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Thursday, 21 November, 2024
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आज़ादी के 76 साल बाद भी पाकिस्तान से भारत लौटे लोगों के ज़ेहन में घरों को देखने की कसक बाकी…

आज़ादी को 76 बरस हो गए हैं...तो वहीं, अपने वतन, आंगन को छोड़कर आए लोगों में से कुछ के मन में आज भी अपने मूल घरों को देखने की एक आस बची है...तो कुछ उस मंज़र को याद भी नहीं करना चाहते.

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नई दिल्ली: 1947 में भारत के विभाजन ने आज़ादी के जश्न को फीका कर दिया था. नई लकीर के दोनों तरफ दो नए राष्ट्र थे जो सांप्रदायिक दंगों में झुलस रहे थे. एक करोड़ से भी ज्यादा लोगों ने अपनी ज़मीन-जायदाद को छोड़ दिया था और जान बचाने के लिए भाग गए थे.

‘‘मेरे पिता एक किसान थे और हमारे गांव में खेत और पहाड़ियां थीं. वो अच्छे दिन थे, लेकन आज़ादी के बाद सब बदल गया. कुछ सप्ताह बाद तो हालात इतने खराब हो गए कि हमारे परिवार को वहां से जाना पड़ा. यह एक खतरनाक सफर था.’’

आज़ादी के 76 वर्ष बाद पाकिस्तान में अपने पुश्तैनी घर को याद करते हुए दिल्ली के करोल बाग में रहने वाली 90-वर्षीय स्वर्णकांता जोशी की आंखें नम हो गईं.

‘‘पाकिस्तान में अपने घर जाना तो चाहते हैं, लेकिन अब कौन लेकर जाएगा…सब कुछ तो वहीं रह गया और जो हाथ लगा वो लेकर हम यहां आ गए.’’

भारत की आज़ादी को इस साल 76 वर्ष हो गए हैं…तो वहीं, अपने वतन, आंगन को छोड़कर आए लोगों में से कुछ के मन में आज भी अपने मूल घरों को देखने की एक आस बची है…तो कुछ उस मंज़र को याद भी नहीं करना चाहते.

लोगों की ज़िंदगियां रातों-रात बदल गई थी घर और ज़मीन सब छिन गया था. वो सिर्फ अपने गांव ही नहीं बल्कि सैकड़ों सालों की विरासत छोड़कर आए थे.

‘लाशों को ऊपर रख सांस रोके रखी’

देश के बंटवारे के समय जोशी का परिवार पाकिस्तान के मुल्तान, डेरा इस्माइल खान (खैबर पख्तूनख्वा) इलाके में रहता था. जोशी उस समय करीब 16 वर्ष की थीं.

उन्होंने बताया, ‘‘हमारे घर में अमरूद और आम के पेड़ थे. हम बच्चे अपने साथियों के साथ फलों का लुत्फ उठाते थे.’’

जोशी की तरह कुंदनलाल शर्मा भी उसी इलाके में रहते थे. अब अपने नए पते करोल बाग में रह रहे 85-वर्षीय शर्मा ने कहा, ‘‘हम उस तरफ कभी भी नहीं जाना चाहते जिसने हमारा सब कुछ छीन लिया और हमें बांट दिया.’’

उस समय करीब दस वर्ष के रहे शर्मा ने बताया, ‘‘14-15 अगस्त की दरमियानी रात को मैंने किसी तरह दौड़ते हुए ट्रेन पकड़ी. थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि कुछ लोग सभी का नाम पूछ रहे थे. विशेष वर्ग का होने के कारण उनका सिर तलवार के जरिए धड़ से अलग किया जा रहा था. कितनी ही औरतें अपनी आबरू बचाने के लिए ट्रेन से कूद गईं.’’

उन्होंने बताया, ‘‘मैं जान बचाने के लिए ट्रेन की सीट के नीचे छिप गया और अपने ऊपर कुछ लाशों को रखकर सांस रोके रखी, ऐसा इसलिए क्योंकि पाकिस्तानी सुरक्षाबल या आम लोग (उपद्रवी) यह देखने के लिए अपनी बंदूकों पर लगे चाकू से उन लाशों को गोद रहे थे कि कहीं कोई ज़िंदा तो नहीं रह गया.’’

बंटवारे के बाद विस्थापित हुए लाखों लोगों की ऐसी ही कहानियां हैं. इन कहानियों को समय-समय पर साहित्यकारों ने भी अपनी कलम से जीवित किया है. इसमें भीष्म साहनी की कहानी ‘अमृतसर आ गया’ सबसे अधिक प्रचलित रही है.

जोशी बताती हैं, ‘‘डेरा इस्माइल खान पठानों का इलाका था. सिंध दरिया के उस पार मुल्तान, सूजाबाद था. हमें अगस्त में कहा गया कि अगर तुम यहां से नहीं निकलोगे तो दरिया पार नहीं करने देंगे. इसलिए हमने कुछ दिन पहले ही घर छोड़ दिया था.’’

वहीं, अपने जन्मस्थान को छोड़कर भारत आने की अपनी यात्रा के बारे में जोशी की बचपन की सहेली रानी पराशर ने कहा, ‘‘सूजाबाद में हमें कहा गया कि बिना सिले कपड़े नहीं ले जा सकते. मेरे चाचा ने सभी के लिए जल्द सारे कपड़े सिल दिए. हमें हिदायत दी गई कि गहने और सोना लेकर नहीं जा सकते. लोगों ने पकौड़ों जैसी भोजन वस्तुओं और कपड़ों में गहने व सोना छिपाया तथा साथ ले आए.’’

उन्होंने कहा, ‘‘मुझे आज भी उन दिनों को याद कर रोना आता है और हंसी भी कि हम ऐसे भागे जैसे ‘काला चोर’….’’

पराशर ने कहा, ‘‘मेरे पिताजी जनसंघ में थे. उनकी सेना के जवानों से दोस्ती थी. सूजाबाद से आठ बैलगाड़ियां भारत आई थीं. हमें उन्होंने रोहतक में उतारा और रोहतक से हम पैदल आगरा तक आए तथा कुछ दिन वहीं रहे.’’

उन दिनों को याद करते हुए वे कहती हैं, ‘‘उस समय बहुत मारकाट, लूटपाट हुई. हर रोज़ किसी न किसी घर से आग की लपटें दूर तक दिखती थीं. मेरे पिताजी के पास बंदूक और तलवार थी, जिसे उन्होंने मम्मी को चलाना सिखाया था. उन्हें हिदायत थी कि जब हम घर न हों, तो जो भी आए उसे यह दिखा देना.’’

शर्मा ने कहा, ‘‘मेरे पिता जी पश्तो/पठानी बोली बोलते थे. उन्होंने सिखाया था कि वे आएंगे तो कहेंगे कि- तरे माछे (नमस्कार), तो तुम कहना कि ख्वार माछे (आपको भी नमस्कार).’’

हालांकि, वहां के लोगों को पश्तो पूरी तरह तो नहीं आती थी, लेकिन जवाब देने के लिए कुछ चीज़ें सिखाई गई थीं.

कुंदनलाल के बेटे मनोज ने कहा, ‘‘इन अनोखी कहानियों को सुनकर हमारा भी मन करता है कि उन दिनों को दोबारा जीया जाना ज़रूरी है, लेकिन नफरत के इस दौर में अब वो पुरानी बात नहीं रही.’’

शर्मा ने कहा, ‘‘मुझे पाकिस्तान में मक्खन मलाइयों के दिन याद आते हैं. बचपन तो बचपन था. मैंने चौथी क्लास तक पढ़ाई की थी. पांचवीं में गए कुछ ही महीने बीते थे कि देश का बंटवारा हो गया.’’

अपना बचपन याद करते हुए जोशी और पराशर भावुक हो गईं. उन्होंने कहा, ‘‘अभी भी दिल करता है कि कोई एक बार हमें पाकिस्तान ले जाए. काश हम वहां (पाकिस्तान) जाकर अपना घर देख पाते. अपनी उन गलियों को देखते जिनमें हम पैदा हुए थे. हम अपने मकान को देखते. वहां हमारा गाय-भैंसों का काम था. पर अब सबकुछ यहीं है…कौन लेकर जाएगा.’’


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