इस चुनावी मौसम में, जबकि राजनीति कई मामलों में अपनी भारी गिरावट को उभार रही है और तमाम तरह के झूठे दावे किए जा रहे हैं, मोदी सरकार एक निर्विवाद सफलता का दावा कर सकती है. यह दावा पूरे देश को डिजिटल रूप से जोड़ने की दिशा में बड़ी प्रगति का किया जा सकता है. इसे बड़ी सफाई और कल्पनाशीलता से प्रस्तुत किया गया है मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट ‘डिजिटल इंडिया : टेक्नोलॉजी टु ट्रांसफॉर्म अ कोनेक्टेड नेशन’ में.
भारत में इंटरनेट के ग्राहकों की संख्या 56 करोड़ हो गई है और 2018 में यहां 12.3 अरब ऐप डाउनलोड किए गए. दुनिया में केवल चीन ही इस मामले में उससे आगे है. दूसरे देशों के लोगों के मुक़ाबले भारतीय लोग ही सबसे ज्यादा समय सोशल मीडिया पर खर्च कर रहे हैं. इंडोनेशिया को छोड़कर तमाम दूसरे देशों के मुक़ाबले भारत ही सबसे ज्यादा तेजी से डिजिटलीकरण कर रहा है. इंडोनेशिया ने 2014 के बाद से इसमें 90 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज़ की है. भारत में अभी और वृद्धि की काफी गुंजाइश है. प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत की बराबरी करने वाला कोई भी ऐसा देश नहीं है जो इन कसौटियों पर इसकी बराबरी करता हो.
ऐसा क्यों हुआ है? इसका छोटा-सा जवाब है— आधार, जियो, जन धन, और जीएसटी के कारण. जीएसटी के कारण 1.03 करोड़ व्यवसाय टैक्स भुगतान के डिजिटल प्लेटफॉर्म पर आ गए हैं. मैकिन्से ने कुछ सर्वज्ञात बातों को रेखांकित किया है— मसलन यह कि डाटा की कीमत 2013 के बाद से काफी गिरी है; जबकि फिक्स-लाइन डाउनलोड की स्पीड चार गुना बढ़ी है. इसका नतीजा यह हुआ है कि प्रति यूजर मोबाइल डाटा उपभोग में सालाना 152 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसके अलावा, गरीब राज्य डिजिटल मामले में अमीर राज्यों से अपनी खाई को पाट रहे हैं. अकेले यूपी में ऑनलाइन लोगों की आबादी में 3.6 करोड़ की वृद्धि हो चुकी है. शहरों से लेकर गांवों तक में लाखो साधारण लोग इंटरनेट पर खबरें देख रहे हैं, दोस्तों से बातें कर रहे हैं, पैसे की लेनदेन कर रहे हैं, फिल्में देख रहे हैं, खाना मंगा रहे हैं, और खरीदारी कर रहे हैं. यह सब मिलकर एक क्रांति से कम नहीं है, जिस शब्द का इस्तेमाल मोदी सरकार दूसरे संदर्भ में इस्तेमाल करना चाहती है.
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इसके बड़े आर्थिक नतीजे, रोजगार समेत, काफी बड़े हैं. यह एक अच्छी खबर बन सकती है, क्योंकि रिपोर्ट कहती है कि डिजिटल अर्थव्यवस्था 2025 तक 6 से लेकर 6.5 करोड़ तक रोजगार पैदा कर सकती है— ऑटोमेशन के कारण खत्म होने वाले करीब 4.5 करोड़ मौजूदा रोजगार से 2 करोड़ ज्यादा. खेती में जानकारियों के कुशल उपयोग से लागत में 20 फीसदी की कमी आ सकती है, और ऑनलाइन नेटवर्क के जरिए फसलों आदि के बेहतर दाम मिलने से आमदनी में 15 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है और फसल कटाई के बाद के कचरे में भी कमी लाई जा सकती है. दूसरे देशों के मुक़ाबले भारत में व्यवस्थागत लागत लगभग दोगुनी, जीडीपी की 14 फीसदी है. इसे भी कुशल ट्रैकिंग और ट्रकों की आवाजाही के जरिए कम किया जा सकता है (माल ढुलाई में लगने वाले समय में आधी कटौती की जा सकती है).
स्वास्थ्य ही नहीं, शिक्षा के महकमे को भी डिजिटल टेक्नोलॉजी से भारी लाभ मिल सकता है. डिजिटल कामकाज अपनाने के मामले में छोटे व्यवसायों को बड़े व्यवसायों के मुक़ाबले जो दिक्कतें पेश आती हैं उन्हें भी समय के साथ कम किया जा सकता है. बड़ी कंपनियां कृत्रिम खुफिया व्यवस्था और ‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’ का ज्यादा लाभ उठा सकती हैं, लेकिन बेहतर पहुंच, डाटा की घटती कीमत इस लाभ को कम कर सकती है.
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लेकिन इनमें से कुछ भी अपनेआप नहीं हो जाएगा. जैसा कि मैकिन्से ने कहा है, सरकारों, व्यवसाय वालों और व्यक्तियों को भी बदलना होगा और भूमि रेकार्डों तथा बिजनेस में पारदर्शिता (जिससे बैंक ऋण पाना आसान होगा) जैसे बुनियादी कामों के डिजिटलीकरण का सबसे अच्छा रास्ता ढूंढना होगा. डिजिटलीकरण की लहर के कई पहलू हैं जो अच्छे नहीं हैं— जिनमें नशा बनने वाला सोशल मीडिया, निजता का उल्लंघन, आदि शामिल हैं. इस नई दुनिया के नियम-कायदे सोच-समझकर बनाने होंगे ताकि व्यवसाय जगत हावी न हो, इसका राजनीतिक दुरुपयोग न हो, और नागरिकों को हिंसक कार्रवाइयों से सुरक्षा दी जा सके. लागतों को इतना कम करने की जरूरत है कि लाभ अधिक से अधिक मिले. फिर भी, सबसे अहम संदेश बिलकुल स्पष्ट है- डिजिटलीकरण की संभावनाएं अगर अपरिहार्य नहीं, तो इतनी लाभकारी जरूर हैं कि जो भी इस नई वास्तविकता को स्वीकार करने में आलस करेगा वह पीछे छूट जाएगा.
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