गुरुग्राम: सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी सरकार को सतलुज यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर विवाद पर सख्त आदेश जारी करने के लिए मजबूर न करने की चेतावनी देने के एक दिन बाद, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने इस मामले पर बागी तेवर दिखाए.
गुरुवार को एक आपातकालीन कैबिनेट बैठक के बाद, मान ने ट्वीट किया कि “किसी भी कीमत पर किसी अन्य राज्य को अतिरिक्त पानी की एक बूंद भी नहीं दी जाएगी”.
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से कहा कि वह पंजाब में सतलज यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर के निर्माण के लिए ज़मीन का सर्वेक्षण कराए ताकि यह पता लगाया जा सके कि इसके क्षेत्र में कितना काम हुआ है.
कोर्ट ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी से कहा कि अदालत पंजाब में एसवाईएल नहर निर्माण के कार्यान्वयन को लेकर चिंतित है और इसलिए, केंद्र को राज्य में पूरा किए गए काम की सीमा निर्धारित करने के लिए एक सर्वेक्षण करना चाहिए.
शीर्ष अदालत ने कहा, “आप (पंजाब) कोई समाधान खोजें या हमें एक आदेश पारित करना होगा, जो अच्छा नहीं लगेगा. आप अदालत के आदेश का उल्लंघन नहीं कर सकते, आप यह नहीं कह सकते कि ज़मीन (एसवाईएल के लिए अधिगृहीत) अब किसानों के कब्जे में है. हमें आदेश पारित करने के लिए बाध्य न करें. हमने अब तक खुद को संयमित रखा है.”
पिछले छह दशकों में अंतहीन विरोध प्रदर्शन, उग्रवादियों द्वारा मजदूरों और इंजीनियरों की हत्या, अदालती सुनवाई और आदेश, राष्ट्रपति का संदर्भ, पंजाब विधानसभा द्वारा सभी जल समझौतों को रद्द करना और नहर के लिए अधिगृहीत भूमि को डि-नोटिफाई करना शामिल है.
तो, एसवाईएल नहर विवाद क्या है जिसे लगातार सरकारें और दशकों की मुकदमेबाजी हल करने में असमर्थ रही है और यह मुद्दा किस बारे में है? दिप्रिंट इस बारे में आपको बता रहा है.
यह भी पढ़ेंः कीट-पतंग और फंगस के हमले से हरियाणा में कपास के किसान परेशान, दूसरे सीजन में भी खड़ी फसलें हुईं नष्ट
जड़ में जल विवाद, नतीजा नहर निर्माण
समस्या की जड़ में हरियाणा और पंजाब के बीच पानी को लेकर एक आभासी लड़ाई है, जबकि एसवाईएल के निर्माण का मुद्दा इसका परिणाम है.
1966 में जब हरियाणा को पंजाब से अलग किया गया, तो इसके संसाधनों का बंटवारा हो गया, लेकिन उस समय रावी और ब्यास नदियों के पानी के बंटवारे की शर्तों पर कोई फैसला नहीं हो सका.
अन्य सभी संसाधनों की तरह, नदी जल पर भी हरियाणा का दावा इस सिद्धांत से उपजा है कि जब एक राज्य बनता है, तो मूल राज्य की सभी संपत्तियों पर उसका आनुपातिक अधिकार होता है.
हालांकि, पंजाब नदी से संबंधित अधिकारों के सिद्धांतों पर हरियाणा के दावे को नकारता रहा है. यह सिद्धांत कहता है कि किसी वॉटर बॉडी यानी जल निकाय से सटी भूमि के मालिक का उसके जल पर अधिकार है. पंजाब का यह भी दावा है कि उसके पास हरियाणा के लिए अतिरिक्त पानी नहीं है.
जबकि यह मुद्दा एक दशक तक लंबित रहा, केंद्र ने 1976 में एक अधिसूचना जारी की कि पंजाब और हरियाणा दोनों को 3.5 मिलियन एकड़ फीट (एमएएफ) पानी मिलेगा. लेकिन, पंजाब इस अधिसूचना पर कभी सहमत नहीं हुआ.
बाद में, 31 दिसंबर, 1981 को हरियाणा, पंजाब और राजस्थान ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जब कांग्रेस तीनों राज्यों में सत्ता में थी. जनवरी 1980 में आम चुनाव जीतकर कांग्रेस पार्टी केंद्र की सत्ता में लौट आई थी.
यह समझौता इस आकलन पर आधारित था कि रावी और ब्यास जल की कुल उपलब्धता 17.17 एमएएफ अनुमानित है. समझौते में पंजाब के लिए 4.22 एमएएफ, हरियाणा के लिए 3.5 एमएएफ और राजस्थान के लिए 8.6 एमएएफ की परिकल्पना की गई थी.
जबकि 1966 में पानी के बंटवारे का मामला अधर में लटका हुआ था, उस समय एसवाईएल नहर की योजना बनाई गई थी ताकि जब भी पानी का बंटवारा हो तो हरियाणा अपने हिस्से का पानी अपने खेतों में ले सके.
211 किलोमीटर लंबी नहर का निर्माण सतलज और यमुना को करना था, जिसका 121 किलोमीटर हिस्सा पंजाब क्षेत्र में और बाकी 90 किलोमीटर हिस्सा हरियाणा में बनाया जाना था.
हालांकि, इन सभी 57 वर्षों में जब से नहर बनाने पर विचार किया गया था, हरियाणा और पंजाब ने बहुत सारी राजनीति देखी है, जिसने इसे एक भावनात्मक मुद्दा बना दिया है.
हरियाणा ने जून 1980 तक अपने क्षेत्र में एसवाईएल का काम पूरा कर लिया. पंजाब ने 1982 में निर्माण शुरू किया, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटियाला के कपूरी गांव में काम शुरू किया.
हालांकि, शिरोमणि अकाली दल (SAD) ने SYL नहर के निर्माण के खिलाफ एक लंबा आंदोलन, कपूरी मोर्चा चलाया.
जुलाई 1985 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सौहार्द्रपूर्ण समाधान खोजने के लिए शिअद के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी. बालकृष्ण एराडी की अध्यक्षता में एक न्यायाधिकरण स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की. इराडी आयोग ने 1987 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें पंजाब और हरियाणा का हिस्सा बढ़ाकर 5 एमएएफ और 3.83 एमएएफ कर दिया गया.
अंतर्राज्यीय प्रतिद्वंद्विता ने एक साल बाद हिंसक रूप ले लिया. 1988 में उग्रवादियों ने नहर पर काम कर रहे कई मजदूरों की हत्या कर दी. जुलाई 1990 में एम.एल. सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता सेखरी और अधीक्षण अभियंता अवतार सिंह औलख की गोली मारकर हत्या कर दी गई, जिससे पंजाब में काम रुक गया.
लंबी लड़ाई
1996 में जब हरियाणा ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. फैसला 2002 में आया जब कोर्ट ने पंजाब को एक साल के भीतर नहर को पूरा करने का निर्देश दिया. इसके बाद पंजाब ने फैसले के खिलाफ समीक्षा याचिका दायर की, जिसे खारिज कर दिया गया.
2004 में, शीर्ष अदालत ने केंद्रीय लोक निर्माण विभाग को पंजाब में नहर के निर्माण का काम अपने हाथ में लेने को कहा.
लेकिन, फैसले के तुरंत बाद अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने विधानसभा में पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट्स एक्ट (पीटीएए) पारित कर दिया, जिसने पड़ोसी राज्यों के साथ अपने सभी जल समझौतों को रद्द कर दिया.
इसके बाद राष्ट्रपति भवन ने अधिनियम की वैधता पर निर्णय लेने के लिए मामले को सर्वोच्च न्यायालय में भेज दिया. 10 नवंबर, 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने उस अधिनियम को रद्द कर दिया जिसने पंजाब सरकार द्वारा सभी जल समझौतों को रद्द कर दिया था.
इसके बाद पंजाब सरकार ने एसवाईएल नहर के निर्माण के लिए अधिगृहीत 5,376 एकड़ भूमि को गैर-अधिसूचित कर दिया और इसे मूल मालिकों को वापस करने की घोषणा की.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2017 में एक आदेश पारित कर अपने पहले के फैसले पर अमल करने का आदेश दिया और दोनों राज्यों से हर कीमत पर कानून और व्यवस्था बनाए रखने को कहा. इसने केंद्र से कहा कि वह पारस्परिक रूप से सहमत समाधान खोजने के लिए दोनों राज्यों के साथ संयुक्त रूप से बैठकें करे, लेकिन कई दौर की बैठकें ऐसा करने में विफल रही हैं.
अब पंजाब सरकार के एक बार फिर सख्त रुख अपनाने से विवाद खत्म होता नजर नहीं आ रहा है. सरकारी सूत्रों के मुताबिक, मुख्यमंत्री इस मुद्दे पर चर्चा के लिए राज्य विधानसभा का एक विशेष सत्र बुलाने की योजना बना रहे हैं.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ेंः मोनू मानेसर की जमानत याचिका के खिलाफ अभियोजन पक्ष ने कहा- प्रोटेक्शन मनी के लिए नासिर-जुनैद पर दबाव डाला