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Wednesday, 18 December, 2024
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लैपटॉप के आयात पर रोक के साथ ‘बड़ी सरकार’ ने आर्थिक सुधारों की दिशा उलट दी है

भारत में अब तक इसी उम्मीद से आयातों पर रोक या प्रतिबंध लगाए जाते रहे हैं कि घरेलू उत्पादक भरपाई करेंगे, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ है.

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इस हफ्ते उसने पर्सनल कंप्यूटर, लैपटॉप, टैबलेट, आदि के आयात पर कड़ा नियंत्रण लगाने की घोषणा के साथ भारत की ‘बड़ी सरकार’ इन दिनों जवाबी कार्रवाई करने में जुट गई है.

इससे पहले उसने अपने कदम वापस खींचते हुए ‘लिबरलाइज्ड रेमिटेंस स्कीम’ (एलआरएस) के तहत भेजी गई रकम पर ‘टीडीएस’ की दर 5 फीसदी से चार गुना बढ़ाकर 20 फीसदी कर दी. वाजपेयी सरकार ने इस स्कीम की घोषणा की थी, जिसके तहत भारतीय नागरिक विदेशी मुद्रा की एक निश्चित रकम विदेश में खर्च या निवेश कर सकते थे.

सरकार बहादुर ने इसकी सीमा में और टीडीएस में क्रेडिट कार्ड से खर्च की जाने वाली रकम को भी जोड़ दिया. जब इसका विरोध बढ़ा तो उसने सीमाओं की अलग-अलग श्रेणी बना दी और फैसले को अलग-अलग तारीख से लागू करने की घोषणा कर दी.

भारत के लोग 1991 के बाद तीन दशक से इस तरह की कई पिछली बातों को भूल चुके थे, लेकिन ऐसी कई बातें फिर से उभरकर सामने आ गई हैं. उदाहरण के लिए गैर-बासमती चावल के निर्यात पर अचानक रोक लगाना, जिसकी वजह से दुनिया भर के बाज़ारों में भारत की साख पर सवाल उठने लगे हैं.

कृषि पैदावारों के व्यापार को लेकर कुछ बातें करना खाद्य सुरक्षा की वजह से चुनौतीपूर्ण हो जाता है. चाहे खाद्य पदार्थों की कीमत कम रखने का बोझ भारतीय किसानों पर क्यों न बढ़ रहा हो, इसलिए इस बात को यहीं छोड़ देते हैं. वैसे आप ऐसे कई उदाहरण दे सकते हैं. मसलन सोलर पेनलों के आयात (मुख्यतः चीन से) पर प्रतिबंध. हालांकि, इसके बाद कहा गया कि यह प्रतिबंध सार्वजनिक उपक्रमों के लिए नहीं लागू होगा. क्या इसका मतलब यह हुआ कि ये उपक्रम उनका बेरोक आयात करेंगे और भारत में निजी उपभोक्ता उन्हें उनसे खरीद सकेंगे? आप पाएंगे कि हर कदम पर सरकार सामने खड़ी मिलेगी.

हमें थोड़े विस्तार से जान लेना चाहिए कि यह नीति कैसे आई. 2020 में वित्त मंत्रालय ने आदेश जारी करके घोषणा की कि सार्वजनिक उगाही के लिए, भारत की सीमा से सटे पड़ोसी देशों से किन चीजों का आयात तब तक नहीं किया जा सकता है जब तक उनका सप्लायर भारत सरकार के यहां रजिस्टर्ड नहीं होगा. भारत पाकिस्तान से कुछ नहीं खरीद रहा था. नेपाल और भूटान आयात के मामले में कोई महत्व नहीं रखते. इसलिए हर किसी को मालूम था कि यह रोक चीनी माल के लिए थी. गलवान कांड के बाद बने मूड के मद्देनज़र ‘दिप्रिंट’ के लिए भी संपादकीय नज़रिए से यह ठीक था. 2022 में सोलर पेनेलों को भी इस लिस्ट में जोड़ दिया गया. अब 2023 में सार्वजनिक उपक्रमों के लिए यह रोक हटा दी गई. इस बीच, चीन के साथ हमार व्यापार घाटा हर साल बढ़ता गया है.


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अब सबसे ताजा लैपटॉप-टैबलेट मामले को देखें. सरकारी तौर पर बताया गया कि इसका मकसद घरेलू मैनुफैक्चरिंग को बढ़ावा देना है. अगले ही दिन दूसरा तर्क दिया गया — राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल सबसे अहम है.

अब, सरकार के पास अपने नागरिकों को यह बताने के वैधानिक और नैतिक अधिकार न हों कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है, कि उनके जीवन और देश की सुरक्षा के लिए क्या ज़रूरी है, तो फिर सरकार है किसलिए? एक बार जब राष्ट्रीय सुरक्षा का दांव चल दिया तो फिर सारी — बहस खत्म!

इसे इस तरह देखिए. भारत में आयात के लिए अब तक प्रतिबंधित चीज़ों की की कुल कीमत वित्त वर्ष 2022-23 में 8.8 अरब डॉलर के बराबर होगी. इसमें 5.1 अरब डॉलर का यानी 58 फीसदी हिस्सा चीन से आने वाले समान का है. यानी आप सीधा हिसाब लगा सकते हैं.

कोई भी भारतीय चाहे वो दशकों से मुक्त व्यापार, खुले बाज़ार, आर्थिक सुधारों की मांग करने वाला क्यों न हो, राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों के खिलाफ कैसे बात कर सकता है? वो भी उस दौर में जब हुयावे और दूसरे चीनी टेक/कम्यूनिकेशन के मामले को लेकर पश्चिमी जगत (भारत के मित्र देशों) में कार्रवाइयां की जा रही हैं.

राष्ट्रीय सुरक्षा की जब भी बात आती है, भारत के लोग आमतौर पर अपनी सरकार पर भरोसा करते हैं और चुप हो जाते हैं, लेकिन यह आपके मकान मालिक या किरायेदार के लैपटॉप में चीन द्वारा चोरी से कुछ दाल देने से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है. अधिकतर हम अपने वीआईपी लोगों को डीआरडीओ जैसे देश के आला वैज्ञानिक संस्थानों के दौरे करते देखते हैं, सोशल मीडिया (अधिकतर ट्वीटर) पर पॉप-अप देखते हैं जिनमें तेज़ नज़र वालों को चीनी सीसीटीवी कैमरों (सबसे प्रमुख हिकविजन ब्रांड) की मौजूदगी दिख जाती है.

टेक्नोलॉजी के मामले में हम जैसे अज्ञानी लोगों को भी पता होता है कि ये कैमरे किसी सर्वर से जुड़े होते हैं जो इन संवेदनशील स्थानों की सूचनाओं और घटनाओं को इकट्ठा करता रहता है. सरकारी/वैज्ञानिक संस्थानों में हर चीज़ संवेदनशील या गोपनीय नहीं होती है और हमारे लैपटॉप या पीसी में परिवार के लोगों, शादियों, जन्मदिन के आयोजनों, कॉन्वोकेशनों, कुत्ते-बिल्लियों की तमाम तस्वीरें या वीडियो भी ऐसे नहीं होते.

व्यापार को जब रणनीति का हिस्सा बनाना हो तो राष्ट्रीय सुरक्षा एक उपयोगी और जायज़ बहाना बनता है. वैसे आपको देखना पड़ता है कि आप कमी की भरपाई कैसे करेंगे. भारत में अब तक इसी उम्मीद से आयातों पर रोक या प्रतिबंध लगाए जाते रहे हैं कि घरेलू उत्पादक भरपाई करेंगे, लेकिन — ऐसा कभी नहीं हुआ है.

दशकों तक हमने ऑटोमोबाइल वाहनों के आयात की मंजूरी नहीं दी और एंबेसडर, फिएट कारों तथा बजाज, लैंबरेटा स्कूटरों से काम चलाते रहे. इसके बाद हमने दरवाज़े खोले, दुनिया को आकर मुकाबला करने का अवसर दिया. अब हम दुनिया में ऑटोमोबाइल वाहनों के सबसे बड़े निर्यातक हैं. इसके अलावा भारतीय उपभोक्ताओं की दो पीढ़ियों के सामने वो विकल्प थे जो हमारी पीढ़ी के लोगों को उपलब्ध नहीं थे.


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कंप्यूटरों को लेकर जो नया फैसला किया गया है वो खासतौर से चिंताजनक है क्योंकि इलेक्ट्रोनिक माल के आयात पर प्रतिबंध को 1991 से पहले के लाइसेंस-कोटा राज की विफलता का सबसे बड़ा प्रमाण माना जा सकता है. इंदिरा-राजीव दौर के लाइसेंस-कोटा राज में किसी भी विदेशी को भारत में आकर इलेक्ट्रॉनिक्स सामान बनाने की इजाज़त नहीं थी, आयात पर रोक लगी थी और मैनुफैक्चरिंग को केवल सार्वजनिक क्षेत्र में बढ़ावा देने की छूट थी.

इसलिए कई राज्य सरकारों ने अपने यहां सरकारी उपक्रम लगाए और कोरिया से किट आयात करके टीवी सेट तथा ‘टू-इन-वन’ (नई सहस्राब्दी की पीढ़ी को बता दें कि यह कैसेट प्लेयर और रेडियो का सेट हुआ करता था) बनाने लगे, लेकिन इन्हें कोई पसंद नहीं करता था और लोग इंतज़ार करते थे कि उनका कोई एनआरआई रिश्तेदार या ‘आवास तबादले’ के नाम पर समान सहित आया कोई सरकारी अधिकारी ये चीज़ें लेकर आएगा. हवाई अड्डों पर बेगेज़ बेल्ट टीवी, वीसीआर, माइक्रोवेव ओवेन के बड़े-बड़े डिब्बों से भरे रहते थे. ये सब 1991 के बाद दो साल में गायब हो गए.

अब, लैपटॉप, टैबलेट के बारे में नई नीति के साथ हम एकदम उलटी दिशा में जाना चाहते है.

इसके अलावा विदेशी मुद्रा को लेकर प्रतिबंध तो इलेक्ट्रॉनिक्स सामान पर प्रतिबंधों से भी ज्यादा सख्त हैं. अब विदेशी मुद्रा के देश में आने और देश से बाहर जाने पर भी प्रतिबंध लगाया गया है. पूर्व बैंकर और अब एक लेखक तथा निवेशक जयतीर्थ ‘जेरी’ राव अक्सर कहा करते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने समाजवाद के नाम पर हम भारतीयों को विदेश यात्रा पर अपने साथ 8 डॉलर — बाद में 120 डॉलर से ज्यादा नहीं ले जाने दिया. ऐसी रोक तो ब्रिटिश सरकार ने भी हम पर नहीं लगाई थी.

हरेक श्रेणी के लिए सीमा तय थी और इसके लिए आपको रिजर्व बैंक जाकर कोटा और सर्टिफिकेट लेना पड़ता था. उदाहरण के लिए, रिजर्व बैंक ने मुझे एक रिपोर्टर के नाते एक पश्चिमी देश में प्रतिदिन होटल, भोजन, वाहन आदि पर कुल 250 डॉलर खर्च करने की इजाज़त दी. पड़ोसी देशों के लिए तो यह रकम 150-160 डॉलर के बराबर थी. हमारे क्रेडिट कार्ड केवल भारत और नेपाल में चलते थे. इसलिए आप किसी दूसरे देश में किराए पर कार नहीं ले सकते थे.

आप अपने साथ जो भी पैसे और पेशेगत उपकरण, छोटे टेप रेकॉर्डर या लैपटॉप ले जाते थे उन्हें आपके पासपोर्ट के अंतिम पन्नों पर दर्ज किया जाता था. जितने पैसे और सामान लेकर आप लौटते थे उन्हें भी उस पर दर्ज किया जाता था. इस लेख के वीडियो संस्कारण में मैं अपने पुराने पासपोर्ट के उन पन्नों को दिखा सकता हूं. यह आर्थिक सुधारों के बाद बड़ी हुई पीढ़ी को यह अंदाज़ा दे सकता है कि हम कहां से चल कर कहां तक आए हैं.

वो सब 1991 के आर्थिक सुधारों की खिड़की से बाहर चला गया. भारतीय क्रेडिट कार्ड दुनिया भर में चलने लगे और यह एक युग बदलने वाली घटना हुई जिसने दुनिया में भारत की साख बढ़ाई. पूर्व आला अधिकारी और आर्थिक सुधारों के एक सूत्रधार एन.के. सिंह ने इस सबके बारे में अपनी किताब ‘पॉलिटिक्स ऑफ चेंज’ में कुछ विस्तार बताया है.

वाजपेयी सरकार ने फरवरी 2004 में ‘लिबरलाइज्ड रेमिटेंस स्कीम’ (एलआरएस) के तहत भारतीयों को डॉलर में खर्च, निवेश या भुगतान (अब 2.5 लाख डॉलर तक) करने की जो छूट दी थी वो लीक को तोड़ने वाली घटना थी.

चुनाव करीब आने और कामचलाऊ सरकार बनने से पहले वाजपेयी सरकार का यह बड़ा और सबसे सुधारवादी फैसला था.

सुधारों से पहले के भारत में विदेशी मुद्रा संबंधी कंट्रोल और आयात पर नियंत्रण/ भरपाई जैसे कदम बुरे थे. आयात की भरपाई का मतलब है व्यापार से कतराना. यह वैचारिक, राजनीतिक और सैद्धांतिक दृष्टि से पुरातन अर्थनीति है. भारत और चीन समेत जिन देशों ने भारी विकास किया है उसका श्रेय उनके व्यापार को जाता है.

भारत आज जब कई सुधारों को लागू कर रहा है, रक्षा उत्पादन से लेकर उपभोक्ता खुदरा सामान समेत कई संवेदनशील क्षेत्रों में भी एफडीआई पर रोक को खत्म कर रहा है, तब इस तरह के बुरे कदम भी वापस उठाए जा रहे हैं. जाने-माने लेखक विक्टर ह्यूगो ने क्या कहा था, यह हम जानते हैं. उनसे क्षमा मांगते हुए हम उनकी अमर उक्ति को इस तरह प्रस्तुत कर रहे हैं — जिस बुरे आइडिया का वक्त आ गया हो उसे कोई नहीं रोक सकता.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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