नई दिल्ली: कम्युनिटी-बेस्ड सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म लोकलसर्कल्स द्वारा शहरी भारत में किए गए एक सर्वेक्षण में जवाब देने वालों में से 50 प्रतिशत से अधिक लोगों ने महसूस किया कि पिछले तीन वर्षों में उनके संबंधित जिलों या शहरों में कार्यात्मक सार्वजनिक शौचालयों की उपलब्धता में पिछले तीन सालों में “कोई सुधार नहीं” हुआ है.
इसकी तुलना में, 42 प्रतिशत ने कहा कि इसी अवधि में कार्यात्मक सार्वजनिक शौचालयों की उपलब्धता में सुधार हुआ है.
सर्वेक्षण के नतीजे सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2 अक्टूबर, 2014 को शुरू किए गए स्वच्छ भारत मिशन की नौवीं वर्षगांठ के अवसर पर जारी किए गए – जिसका उद्देश्य “सार्वभौमिक स्वच्छता कवरेज प्राप्त करना” है.
भारत के 341 जिलों में आयोजित इस सर्वेक्षण में प्रश्नों पर कुल 39,000 प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं, जिनमें 47 प्रतिशत उत्तरदाता टियर 1 जिलों से, 31 प्रतिशत टियर 2 जिलों से और 22 प्रतिशत टियर 3 और 4 जिलों से थे.
इस प्रश्न पर कि “पिछले तीन वर्षों में आपके जिले/शहर में कार्यात्मक सार्वजनिक शौचालयों की उपलब्धता में कैसे सुधार हुआ है” 13,000 उत्तरदाताओं में से 52 प्रतिशत ने उत्तर दिया कि “कोई सुधार नहीं हुआ”, जबकि तीन प्रतिशत ने कहा कि स्थिति “बदतर हो गई है” और अन्य तीन प्रतिशत ने उत्तर दिया “कह नहीं सकते”. बाकी 42 फीसदी की राय थी कि हालात बेहतर हुए हैं.
सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, यहां तक कि मुंबई, दिल्ली या बेंगलुरु जैसे मेट्रो शहरों में भी, सार्वजनिक शौचालयों में जाना “आम तौर पर एक बुरे स्वप्न” की तरह माना जाता था, जब तक कि इसे सुलभ इंटरनेशनल या एक कुशल सिविक बॉडी जैसे संगठनों द्वारा प्रबंधित नहीं किया जाता या प्रयोग के लिए भुगतान करने की प्रणाली नहीं अपनाई जाती.
रिपोर्ट में कहा गया है, “कई बार सुविधाएं इतनी खराब या असुरक्षित होती हैं कि लोगों चाह के भी इसका उपयोग नहीं कर पाते और उन्हें असुविधा का सामना करना पड़ता है.”
इसमें आगे कहा गया है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत नौ वर्षों में 5.07 लाख के लक्ष्य के मुकाबले 6.3 लाख से अधिक सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया गया है.
मिशन के लॉन्च के बाद से, 4,355 शहरी स्थानीय निकाय क्षेत्रों को “खुले में शौच मुक्त” (ओडीएफ) घोषित किया गया है, जबकि 3,547 अन्य को “ओडीएफ+” और 1,191 को “ओडीएफ++” घोषित किया गया है.
जबकि ODF+ श्रेणी का मतलब पानी, रखरखाव और स्वच्छता वाले शौचालयों से है, ODF++ ऐसे शौचालय हैं जिनमें कीचड़ और सेप्टेज मैनेजमेंट भी होता है.
रिपोर्ट में कहा गया है, “पिछले तीन वर्षों में लोकलसर्कल्स पर बड़ी संख्या में लोगों ने जो बड़ा मुद्दा रिपोर्ट किया है, वह है उनके क्षेत्र, जिले या शहर में सार्वजनिक शौचालयों की स्वच्छता, साफ-सफाई और रखरखाव की कमी.”
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‘रखरखाव को प्राथमिकता देने की जरूरत’
इस प्रश्न पर 13,700 से अधिक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं, जब पूछा गया कि “जब आपको या आपके परिवार को आपके शहर/जिले में सार्वजनिक स्थानों पर शौचालय का उपयोग करना पड़ता है, तो आप आम तौर पर क्या करते हैं?”
58 प्रतिशत तक उत्तरदाताओं ने कहा कि वे होटल, मॉल या रेस्टोरेंट जैसे व्यावसायिक प्रतिष्ठानों या पेट्रोल पंपों पर शौचालय का उपयोग करना पसंद करते हैं.
अन्य 21 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि अगर उन्हें अपनी सुविधानुसार टॉयलेट नहीं मिल पाता है तो वे घर पहुंचने तक “इंतजार करना” पसंद करते हैं या “खुले में जाना” पसंद करते हैं.
सर्वेक्षण में शामिल केवल 18 प्रतिशत शहरी भारतीयों ने कहा कि वे या उनके परिवार के सदस्य भुगतान या मुफ्त सुविधाओं वाले सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करते हैं, जबकि तीन प्रतिशत ने कहा कि वे “ऊपर सूचीबद्ध विकल्पों के अलावा अन्य विकल्पों” पर भरोसा करते हैं.
सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करने में झिझक के पीछे रखरखाव या उसकी कमी एक संभावित कारण हो सकता है.
इस सवाल पर कि “जब आपने पिछले तीन वर्षों में अपने शहर/जिले में स्थानीय प्रशासन द्वारा बनाए गए सार्वजनिक शौचालय को विज़िट किया, तो आपको इसका रखरखाव कैसा लगा?”, 12,000 उत्तरदाताओं में से 10 प्रतिशत ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी.
बाकी में से, 37 प्रतिशत ने सार्वजनिक शौचालयों को “औसत/फंक्शनल” बताया, 25 प्रतिशत ने उन्हें “औसत से नीचे/बमुश्किल फंक्शनल” बताया, 16 प्रतिशत ने उन्हें “डरावना” कहा और 12 प्रतिशत ने सार्वजनिक शौचालयों को इतना खराब पाया कि उन्होंने कहा “गए तो” लेकिन सुविधाओं का उपयोग किये बिना ही बाहर आ गए.
सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है, “इन निष्कर्षों को स्वच्छ भारत मिशन शहरी के साथ-साथ उन सभी शहरी स्थानीय निकायों के लिए आंखें खोलने वाला होना चाहिए जो इन सार्वजनिक शौचालयों का रखरखाव करते हैं. समय की मांग है कि नए सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण की तुलना में मौजूदा सार्वजनिक शौचालयों के रखरखाव को प्राथमिकता दी जाए,”
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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