नई दिल्ली: नीतीश कुमार सरकार के बिहार में जाति सर्वे कराने और 2024 के लोकसभा चुनाव पर इसके संभावित प्रभाव को लेकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के भीतर चिंता बढ़ती दिख रही है.
यह सोमवार को उस समय और साफ दिखा जब सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता बिहार जाति सर्वे के खिलाफ याचिकाओं की सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की पीठ के समक्ष अचानक उपस्थित हुए और मोदी सरकार की ओर से एक हलफनामा दायर करने की अनुमति मांगी,
मेहता ने कहा कि सर्वे के “प्रभाव” होंगे और केंद्र का हलफनामा इसकी कानूनी वैधता के सवाल पर होगा.
जबकि न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने केंद्र को अपना हलफनामा दाखिल करने की अनुमति दी, अदालत ने कहा कि “वो सर्वे पर रोक नहीं लगाएगी”, जैसा कि याचिकाकर्ताओं में से एक, एनजीओ यूथ फॉर इक्वेलिटी ने मांग की थी.
जद (यू) ने सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप के लिए भाजपा पर तुरंत हमला बोलते हुए कहा कि मोदी सरकार ने दिखा दिया है कि वो जाति सर्वे को रोकना चाहती है.
बीजेपी नेताओं ने संभावित “प्रशासनिक और सामाजिक चुनौतियों” का हवाला देते हुए दिप्रिंट को बताया कि पार्टी बिहार में सर्वे का समर्थन करती है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नहीं.
हालांकि, नाम न छापने की शर्त पर बीजेपी के कुछ नेताओं ने कहा कि सर्वे से भानुमती का पिटारा खुल सकता है — उत्तर भारत में “मंडल राजनीति” का दूसरा चरण शुरू हो सकता है — और यह भी आशंका है कि ये नीतीश और विपक्ष के इंडिया गठबंधन में अन्य दलों के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है. इसके अलावा इसे राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित करने की मांग भी उठ सकती है.
मोदी सरकार के सुप्रीम कोर्ट के हलफनामे के बारे में बोलते हुए, भाजपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “यह कानूनी याचिकाओं में सर्वे के खिलाफ उठाई गई चुनौतियों को प्रतिबिंबित कर सकता है”.
उन्होंने कहा, “पहला निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है. बिहार महानगर दिल्ली या मुंबई जैसा नहीं है. बिहार के जाति-आधारित समाज में, व्यक्तियों की ब्रांडिंग, बहिष्कार सामाजिक सद्भाव को खराब कर सकता है.”
नेता ने कहा, “दूसरा, इसे सक्षमता के आधार पर चुनौती दी गई है, क्योंकि संविधान के अनुसार केवल केंद्र सरकार ही जनगणना कर सकती है.”
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बीजेपी क्यों परेशान है
जबकि बीजेपी 2024 में बिहार को एक चुनौती के रूप में देखती है, नीतीश के एनडीए से हटने और उसके बाद राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ गठबंधन के कारण, जाति सर्वे के संबंध में पार्टी की दुविधा केवल राज्य तक ही सीमित नहीं है.
बीजेपी ने हिंदुत्व छत्रछाया के तहत गैर-प्रमुख ओबीसी जातियों को आत्मसात करने की कोशिश करके जाति-आधारित राजनीति पर अपनी पकड़ स्थापित की है.
उसे डर है कि सर्वे के राष्ट्रीय प्रभाव उस हिंदुत्व राजनीति को परेशान कर सकते हैं जिसे वो 2014 और 2019 में अपनी जीत का श्रेय देती है.
ऐसी भी आशंका है कि अधिक आरक्षण के लिए होने वाले किसी भी संघर्ष से पार्टी के प्रमुख वोटबैंक, ऊंची जातियां नाराज़ हो सकती हैं.
इसे जोड़ने के लिए, भाजपा को डर है कि सर्वे बिहार में राजद, जनता दल (यूनाइटेड), लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी), उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), हरियाणा में जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) और इंडियन नेशनल लोक दल (आईएनएलडी), इसके अलावा महाराष्ट्र और कर्नाटक के क्षेत्रीय दल भी शामिल हैं, इन जैसी “मंडल पार्टियों” को मजबूती दे सकता है. बीजेपीको डर है कि इसका प्रभाव राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस को मदद कर सकता है, जहां उसने ओबीसी मुख्यमंत्री (अशोक गहलोत और भूपेश बघेल) नियुक्त किए हैं.
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “रथयात्रा की ‘कमंडल राजनीति’ के जरिए से हमने 1990 में वी.पी. सिंह द्वारा शुरू की गई मंडल राजनीति का मुकाबला किया. हमें गैर-प्रमुख ओबीसी जातियों को हिंदुत्व के दायरे में शामिल करने में सफलता मिली है.”
नेता ने कहा, आरएसएस ने पिछड़ी जातियों को हिंदुत्व पहचान में शामिल करने के लिए अथक प्रयास किए हैं.
उन्होंने कहा, “जाति गणना पिछले दो दशकों में किए गए सभी प्रयासों को खत्म कर देगी. इसलिए हम विभिन्न जातियों के सौहार्दपूर्ण संबंधों को तोड़ने के पक्ष में नहीं हैं.”
पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता ने कहा, “हिंदुत्व की राजनीति जरिए से भाजपा ने छोटे ओबीसी समूहों के बीच प्रमुख ओबीसी जातियों – जैसे यादव, कुर्मी और जाट — के प्रभाव को तोड़ दिया है.”
नेता ने आगे कहा, “यह यूपी और बिहार में बीजेपी के पक्ष में छोटे ओबीसी समूहों के प्रति-ध्रुवीकरण का कारण था. हमें 2014 और 2019 में यूपी में प्रमुख जातियों के एकाधिकार को तोड़कर और 2019 में अखिलेश यादव-मायावती गठबंधन और बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले गठबंधन को किनारे करके सफलता मिली.”
उन्होंने कहा, “जाति सर्वे डेटा के प्रकाशन के बाद, मंडल पार्टियां आरक्षण में बढ़ोतरी की मांग कर सकती हैं…इससे ऊंची जातियां नाराज़ हो सकती हैं और लामबंदी हो सकती है. हमारे विकासात्मक और कल्याणकारी एजेंडे को इन पार्टियों द्वारा हाईजैक किया जा सकता है. ये आरक्षण मांगें 2024 से पहले राजनीति को परेशान कर सकती हैं.”
भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राधा मोहन अग्रवाल ने कहा, “राजद और सपा जैसी वंशवादी पार्टियों के पास वोट मांगने के लिए कुछ नहीं बचा है.”
अग्रवाल ने कहा, “वे केवल जाति सर्वे की मांग करके अपने क्षेत्र की रक्षा करने का सहारा लेते हैं. मुलायम सिंह यादव या यहां तक कि अखिलेश ने भी मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में गणना क्यों नहीं कराई.” उन्होंने कहा, “भाजपा जातियों को एकजुट करने में विश्वास करती है, उन्हें बांटने में नहीं.”
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बीजेपी की ओबीसी में पैठ
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के 2019 के बाद के सर्वे के अनुसार, भाजपा ने पिछले एक दशक में ओबीसी वोटों में भारी सेंध लगाई है.
माना जाता है कि 2009 के लोकसभा चुनाव में 22 फीसदी ओबीसी ने बीजेपी को और 42 फीसदी ने क्षेत्रीय पार्टियों को वोट दिया था. सर्वे में पाया गया कि 2019 में यह संख्या क्रमशः 44 प्रतिशत और 27 प्रतिशत थी.
लोकसभा स्तर पर ओबीसी वोटों की गिरावट क्षेत्रीय दलों द्वारा जीती गई सीटों में दिखाई दी – जो 2009 में 69 से घटकर 2019 में 34 हो गई.
इस बदलाव के लिए बीजेपी ने मुद्रा और विश्वकर्मा जैसे विभिन्न कल्याणकारी कार्यक्रम जो कौशल विकास और उद्यमिता को प्रोत्साहित करना चाहते हैं, के माध्यम से गैर-यादव गैर-कुरमी ओबीसी “जो बिहार में लालू के शासन में और यूपी में मुलायम और अखिलेश के शासन में हाशिए पर थे” को ज़िम्मेदार ठहराया है.
हालांकि, सर्वे में कहा गया है, ये रुझान विधानसभा स्तर पर प्रतिबिंबित नहीं होते हैं — जिससे पता चलता है कि पार्टियां भाजपा के लिए चुनौती बनी हुई हैं.
2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान, 11 प्रतिशत ओबीसी ने राजद को वोट दिया, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में यह संख्या 29 प्रतिशत हो गई.
सर्वे में कहा गया है कि यूपी में 2019 में 14 प्रतिशत ओबीसी ने सपा को वोट दिया था, लेकिन 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा 29 प्रतिशत था.
‘सर्वे बंद करना चाहती है मोदी सरकार’
2019 में एनडीए ने बिहार में 39 सीटें जीतीं — भाजपा के लिए 17, जेडीयू के लिए 16 और एलजेपी के लिए 6.
बीजेपी को उच्च जातियों, दलितों और छोटे ओबीसी समूहों और मामूली रूप से अत्यंत पिछड़े वर्गों (ईबीसी) से समर्थन मिला, जो कुल वोटशेयर का अनुमानित 30 प्रतिशत था. इस बीच, नीतीश – ईबीसी के साथ-साथ कुर्मी-कुशवाहा एकता के लिए अपने ‘लव-कुश’ प्रयास के साथ – और राजद के मुस्लिम-यादव मतदाता मिलकर एक ऐसा गुट बनाते हैं, जो बिहार के अनुमानित 43 प्रतिशत मतदाताओं के लिए जिम्मेदार है.
सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार के हलफनामे पर हमला करते हुए जदयू अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह, ललन सिंह ने संवाददाताओं से कहा कि “अब यह साफ हो गया है कि मोदी सरकार बिहार में जाति सर्वे को रोकना चाहती है.”
उन्होंने कहा, “वोट मांगने के समय मोदी कहते हैं कि वो पिछड़ी जाति से आते हैं, लेकिन जब नीतीश कुमार पिछड़ी जातियों की आर्थिक स्थिति का आकलन करने की कोशिश कर रहे हैं, तो वे सर्वे को रोकने की कोशिश कर रहे हैं.”
सिंह ने कहा, “वो आंकड़ों से क्यों डरते हैं? वो बिहार में जाति सर्वे के माध्यम से सबसे पिछड़े वर्गों को सशक्तिकरण के अवसर से वंचित करना चाहते हैं.”
बिहार बीजेपी प्रमुख सम्राट चौधरी ने सिंह के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि बीजेपी ने “बिहार में जाति सर्वे का समर्थन किया है”. उन्होंने कहा, “हम नीतीश सरकार का हिस्सा थे, जिसने जाति गणना की मांग का समर्थन किया था. सिंह को बीजेपी पर आरोप लगाने की आदत है. सुनवाई का नतीजा सुप्रीम कोर्ट तय करेगा, वो नहीं.”
उन्होंने कहा, “सॉलिसिटर जनरल का हस्तक्षेप केवल अदालत में आवश्यक एक कानूनी प्रक्रिया है.”
उन्होंने कहा, “हम सर्वे का समर्थन कर रहे हैं.”
बीजेपी ओबीसी मोर्चा के अध्यक्ष एल. लक्ष्मण ने कहा, “बीजेपी ने बिहार में सर्वे का समर्थन किया है, लेकिन प्रशासनिक चुनौतियों और सामाजिक चुनौतियों के कारण राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा करना संभव नहीं है.”
बिहार भाजपा के एक पदाधिकारी ने बताया कि पार्टी के पास राज्य में सर्वे का समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
उन्होंने कहा, “नीतीश ने अपना कार्ड खेल दिया है. अब, अगर हम इसका विरोध करते हैं, तो हम ओबीसी को खो देंगे. हमारे पास केवल इसका समर्थन करने का विकल्प है, लेकिन यह नहीं पता कि यह कैसे काम करेगा. यथास्थिति ही एकमात्र सुरक्षित विकल्प है.”
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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