विपक्ष के लिए आगे एक कसौटी है— अगर 2024 में उनका नया गठबंधन सत्ता में आ गया तो वह उन क़ानूनों में से कितनों को रद्द करेगा जिनका गठबंधन में शामिल पार्टियों ने संसद में विरोध किया था जब वे विधेयक के रूप में प्रस्तुत किए गए थे?
उदाहरण के लिए, क्या वह चुनाव आयुक्तों का चयन करने वाले पैनल में देश के मुख्य न्यायाधीश को फिर से शामिल करेगा? या क्या वह उन चार श्रम क़ानूनों में से किसी को संशोधित करेगा जिनके कारण बड़े नियोक्ताओं द्वारा ठेके पर रोजगार देने के मामलों में तेज वृद्धि हुई है? और क्या वह नागरिकता (संशोधन) कानून, यानी सीएए में संशोधन करेगा या उसे रद्द करेगा?
विपक्ष अगर राजनीतिक तथा आर्थिक मसलों के प्रति अलग रुख अपनाने के वादे करता है तो उसे साफ करना होगा कि वह यह किस तरह करेगा और क्या करेगा.
उदाहरण के लिए, विपक्षी दल सरकार के द्वारा सीबीआई, ईडी आदि जांच एजेंसियों के उपयोग, दुरुपयोग की आलोचना करते हैं लेकिन सीबीआई को जब “पिंजरे में बंद तोता” कहा गया था तब कांग्रेस सत्ता में थी. क्या पार्टी को ज्ञान हो गया है?
ज्यादा व्यापक रूप से कहें तो संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता या सरकारी खर्चों से संबंधित ‘मनी बिल’ के दुरुपयोग को रोकने के लिए विपक्ष के पास क्या एजेंडा है? या राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित क़ानूनों को लें.
जनता पार्टी की सरकार ने ‘मीसा’ कानून को रद्द कर दिया था क्योंकि 1970 के दशक में कांग्रेस ने इमर्जेंसी में इसका भारी दुरुपयोग किया. इसके बाद आए ‘टाडा’, और ‘पोटा’ क़ानूनों को भी उनके व्यापक दुरुपयोग के कारण रद्द किया गया, कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन सरकारों ने.
इस इतिहास और अनुभव के मद्देनजर क्या विपक्ष राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ‘यूएपीए’ कानून के दुरुपयोग को राष्ट्रीय सुरक्षा का ख्याल रखते हुए रोकने के लिए कुछ करेगा?
संवैधानिक मामलों में, मसलन जम्मू-कश्मीर के सवाल पर विपक्ष के तमाम विरोध की गंभीरता की परीक्षा जरूरी है. हकीकत यह है कि अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द किए जाने को उस राज्य के बाहर व्यापक स्वीकृति मिली है और मुमकिन है कि उस केंद्रशासित प्रदेश में भी इसे अपनी किस्मत मान कर कबूल कर लिया गया हो. क्या विपक्ष अब वहां घड़ी की सुई को उलटा घुमाना चाहता है, सिवाय जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने के?
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खास तौर से सामाजिक मसलों पर कदम जल्दी-जल्दी वापस नहीं खींचे जा सकते, मसलन आरक्षण के मामले में. क्या विपक्ष गोरक्षा कानूनों को बदल सकता है? और क्या वह उपयुक्त तरीके से बनाई गई समान नागरिक संहिता के सचमुच खिलाफ है? या इसका विरोध महज इसलिए किया जा रहा है ताकि सनद रहे, क्योंकि मुस्लिम समुदाय को डर है कि ऐसी संहिता उसे निशाना बनाने के लिए है?
गौरतलब है कि विपक्ष इस मसले पर टालमटोल कर रहा है, वह कोई वादा न करने की सावधानी बरत रहा है. यह याद किया जाना चाहिए कि 1950 में नेहरू ने जब हिंदू निजी कानून में बदलाव किया था तब रूढ़िवादी तत्वों ने इस आधार पर इसका विरोध किया था कि सरकार को वैदिक काल से चले आ रहे कानूनों और प्रथाओं को छूना भी नहीं चाहिए. आज वे तत्व उन बदलावों को रद्द करने का ख्याल भी मन में नहीं ला सकते क्योंकि वह प्रतिगामी कदम होगा. वैदिक काल की जगह शरीयत को रखिए और फिर सुनिए कि रूढ़िवादी तत्व क्या बोल रहे हैं.
केंद्र तथा राज्य सरकारों के द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के मामले में दलों के बीच सिर्फ पैमाने का अंतर है, हालांकि भाजपा आलोचना की आवाजों को एक सिरे से नकारती रही है.
विडंबना यह है कि यह जनता पार्टी (जिसमें भाजपा के पिछले अवतार जनसंघ ने खुद को विलय कर दिया था) ही थी जिसने 1970 के दशक में प्रसार भारती का गठन किया था जिसे सरकार से स्वायत्त रखा जाना था. आज विपक्षी दलों को बताना चाहिए कि वे सरकारी ज़्यादतियों से नागरिकों की किस तरह रक्षा करेंगे. उदाहरण के लिए, क्या वे हाल के दो कानूनों (एक प्रेस तथा मीडिया के लिए और दूसरा डाटा सुरक्षा और निजता के लिए) की समीक्षा करेंगे? दोनों कानून सरकार को ऐसे अधिकार देते हैं जिनका वह आसानी से दुरुपयोग कर सकती है, और अनुभव यही है कि ऐसे अधिकार दिए जाते हैं तो उनका दुरुपयोग ही किया जाता है.
अब जबकि राहुल गांधी को आपराधिक मानहानि के लिए दोषी बताया जा चुका है तब यह विश्वास किया जा सकता है कि विपक्ष मानहानि को दंडनीय अपराध की सूची से हटा देगा, जैसा कि कई लोकतांत्रिक देशों में किया जा चुका है. लेकिन सवाल यह है कि क्या विपक्ष ऐसे मसलों पर किसी विश्वसनीय कार्रवाई का वादा करेगा जिसमें इस तरह किसी हस्ती का मामला न जुड़ा रहा हो?
(बिज़नेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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