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Saturday, 23 November, 2024
होममत-विमतक्यों असम राइफल्स की छवि खराब करना बदला लेने के लिए एक सोची-समझी, साजिश भरी चाल है?

क्यों असम राइफल्स की छवि खराब करना बदला लेने के लिए एक सोची-समझी, साजिश भरी चाल है?

अपने पूरे इतिहास में, असम राइफल्स ने यूरोप, मध्य पूर्व और म्यांमार में प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध सहित कई भूमिकाओं, संघर्षों और थिएटर्स में काम किया है.

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असम राइफल्स एक केंद्रीय अर्धसैनिक बल है जो पूर्वोत्तर भारत में सीमा सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है. संघर्ष के समय में एक लड़ाकू बल के रूप में भी इसका उपयोग किया जाता है. इसे 1965 से गृह मंत्रालय द्वारा प्रशासित किया जा रहा है लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से यह भारतीय सेना के ऑपरेशनल कंट्रोल में है. असम राइफल्स में निचले और मध्य पर भर्तियां गृह मंत्रालय द्वारा की जाती हैं, लेकिन प्रतिनियुक्ति या डेप्युटेशन पर इसका नेतृत्व सेना के अधिकारियों द्वारा किया जाता है. यह भारत का सबसे पुराना अर्धसैनिक बल, इसे मूल रूप से 1835 में कछार लेवी के रूप में स्थापित किया गया था, इसके कई पदनाम हैं और इसका वर्तमान नाम 1917 में मिला.

अपने पूरे इतिहास में, असम राइफल्स ने यूरोप, मध्य पूर्व और म्यांमार में प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध सहित कई भूमिकाओं, संघर्षों और थिएटरों में काम किया है. 1959 के बाद, असम राइफल्स को असम के तिब्बती सेक्टर के हिस्से को संभालने का काम सौंपा गया था.

स्वतंत्रता से पहले इसने काफी संख्या में वीरता पुरस्कार अर्जित किए हैं. स्वतंत्रता के बाद, असम राइफल्स के जवानों को चार अशोक चक्र, 33 कीर्ति चक्र, पांच वीर चक्र, 147 शौर्य चक्र और 400 से अधिक सेना पदक से सम्मानित किया गया. पुरस्कार फोर्स के प्रोफेशनल पर्फॉर्मेंस और साहस को दर्शाते हैं.

असम राइफल्स की 46 बटालियन हैं और यह 2002 से भारत-म्यांमार सीमा की रक्षा कर रही है.

जानबूझकर असम राइफल्स की छवि खराब की गई

पूरे इतिहास में, सेना और असम राइफल्स के साथ मैतेई, कुकी-ज़ो, नागा और मिज़ो समुदायों के संबंध अच्छे, बुरे और खराब के बीच झूलते रहे हैं. ये उतार-चढ़ाव क्षेत्र में हिंसा को नियंत्रित करने के सरकारी प्रयासों को कमजोर/मजबूत करने का निर्धारण करने वाले विभिन्न संदर्भों से प्रभावित हुए हैं.

मैतेई समुदाय को आदिवासी दर्जा देने के संबंध में मणिपुर उच्च न्यायालय के फैसले के बाद 3 मई को भड़की हिंसा को लेकर जो नैरेटिव सामने आए उसमें पुराने निहित विरोधों को फिर से उभरते देखा गया है. जहां कुकी-ज़ो लोग सेना/असम राइफल्स के जवानों पर भरोसा करते हैं, वहीं मैतेई लोग उन्हें पक्षपाती मानते हैं. इस प्रकार, इन झड़पों के संदर्भ में, ऐसा प्रतीत होता है कि असम राइफल्स की छवि को जानबूझकर खराब किया जा रहा है, और वह भी मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के संरक्षण में. हाल ही की एक घटना इस बात को दर्शाती है.

यह सब किससे शुरू हुआ?

झड़पों के हालिया दौर से पहले, सुरक्षा सलाहकार और पूर्व केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) प्रमुख कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में नव निर्मित अंतर-एजेंसी एकीकृत कमान संरचना (Inter-Agency Unified Command structure) में सेना, सीएपीएफ, मणिपुर पुलिस और खुफिया एजेंसियां शामिल थीं. इसने इम्फाल घाटी के मैतेई को पहाड़ी क्षेत्रों के कुकी-ज़ोस से अलग रखने के लिए बफर जोन की स्थापना की. यह विकल्प इस तथ्य से प्रभावित था कि समुदायों के बीच अधिकांश हिंसा इसी परिधि में हुई थी. अपनाई गई कार्यप्रणाली सेना/असम राइफल्स या सीएपीएफ जैसे सीआरपीएफ, सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) द्वारा संचालित चार संवेदनशील जिलों में चौकियों की स्थापना करना था, जो इंफाल घाटी और पहाड़ी क्षेत्रों के बाहरी या सीमांत क्षेत्रों से गुजरने वाले पहुंच मार्गों (access routes) पर थे. वास्तव में, बफर ज़ोन का सर्किल गृहयुद्ध की स्थिति की अग्रिम पंक्ति का प्रतिनिधित्व करता था.

मैतेई-प्रभुत्व वाले बिष्णुपुर जिले और कुकी-ज़ो-नियंत्रित चुराचांदपुर के बीच बफर जोन में चौकियों की निगरानी की जिम्मेदारी सेना को दी गई थी. चौकियों को सेना या असम राइफल्स इकाइयों द्वारा नियंत्रित किया जाता था, जिनका ऑपरेशनल कंट्रोल 57 माउंटेन डिवीजन या असम राइफल्स के महानिरीक्षक (आईजीएआर)-दक्षिण के माध्यम से मुख्यालय 3 कोर द्वारा किया जाता था.

5 अगस्त को सुबह 3 बजे के आसपास, कुछ कुकी उग्रवादियों ने बफर जोन को पार किया और मैतेई पंगलों के निवास वाले क्वाक्टा गांव में तीन लोगों की हत्या कर दी. कुछ घंटों बाद, इम्फाल से लगभग एक दर्जन कैस्पर और हल्के वाहनों में मणिपुर कमांडो की एक टुकड़ी को रवाना किया गया. व्यावहारिक रूप से, मणिपुर कमांडो लगभग 300-400 पुलिस कर्मियों का एक समूह है जो सीधे मुख्यमंत्री के अधीन काम करता है. जब कमांडो 9 असम राइफल्स (9 एआर) द्वारा संचालित चौकी पर पहुंचे, तो उन्हें रोक दिया गया और गरमागरम बहस शुरू हो गई. कमांडो ने जोर देकर कहा कि उन्हें कुकी-आबादी वाले पहाड़ी इलाकों में बफर जोन पार करने की अनुमति दी जाए.

9 एआर कर्मी अपने प्रचलित आदेशों के अनुसार तब तक डटे रहे जब तक कि उन्हें सुबह 10 बजे के आसपास कमांडो को कुकी-आबादी वाले क्षेत्र में आगे बढ़ने की अनुमति देने के निर्देश नहीं मिले. आदेश स्पष्ट रूप से सुरक्षा सलाहकार सिंह और मुख्यालय 3 कोर के माध्यम से सीएम की ओर से आए थे. विश्वसनीय स्रोतों से पता चला है कि मणिपुर कमांडो ने दो कुकी-ज़ो गांवों को तबाह कर दिया और कुछ अज्ञात लोगों को मार डाला, हालांकि तब तक अधिकांश ग्रामीण भाग गए थे. उसी सूत्र ने यह भी संकेत दिया कि क्वाटा में मारे गए मैतेई की जवाबी कार्रवाई में बदला लेने के लिए कमांडो को भेजा गया था. इस तरह का पैटर्न पहले भी दिप्रिंट द्वारा रिपोर्ट किया गया था.

मणिपुर कमांडो का ऑपरेशन बदले की भावना के चक्र को उजागर करता है जो अब चल रहे जातीय संघर्ष की विशेषता है. जबकि, पहले चरण में इम्फाल घाटी से कुकी-ज़ो का कमोबेश जातीय रूप से सफ़ाया कर दिया गया है, वर्तमान जातीय संघर्ष समुदाय के कमजोर वर्ग को टारगेट बनाकर उनके दंडात्मक प्रतिशोध के माध्यम से उन्हें रोकने के बारे में प्रतीत होता है. विशेष रूप से दुख वाली बात यह है कि राज्य का राजनीतिक नेतृत्व बदला लेने के लिए मैतेई समुदाय की ओर से अपने सशस्त्र उपकरणों का उपयोग कर रहा है, और जाहिर तौर पर इस प्रक्रिया में उसके हाथों पर खून लगा है.

इन दुखद घटनाओं के बाद दिप्रिंट और सोशल मीडिया के माध्यम से असम राइफल्स की बदनामी हुई और सच्चाई इंटरनेट रुकावट का पहला शिकार बनी. इस बदनामी का उद्देश्य कुछ मैतेई लोगों के बीच पहले से ही प्रचलित धारणा को मजबूत करना था कि असम राइफल्स मैतेई विरोधी और कुकी-ज़ो समर्थक थे. इसके अलावा, छवि खराब करने की प्रक्रिया के हिस्से के रूप में, एक झूठी रिपोर्ट पेश की गई जिसमें कहा गया कि सीएपीएफ ने एक विशेष पद पर 9 एआर को बदल दिया था.

9 अगस्त को मुख्यालय 3 कोर द्वारा जारी बयान में असम राइफल्स की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया है. इसमें दावा किया गया है कि मणिपुर कमांडो को रोकने की पहली घटना में, कार्रवाई दो समुदायों के बीच हिंसा को रोकने के लिए बफर जोन दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिए एकीकृत मुख्यालय के आदेश के अनुसार सख्ती से की गई थी. 9एआर को किसी विशेष क्षेत्र से बाहर ले जाने संबंधी दूसरी रिपोर्ट का उनसे कोई संबंध ही नहीं है. यह स्पष्ट करता है कि एक पैदल सेना बटालियन को बताए गए क्षेत्र में तैनात किया गया था और वह वहीं तैनात है.

बदनाम करने की सोची समझी चाल

यक्ष प्रश्न यह है कि मणिपुर सरकार की मौन सहमति से असम राइफल्स को क्यों बदनाम किया जा रहा है. 9 एआर के खिलाफ पुलिस द्वारा दर्ज की गई एफआईआर और राज्य के भाजपा विधायकों द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिए गए ज्ञापन से की वजह से हुई बदनामी और गलत सूचना पर विवाद नहीं किया जा सकता है. इस प्रश्न के उत्तर का अनुमान तभी लगाया जा सकता है जब भाजपा सरकार के अंतिम राजनीतिक उद्देश्य को समझा जाए. अब तक राजनीतिक रूप से जो हुआ है वह यह है कि कुकी-ज़ो और मैतेई समुदाय शारीरिक रूप से अलग हो गए हैं, मैतेई लोग कुकी-ज़ो के प्रभुत्व वाले पहाड़ी इलाकों में शरण ले रहे हैं और बाद में वे इंफाल घाटी से भागकर पहाड़ों में शरण ले रहे हैं.

ऐसा प्रतीत होता है मानो मणिपुर सरकार सक्रिय रूप से कुकी-ज़ो को एक अलग राज्य या केंद्र शासित प्रदेश बनने की उनकी संघर्ष के बाद की मांग को अस्वीकार करने के लिए हिंसा का सहारा लेने से रोक रही है.

पहाड़ियों से घाटी तक हिंसा को फैलने से रोकने के लिए दंडात्मक प्रतिशोध जारी रखा जा सकता है, जैसा कि क्वाक्टा मामले में देखा गया है. यदि असम राइफल्स और सेना को किनारे कर दिया जाए और पुलिस बल के माध्यम से राज्य सरकार की जवाबी कार्रवाई में हस्तक्षेप न किया जाए तो बदला लेना आसान होगा. यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि अधिकांश हिंसा प्रभावित क्षेत्रों से सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) की वापसी ने सेना को कमजोर कर दिया है. यह अपराधियों को पकड़ने और पुलिस स्टेशनों/शस्त्रागारों से लूटे/सौंपने के बाद मुख्य रूप से मैतेई के हाथों में मौजूद 4,000 से अधिक हथियारों को बरामद करने के लिए आवश्यक तलाशी अभियान और गिरफ्तारियां नहीं कर सकता है. क्या असम राइफल्स को हटा दिया जाना चाहिए या किनारे कर दिया जाना चाहिए, इसकी जगह सीएपीएफ को टुकड़ों में बांटा जा सकता है और स्थानीय पुलिस के तहत संयुक्त रूप से काम किया जा सकता है, जिससे प्रतिशोध की नीति को सुविधाजनक बनाना आसान हो जाएगा.

सरकारों की मिलीभगत

समय का कारक भी गणनाओं को प्रभावित कर सकता है क्योंकि भले ही हिंसा नियंत्रित हो जाती है और शांति वार्ता शुरू हो जाती है, अलगाव के लिए कुकी-ज़ो की ठोस मांगों को अंतहीन रूप से खींचा जा सकता है और इसके लिए संसदीय सहमति की आवश्यकता होगी जो शायद कभी नहीं आएगी. एक साल से भी कम समय में होने वाले संसदीय चुनावों के साथ, संभावना यह है कि मणिपुर भौगोलिक दृष्टि से जातीय रूप से विभाजित रहेगा और पक्षपातपूर्ण राज्य या केंद्र सरकार कुकी-ज़ो समुदाय से जूझ रही है, जो पूरी संभावना है कि मारो और भागो की रणनीति अपनाएगा.

इस बात की भी अधिक संभावना है कि कुकी-ज़ो के मुख्य वार्ताकारों में से एक, लगभग 25 पूर्व कुकी विद्रोही समूहों का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्होंने भारत सरकार और मणिपुर राज्य के साथ सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस (एसओओ) नामक त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. 2008, अब सीधे तौर पर संघर्ष में शामिल हो सकता है. हो सकता है वे पहले से ही ऐसा कर रहे हों. इससे स्थिति और जटिल हो जाएगी और मणिपुर के कुकी-ज़ो क्षेत्रों सहित वृहद नागालैंड की मांग कर रहे नागा समूहों के साथ तनाव बढ़ सकता है.

हिंसा को नियंत्रण से बाहर जाने देने में राज्य और केंद्र सरकार की मिलीभगत और केंद्र सरकार, विशेषकर सेना और असम राइफल्स के उपलब्ध उपकरणों का पर्याप्त उपयोग नहीं करना, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से जानबूझकर, गैर-जिम्मेदाराना और बेहद खतरनाक लगता है. मणिपुर एक संवेदनशील और अस्थिर क्षेत्र में स्थित है जिसका चीन जैसी विरोधी शक्तियां म्यांमार में अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शोषण कर सकती हैं.

असम राइफल्स जानबूझकर, गैर-जिम्मेदार और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से बेहद खतरनाक लगती है. मणिपुर एक संवेदनशील और अस्थिर क्षेत्र में स्थित है जिसका चीन जैसी विरोधी शक्तियां म्यांमार में अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शोषण कर सकती हैं. लेकिन अफसोस की बात है कि केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर बड़े राष्ट्रीय हितों के बजाय अल्पकालिक चुनावी लाभ को प्राथमिकता दी है. जिस तरह से मणिपुर में स्थिति को संभाला जा रहा है वह केंद्र की ओर से एक अक्षम्य चूक साबित हो सकती है, जिसकी देश को लंबे समय तक बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

लेकिन अफसोस की बात है कि केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर बड़े राष्ट्रीय हितों के बजाय अल्पकालिक चुनावी लाभ को प्राथमिकता दी है. जिस तरह से मणिपुर में स्थिति को संभाला जा रहा है वह केंद्र की ओर से एक अक्षम्य चूक साबित हो सकती है, जिसकी देश को लंबे समय तक बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

राजनीतिक संवाद के लिए हिंसा पर नियंत्रण सबसे जरूरी शर्त है. सेना/असम राइफल्स को AFSPA से सशक्त किए बिना ऐसा नहीं किया जा सकता. साथ ही, मणिपुर संभवतः देश का सबसे पुराना हिंदू साम्राज्य होने के बावजूद केंद्र सरकार को अपनी वैचारिक प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा.

मणिपुर में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा की गई उदासीन कार्रवाइयों को ध्यान में रखते हुए, पीएम मोदी की लोकसभा में व्यक्त की गई आशावादी उम्मीद – “जिस तरह से प्रयास किए जा रहे हैं, निकट भविष्य में शांति का सूरज निश्चित रूप से उगेगा” – अत्यधिक असंभव लगता है.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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