोडे ने तेलंगाना में मानो चुनाव-खर्च का एक मानक ही बना दिया. इस बार लोग-बाग मुझे बता रहे हैं कि तेलंगाना में किसी भी विधानसभा सीट पर कोई भी उम्मीदवार 100 करोड़ रुपये से कम खर्च नहीं करने जा रहा. अब भले ही इस बात में अतिरंजना का पुट हो लेकिन एक सामान्य सीट पर हर उम्मीदवार कम से कम 50 करोड़ रूपये तो खर्च करेगा ही. मुनुगोडे भारत में चुनावी राजनीति का भविष्य बन सकता है. ना, यहां हम ये नहीं कह रहे कि चुनावी प्रतिस्पर्धा के जमीनी स्तर पर राजनीति और कारोबार का गठजोड़ हो गया है.

दरअसल, जमीनी स्तर पर राजनीति अब `साइड बिजनेस` के रूप में हो रही है. आप अपने खदान, निर्यात, शिक्षा-संस्थान आदि कारोबार से बेतहाशा रुपये कमाते हैं और इसके बाद आप राजनीति के मैदान में उतर आते हैं, मीडिया में चले आते हैं ताकि अपने मुख्य कारोबारी हितों का रक्षा कर सकें.


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चुनाव खर्च की निगरानी का पाखंड

तो क्या कोई है जो इन बातों पर नजर रखे? हां, भारत के चुनाव आयोग ने एक पूरा महकमा ही कायम कर रखा है जो चुनावों में होने वाले खर्च की निगरानी करता है. आयोग ने एक मोटी सी संहिता बना रखी है जिसमें साफ-साफ लिखा है कि कोई पार्टी या उम्मीदवार चुनाव-खर्च के मद में क्या कर सकता है और क्या नहीं. ऐसे नियम और प्रोफार्मा हैं जिनके तहत आपको चुनाव-खर्च का छोटे से छोटा विवरण दर्ज करना होता है जिसमें एक कॉलम अलग से बना होता है जहां आपको ये बताना होता है कि चुनावी रैली में फूलों और मालाओं पर आपने कितने रुपये कैसे खर्च किये. और सच जानिए, ये काम बड़ी सिरदर्दी का है.

भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) के अधिकारियों की एक पूरी फौज चुनाव व्यय पर्यवेक्षक (इलेक्शन एक्सपेंडिचर ऑब्जर्वर) के रूप में तैनात की जाती है. इसकी सहायता के लिए स्थानीय स्तर पर एक टीम होती है. मतलब, आप अनुमान लगा सकता हैं कि इतने सारे ताम-झाम में खर्चा खूब होता है. इसके बाद छापामारी के लिए अलग से दस्ते लगाये जाते हैं. वे जगह-जगह चेकपोस्ट लगाते हैं और आने-जाने वाले हर वाहन की जांच करके देखते हैं कि कहीं गाड़ियों पर मतदाताओं में रेवड़ी बांटने के सामान तो नहीं लादकर ले जाये जा रहे.

मतलब, जनता-जनार्दन को आवागमन में परेशानी खूब ही झेलनी होती है. अधिकतम चुनावी खर्च की भी सीमा तय कर दी गई है, ज्यादातर राज्यों में यह प्रति विधानसभा क्षेत्र 40 लाख रुपये है. रिटर्न फाइल करने के लिए भी समय-सीमा तय है और इसपर पूरी सख्ती से अमल होता है. जो समय पर रिटर्न दाखिल नहीं कर पाये उन्हें अयोग्य करार देने का खतरा अलग से लगा रहता है. मतलब, यों समझिए कि किसी चार्टर्ड एकाउंटेंट के लिए ढेर सारा काम !

हालांकि इसमें एक पेंच है. अभी तक अपने कार्यकाल के दरम्यान कोई भी निर्वाचित विधायक या सांसद चुनाव-खर्च के झूठे विवरण देने के अपराध में अयोग्य करार नहीं दिया गया. एक विधायक को अयोग्य करार दिया गया है लेकिन कार्यकाल की समाप्ति के बाद. अदालत में ऐसे कुछ मामले लंबित हैं. यानी, निगरानी के नाम पर अबतक यही हमारा हासिल है. चुनाव खर्च पर निगरानी रखने के इस पूरे दिखावे का नतीजा बस इतना भर निकला है.

अब यहां ये भी दर्ज करते चलें कि मुनुगोडे में क्या हुआ. वहां हर उम्मीदवार ने विधिवत चुनाव-खर्च की अपनी विवरणी फाइल कीः जिस उम्मीदवार ने सबसे ज्यादा चुनाव खर्च दिखाया था उसने विवरणी में अपना कुल खर्च 34.75 लाख रूपये लिखा था.

मैंने चुनावी आचार-संहिता, प्रति विधानसभा चुनाव-क्षेत्र 40 लाख रुपये अधिकतम खर्च की सीमा, चुनाव-व्यय पर्यवेक्षक की तैनाती आदि के बारे में चुनाव आयोग की नवीनतम घोषणाओं को सुना और इन घोषणाओं पर बस मुस्कुराकर रह गया. थोड़े विस्मय से भरकर ये सोचा कि क्या चुनाव-खर्च पर सीमा आयद करने की इस झूठी कवायद को हम छोड़ दें तो अच्छा नहीं होगा. चुनाव-खर्च पर निगरानी के नाम पर जो सरकारी खर्चा होता है. कम से कम उतना तो बच जाता !

सच ये है कि राजनीति में चाहे सफेद धन अवैध तरीके से खर्च किया जा रहा हो या फिर काला धन ही खपाया जा रहा हो तो चुनाव आयोग इसे रोकने-टोकने के मामले में विशेष कुछ नहीं कर सकता. चुनाव में नाजायज तरीके से सफेद धन खर्चने पर रोक के जो उपाय किये गये थे, बीते सालों में उन्हें एक-एक करके हटा लिया गया है. कोई उम्मीदवार अधिकतम कितना खर्च कर सकता है, इसे लेकर एक सीमा बेशक है लेकिन कोई पार्टी चुनाव में कितना खर्च कर सकती है, इसे लेकर कोई अधिकतम सीमा तय नहीं की गई है. इन दोनों के बीच कोई विभाजक-रेखा मौजूद ही नहीं.

कारपोरेट-जगत से होने वाली सियासी फंडिंग पर पहले से जो सीमा लगी चली आ रही थी उसे हटा दिया गया है. राजनीतिक चंदे के मामले में पारदर्शिता कायम रखने के लिए जो कुछ शेष था वह इलेक्टोरल बांड के चलन के बाद खत्म हो गया है. जबतक इस विषय में कुछ नहीं किया जाता तबतक चुनाव आयोग से खुले खेत की रखवाली करने को कहना बेकार है.

जहां तक कालेधन का सवाल है, सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार पर लगाम कसने और दंडित करने की तुलना में राजनीति में इसकी(कालेधन की) निशानदेही करना और दंडित करना कहीं ज्यादा मुश्किल है. कमजोरी की शिकार संस्थाओं वाले देश में कोई उन लोगों पर कैसे निगरानी रखे जो कानून बनाते और उसे अमल में लाते हैं? जब शिक्षा से लेकर धर्म तक जीवन के बाकी दायरों का व्यवसायीकरण हो रहा है तो राजनीति में धन के बढ़ते प्रभाव पर कैसे लगाम कसी जाये? राजनीति में एक ही लगाम वास्तविक और कारगर होती है और वह है ये डर कि कहीं जनता-जनार्दन की नजरों से उतर ना जायें. राजनीति की बीमारियों का उपचार ज्यादा और बेहतर राजनीति के जरिए ही हो सकता है.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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