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Thursday, 21 November, 2024
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क्यों मीडिया की ग्राउंड रिपोर्ट, ओपिनियन और एग्ज़िट पोल चुनाव को लेकर एक मत नहीं हैं

समाचार रिपोर्ट राजनीतिक रणनीति और स्थानीय मुद्दों को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ये सीटों की टैली को बड़े पैमाने पर प्रभावित नहीं करते हैं.

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अब बस केवल दो चरण के चुनाव शेष रह गये हैं. सो सबकी नज़रें 23 मई की तारीख पर टिकी हैं. अभी तक हमें दो तरह की बातें सुनायी पड़ी हैं. पुलवामा और बालाकोट की घटना के बाद, इन्हें आधार मानकर बहुत से ओपनियन पोल और पूर्वानुमान सामने आये. तकरीबन सब ही में बीजेपी की साफ-साफ बढ़त बतायी गई, माना गया कि बीजेपी आसानी से सरकार बनाने की स्थिति में है. चुनाव शुरु होने और पूर्वानुमानों के प्रकाशन-प्रसारण पर रोक लगने के साथ अब हम देख रहे हैं कि मीडिया में बड़े पैमाने पर ज़मीनी रिपोर्टें आ रही हैं और ज़्यादातर रिपोर्टों में बताया जा रहा है कि चुनावी नतीजे की तस्वीर मिली-जुली होगी.

यूपी में पहले दो चरण के चुनाव में बीजेपी को घाटा उठाना होगा, महाराष्ट्र में एनडीए गठबंधन को परेशानी होगी, बिहार में विपक्ष ने जोरदार प्रचार अभियान चला रखा है, एआईएडीएमके गठबंधन तमिलनाडु में डीएमके की राह में रोड़े अटका रहा है तथा ऐसी ही और अनेक बातें.

अब ऐसे में दो ही संभावनाएं नज़र आती है. या तो चुनाव से ऐन पहले हुए सर्वेक्षणों के बाद राजनीतिक रुझान बदल गये हैं और बालाकोट की घटना की गूंज लोगों के बीच मद्धम पड़ गई है या फिर ज़मीनी रिपोर्टों में चीज़ों को देखने का चश्मा बदल गया है. सच्चाई जस की तस है लेकिन ज़मीनी रिपोर्टों में उसे देखने-परखने का नज़रिया बदल गया है और ऐसे में चुनाव की एक बदली हुई तस्वीर उभरकर सामने आ रही है. ये दोनों ही बातें महत्वपूर्ण हैं. बशर्ते हम जानते हों कि इनका उपयोग कैसे करना है.


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काक चेष्टा बनाम विह्गंम दृश्य

पाठक इजाज़त दें तो यहां मैं अपने निजी अनुभव का हवाला देते हुए आगे की कुछ बातें लिखूं. इस चुनाव के साथ पेशेवर तौर पर चुनावों को देखते-समझते मेरे तीन दशक पूरे हो रहे हैं. मैंने पहली बार चुनाव संबंधी पूर्वानुमान शौकिया तौर पर 1989 में पेश किया था, वो पूर्वानुमान पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ के एक नामालूम से विभागीय सेमिनार में प्रस्तुत किया गया था. इसके बाद 1991 में मैंने चंडीगढ़ लोकसभा सीट के लिए 1991 में पहला एक्ज़िट पोल किया. सीएसडीएस से 1993 में जुड़ाव के बाद चुनाव से जुड़े सर्वेक्षणों का एक लंबा सिलसिला रहा मेरे साथ.

इन सर्वेक्षणों की गिनती खैर क्या करना. हां, चुनाव-सर्वेक्षणों के इस सिलसिले से मैं दूर हुआ 2012 की फरवरी में जब मैंने चुनाव के रुझानों के पूर्वानुमान के काम से औपचारिक तौर पर रिटायरमेंट लेने की घोषणा की. इसके बाद से एक-दो ऐसे अवसरों को छोड़कर जब खुद पर जब्त ना रख सका या फिर ऐसी कोई मजबूरी ना आन पड़ी, मैंने अपने को चुनावों के पूर्वानुमान के काम से अलग ही रखा है. ऐसा नहीं है कि इस काम में मेरी कोई रुचि ना रही. सच तो ये है कि चुनाव और हमारे लोकतंत्र से उसके रिश्ते की रंग-रेखाओं को लेकर मेरी दिलचस्पी और ज़्यादा गहरी हुई है. लेकिन अब मैं एक्ज़िट पोल के आंकड़ों को केंद्र में रखकर बनने वाली सुर्खियों को सुनने-सुनाने में पहले की तुलना में तनिक संयम बरतता हूं.

इन तीन दशकों के सैकड़ों चुनावों के अपने अनुभव पर गौर करुं तो मुझे एक खास पैटर्न नज़र आता है. चुनाव को देखने तथा उसकी रिपोर्टिंग करने के दो तरीके हैं. एक तो है ज़मीनी स्तर की रिपोर्टिंग और दूसरा है सर्वेक्षण आधारित विश्लेषण. सुविधा के लिए यहां हम ज़मीनी स्तर की रिपोर्टिंग को ‘काक-चेष्टा’ का नाम देंगे और सर्वेक्षण आधारित विश्लेषण को ‘विहंगावलोकन’ कहेंगे.

ज़मीनी स्तर की रिपोर्टिंगों को राजनीति के रिपोर्टर, मौका मुआयना के सहारे अध्ययन करने वाले राजनीति विज्ञानी, अधिकतर राजनीतिक कार्यकर्ता तथा राजनेता तरजीह देते हैं. वे प्रत्यक्ष निजी अवलोकन, व्यापक स्तर के दौरे, स्थानीय स्तर की राजनीति की गहरी समझ तथा कुछेक आम मतदाता एवं राजनीतिक कार्यकर्ता से हुई बातचीत को आधार बनाते हैं. वे राजनेताओं के हाव-भाव देखते हैं. चुनावी रैलियों में पहुंची भीड़ और उसकी मनोदशा को भांपते हैं. होर्डिंग्स, झंडे तथा राजनीतिक निष्ठा का संकेत करने वाली ऐसी ही अन्य चीज़ों पर ध्यान टिकाते हैं. इन तमाम बातों के आधार पर वे माहौल को लेकर एक गुणात्मक निष्कर्ष पर पहुंचते हैं. बताते हैं कि आखिर ‘हवा’ किस तरफ चल रही है. भारत में चुनावों के शुरुआती तीन दशकों तक चुनावी नतीजों के पूर्वानुमान का यही एकमात्र तरीका रहा.

फिर आया 1980 का दशक जब प्रणव रॉय ने इंडिया टुडे के लिए 1980 तथा 1984 में चुनावी नतीजों का पूर्वानुमान किया और एक नई राह खोली. इसके बाद से सैम्पल-सर्वे के आधार पर चुनाव-विश्लेषण करने की एक परिपाटी ही कायम हो गई. यों सेफोलॉजिस्ट या कहें कि ‘चुनावशास्त्री’ शब्द के व्यापक अर्थ हैं और इन नाम के भीतर आप चुनाव के एक और हरेक अध्येता को शामिल कर सकते हैं. लेकिन भारत में सेफोलॉजिस्ट शब्द चुनाव के नतीजे बताने वाले विशेषज्ञ के अर्थ में रुढ़ हो गया है. अमूमन, सेफोलॉजिस्ट एक व्यापक सर्वेक्षण करते हैं, सर्वेक्षण का इस्तेमाल विभिन्न पार्टियों को हासिल होने जा रहे वोटशेयर के आकलन में करते हैं और कुछ गणितीय मॉडल के सहारे वोटशेयर को सीटों की संख्या में तब्दील करते हैं. पत्रकार का तरीका चीज़ों को सीमित दायरे में निरखने-परखने का होता है. जबकि सेफोलॉजिस्ट एक प्रातिनिधिक सैम्पल के चयन के लिए सांख्यिकी के सूत्रों का इस्तेमाल करता है. मतदाताओं ने अपना मत किन बातों को ध्यान में रखकर दिया. इसका अनुमान सेफोलॉजिस्ट अप्रत्यक्ष संकेतों के सहारे नहीं करता. बल्कि मतदाता से सीधे-सीधे पूछ लेता है कि आप किसको वोट देंगे या आपने किसे वोट दिया है.

मिश्रित चित्र बनाम स्पष्ट लहर

यूरोप और उत्तरी अमेरिका में चुनाव संबंधी पूर्वानुमान का काम आज पूरी तरह से पोलस्टर (चुनावों के बाबत सर्वेक्षण करने वाले) के हाथ में है. वहां इस बात पर आम सहमति है कि चुनाव संबंधी पूर्वानुमान लगाना बड़े हद तक दक्षता और कौशल की मांग करता है और ऐसा वैज्ञानिक पद्धति के सर्वेक्षणों के सहारे ही हो सकता है. यूरोप और उत्तरी अमेरिका में पत्रकार, कमेंटेटर तथा राजनेता चुनाव संबंधी पूर्वानुमानों के मामले में पोलस्टर से होड़ करते नज़र नहीं आते. वे सैम्पल सर्वे के आधार पर होने वाले विश्लेषणों में अपनी ज़मीनी पड़ताल वाली रिपोर्टों से योगदान देते हैं. राजनीतिक रणनीतियों की व्याख्या-मीमांसा करते हैं. इस क्रम में इलेक्शन कवरेज का रंग और मिजाज भी लोगों के सामने उजागर होता है.

लेकिन भारत अभी उस स्थिति तक नहीं पहुंचा कि पत्रकार और कमेंटेटर अपने हिस्से का काम करें और पोलस्टर अपने हिस्से का काम. सन् 1980 के दशक में शुरुआत तो बड़ी शानदार हुई थी. इसके बाद के दो दशक में भी रिकार्ड बेहतरीन रहा. लेकिन इसके बाद से बीते एक दशक में पोलस्टर की साख पर कुछ बट्टा लगा है. ढेर सारे चुनाव-सर्वेक्षण होते हैं. बढ़े-चढ़े दावे किये जाते हैं. फर्ज़ी या फिर अधकचरे सर्वेक्षणों की भी भरमार है. साथ ही, पारदर्शिता को लेकर कोई पेशेवर संहिता भी अमल में नहीं आ सकी है. इससे पोलस्टर की छवि को धक्का लगा है. नतीजतन, राजनीति के रिपोर्टर तथा कमेंटेटर अब भी हमें चुनावी नतीजों के पूर्वानुमान के मैदान में अपने करतब दिखाते नज़र आते हैं. हालांकि यह उनका मैदान है नहीं.


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अमेरिकी राजनीति विज्ञानी फिलिप ओल्डनबर्ग ने जर्नल ऑफ कॉमनवेल्थ एंड कंपरेटिव पॉलिटिक्स में एक बड़ा ही अंतर्दृष्टि पूर्ण लेख पोलस्टर, पंडित्स एंड ए मैंडेट टू रुल शीर्षक से लिखा था. इस लेख में भारत में हुए 1984 के आम चुनावों की व्याख्या की गई थी.  इसमें बताने की कोशिश की गई थी कि आखिर राजनीति के कमेंटेटर्स 1984 में राजीव गांधी के नाम से बह रही चुनावी बयार को भांपने में क्यों नाकाम रहे. ओल्डनबर्ग ने बड़ी सरल सी व्याख्या दी थी कि पत्रकारों, विशेषज्ञों और राजनेताओं की एक तिकड़ी बनी हुई है और ये तीनों मिलकर चुनावी नतीजों के बारे में आम समझ गढ़ने का काम करते हैं. तीनों की आपस में बातचीत चलते रहती है और तीनों एक-दूसरे की कहे-समझे को पुष्ट करते रहते हैं.

स्थानीय सूझ के आधार पर बने इस कॉमनसेंस को राजनीति के व्याख्याता तथा कमेंटेटर अपनी जुबान देते हैं और मीडिया के सहारे लोगों के बीच ले जाते हैं. लेकिन पोलस्टर पत्रकार, विशेषज्ञ तथा राजनेताओं की इस तिकड़ी के दायरे से बाहर जाकर अपना काम करता है. वो सीधे मतदाताओं से बात करता है और ठीक इसी कारण सच्चाई तक पहुंचने की उसकी संभावना ज़्यादा होती है. जिन चुनावों में ‘लहर’ का ज़ोर होता है, उन पर ये बात खास तौर से लागू होती है. काकचेष्टा पर आधारित विश्लेषण मिली-जुली तस्वीर पेश करते हैं जबकि विहंगावलोकन का तरीका साफ-साफ देख लेता है कि ‘लहर’ चल रही है.

इलेक्शन रिपोर्ट और एक्जि़ट पोल 

आइए, इन बातों के बाद अब 2019 के चुनावों को लेकर हो रही चर्चा पर नज़र डालें. हम जो समाचार अभी पढ़ रहे हैं वो राजनीतिक दलों की रणनीति, स्थानीय मुद्दे, उम्मीदवार के असर तथा विभिन्न जाति और समुदायों के इस तरफ या उस तरफ जाने के बाबत समझ बनाने के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं. लेकिन, इन बातों से राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी नतीजों में कोई भारी उलट-फेर नहीं होने जा रहा. काकचेष्टा वाला तरीका मतदाताओं के मिजाज़ को भांपने का बेहतर तरीका नहीं है. बेशक समय-समय पर सेफोलॉजिस्ट के आकलन गलत साबित हुए हैं. तो भी सेफोलॉजिस्ट ने पार्टियों को मिलने वाले वोटशेयर का पूर्वानुमान एक हद तक सही किया है. अच्छे चुनाव-सर्वेक्षण से ये भी पता चल जाता है कि किस आयु-वर्ग, जाति-समुदाय या फिर जेंडर(स्त्री-पुरुष आदि) के लोगों ने किस पार्टी को वोट दिया है.

मतलब ये कि बेशक चुनावों को लेकर आ रही ज़मीनी रिपोर्टों को गौर से पढ़िए. लेकिन चुनाव के नतीजे क्या रहेंगे इसके बारे में राय बनाने के लिए एक्ज़िट पोल की प्रतीक्षा कीजिए. जो 19 मई की शाम में आयेंगे. पोलस्टर ही आपको ये भी बतायेंगे कि किसने किसको वोट दिया है. हां, किसी ने किसी को वोट दिया है तो ‘क्यों’ दिया और ‘कैसे’ दिया सरीखे सवालों के जवाब आपको राजनीति के कमेंटेटर्स मिलेंगे.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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