क्या मणिपुर की घटना, जिसमें दो महिलाओं को नंगा किया गया, उनके साथ छेड़छाड़ की गई, उन पर हमला किया गया, उन्हें अपमानित किया गया, सार्वजनिक रूप से उन्हें घुमाया गया और फिर उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, आपको चलती बस में 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार की याद दिलाती है? यकीनन, यह घटना उतनी ही चौंकाने वाली और भयावह थी. और देश भर में हंगामा भी मच गया था.
लेकिन इसमें महत्वपूर्ण इन दोनों घटनाओं में कुछ महत्त्वपूर्ण अंतर थे. सबसे पहला, भारत का अधिकांश हिस्सा दुखी तो लग रहा था लेकिन फिर भी किसी न किसी तरह से वह इस घटना से कटा हुआ भी लग रहा था. 2012 के मामले के दौरान, लोगों की जिस तरह की प्रतिक्रियाएं दी थीं उससे उनके व्यक्तिगत जुड़ाव का पता चला है: वह किसी की भी बहन, बेटी या दोस्त हो सकती थी. इस बार यह अनुपस्थित था क्योंकि – और यह शर्मनाक है, लेकिन सच है – हार्टलैंड में कई भारतीय अपने पूर्वोत्तर भाइयों और बहनों के साथ उतना अपनापन महसूस नहीं करते.
दूसरा अंतर था. 2012 के गैंग रेप मामले ने राजनीतिक भूचाल ला दिया था. लोगों ने महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने में विफलता के लिए सरकार पर हमला करते हुए सड़कों पर मार्च किया. हालांकि, कानून और व्यवस्था दिल्ली सरकार के अंतर्गत नहीं आती है, फिर भी तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को व्यक्तिगत रूप से दोषी ठहराया गया और इस घटना ने बाद के चुनाव में उनकी हार में योगदान दिया. यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के घर के बाहर गुस्से में प्रदर्शन हुए और हालांकि सोनिया ने कुछ प्रदर्शनकारियों को अंदर बुलाया और उनकी बात सुनी, लेकिन इस घटना ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की प्रतिष्ठा को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया.
इस बार राजनीतिक नतीजे बहुत अलग रहे हैं. इंडिया गेट पर बहुत कम आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन हुए हैं और किसी ने भी गृहमंत्री अमित शाह का घेराव करने की कोशिश नहीं की है. टेलीविज़न चैनलों ने शाम या रात की बहस में यह पूछते हुए कि ‘क्या भारत में महिलाएं सुरक्षित हैं?’ कार्यक्रम नहीं किया. और केंद्र की भाजपा सरकार जो जैसा है उसे वैसा ही होने देकर शांत है. हफ्तों से मणिपुर में जारी हिंसा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ नहीं कहा था. लेकिन वीडियो वायरल होने के बाद घटना की निंदा करने के लिए उन्होंने थोड़ी देर के लिए अपनी चुप्पी तोड़ी, लेकिन इसके बाद फिर उन्होंने कुछ नहीं कहा.
और यद्यपि मारपीट और छेड़छाड़ – जो कि मणिपुर में महीनों से चल रही हिंसा की घटना का एक हिस्सा है- भाजपा शासित राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति की स्पष्ट विफलता को दिखाती है, लेकिन भाजपा के खिलाफ बहुत कम या कोई वास्तविक सार्वजनिक गुस्सा नहीं था. सोशल मीडिया पर, कई भाजपा-समर्थक हैंडलों ने शेष भारत में (अनिवार्य रूप से, उन राज्यों में जहां भाजपा का शासन नहीं था) महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अन्य मामलों को उठाते हुए इस घटना को कम महत्व देते हुए आरोप-प्रत्यारोप का सहारा लिया. जल्द ही, तुम्हारा बलात्कारी मेरे बलात्कारी से भी बदतर है का घिनौना खेल मोदी सरकार के कई समर्थकों के लिए एक डिफॉल्ट विकल्प बन गया. यह बचाव वास्तव में यह कहने जैसा था: “हर कोई ऐसा कर रहा है; तो फिर एक घटना के बारे में चिंता क्यों करें?”
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बिल्कुल अलग समय
जबकि 2012 की घटना यूपीए के लिए काफी गंभीर राजनीतिक परिणाम लेकर आई थी, लेकिन कम से कम अब तक, मणिपुर की इस भयावह घटना को कोई महत्व नहीं दिया गया है. यहां तक कि मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह जो कि हिंसा को नियंत्रित करने की कोशिश करने के बजाय, सोशल मीडिया पर अपने ही कुछ नागरिकों को ‘बर्मा का (Burmese)’ कहने में जुटे हैं और जिन्हें बहुत पहले ही बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए था, वे पद पर बने हुए हैं. जहां तक केंद्र की बात है, जिसने महीनों तक मणिपुर में कानून-व्यवस्था की स्थिति को नजरअंदाज किया, कोई राजनीतिक नुकसान नहीं हुआ है.
तो, क्या फर्क पड़ा?
खैर, इसका कुछ संबंध ‘पूर्वोत्तर कारक या नॉर्थ ईस्ट फैक्टर’ से है. अगर यह घटना लखनऊ या भोपाल में हुई होती, तो इसके बड़े राजनीतिक नतीजे होते. पूर्वोत्तर न केवल कई भारतीयों की राजनीतिक चेतना से दूर है, बल्कि एक चिंताजनक परिप्रेक्ष्य यह भी है कि यह वैसे भी एक प्रकार का अशांत क्षेत्र है, जहां कानून और व्यवस्था हमेशा नाजुक रहती है.
लेकिन इसका बहुत कुछ संबंध मोदी सरकार से है और जिस तरह से वह पूरे माहौल को मैनेज करती है और असहमति को शांत करती है. अपने आप से यह पूछें: यदि मणिपुर छह सप्ताह तक जलता रहा होता, यदि हथियार लूट लिए गए होते, यदि इन लूटे गए हथियारों को लेकर लोग सड़कों पर घूमते होते, और यदि नागरिक गंभीर खतरे में होते, तो क्या मनमोहन सिंह चुप रहते?
क्या हमने उन्हें जाने दिया होता? क्या उन्हें गुस्से भरे सवालों का सामना नहीं करना पड़ा होता? क्या उन्हें सार्वजनिक रूप से, कैमरे पर, संसद के अंदर जवाब देने के लिए मजबूर नहीं किया गया होता?
और फिर भी, जब पत्रकारों ने प्रधानमंत्री मोदी को कवर किया है, जो पिछले चार हफ्तों में शायद ही कभी सुर्खियों से बाहर रहे हों, तो मणिपुर का कभी उल्लेख नहीं किया गया है. इन चीजों पर बारीकी से नज़र रखने वाले लोगों ने मुझे बताया है कि जब तक मणिपुर में छेड़छाड़ का घिनौना वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल नहीं हुआ, तब तक अधिकांश टीवी चैनलों ने शायद ही कभी इस पर बहस की थी कि राज्य में क्या हो रहा है. (मैं अब टीवी समाचार नहीं देखता, इसलिए मैं व्यक्तिगत रूप से इसकी पुष्टि नहीं कर सकता, लेकिन यह सर्वमान्य विचार प्रतीत होता है.) वीडियो सामने इसमें बदलाव आया, लेकिन फिर भी, एंकरों ने दोनों पक्षों की बात सुनने की आड़ में आरोप-प्रत्यारोप वालों को भी स्थान दिया जिससे मणिपुर और बलात्कार के मुद्दे से लोगों का ध्यान भटक गया.
क्या यूपीए के शासनकाल के दौरान 2012 की घटना के वक्त और बाद में ऐसा कुछ हुआ? उन दिनों, मैं न केवल टीवी देखा करता था, बल्कि न्यूज़ टीवी चैनलों पर दिखाई भी देता था और मैं कल्पना नहीं कर सकता कि कोई एंकर किसी पार्टी प्रवक्ता को यह कहकर मुद्दे से भटकने दे, कि “लेकिन बलात्कार पश्चिम बंगाल में भी होते हैं.”
क्या असहमति संभव है?
ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से मोदी सरकार की आलोचना कभी भी बड़े स्तर तक नहीं पहुंच पाती. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का रवैया एक जैसा है. (समाचार पत्र बेहतर हो सकते हैं लेकिन हमेशा नहीं). दूसरा है – बेहतर कार्यकाल की चाह में – जब संकट से गुज़रने की बात आती है तो सरकार की शक्ति. यह शायद ही कभी स्वीकार करती है कि उसने कुछ गलत किया है, आमतौर पर इस्तीफे या बर्खास्तगी की सभी मांगों को नजरअंदाज कर दी जाती है, और असहमति को अभद्रता माना जाता है. (जैसा कि हमने देखा, यूपीए ने विपरीत रास्ता अपनाया; सभी आलोचनाओं पर बिना सोचे-समझे प्रतिक्रियाएं दीं.) प्रधानमंत्री मोदी ने सीखा है कि यदि आप मीडिया को नियंत्रण में रखते हैं और संकट पर बिना कोई ऐक्शन लिए बैठे-बैठे देखते रहते हैं, तो, देर-सबेर, समस्या समाप्त हो जाएगी.
इससे केवल एक ही जगह बचती है जहां असहमति को व्यक्त किया जा सकता है: संसद में. यूपीए के पास उस तरह का बहुमत नहीं था जैसा कि भाजपा के पास है, और दोनों सदनों में पीठासीन अधिकारी पुराने जमाने के थे, अब प्रत्येक पार्टी के प्रति निष्पक्षता से विचार करें.
अब, भाजपा और उसके सहयोगियों के पास प्रचंड बहुमत है और पीठासीन अधिकारियों का दृष्टिकोण बिल्कुल सीधा है. यूपीए युग में, भाजपा को संसद को बाधित करना पसंद था क्योंकि, जैसा कि अरुण जेटली ने कहा था, यह विरोध का एक बिल्कुल वैध तरीका था. अब, संसद एक शांत जगह है. विपक्ष का कहना है कि उसे खुलकर बोलने या सरकार से अपने सवालों का जवाब देने का मौका शायद ही मिलता है; हंगामा करने वाले विपक्षी सांसदों को तुरंत निलंबित कर दिया जाता है, और किसी भी परिणाम की बहुत कम यादगार बहसें होती हैं.
तो फिर असहमति कैसे व्यक्त की जा सकती है? सरकार के विरोधी अपनी बात कैसे मनवा सकते हैं? उबलता हुआ असंतोष कैसे अभिव्यक्ति पा सकता है, पूरी तरह से गुस्से की तो बात ही छोड़ दीजिए?
उत्तर है: ऐसा नहीं हो सकता.
और इसलिए, मणिपुर जैसी जगहों पर चाहे कुछ भी हो जाए, इस वक्त 2012 जैसा आंदोलन कभी नहीं होगा. मैं कल्पना करता हूं कि इससे मदद मिलती है कि प्रधानमंत्री मोदी लोकप्रिय बने रहें और सर्वेक्षणों से पता चलता है कि अधिकांश मतदाता उन पर भरोसा करते हैं.
यहां तक कि जब लोग भयभीत होते हैं, जैसा कि वे मणिपुर वीडियो को लेकर थे, तब भी वे जवाबदेही की मांग नहीं करते हैं; अगर वे चाहें तो भी ऐसे मंच कम हैं जहां वे इसकी मांग कर सकें. यूपीए के विपरीत, जिसकी काफी आलोचना हुई थी, भाजपा ने इसे नियंत्रित करना, मैनेज करना और अनदेखा करना सीख लिया है.
सरकार के आलोचकों का कहना है कि मतदाताओं के भीतर बहुत दबा हुआ गुस्सा है जो चुनाव के समय सामने आएगा. शायद है भी. लेकिन सच कहूं तो, मैं इसे नहीं देखता. नरेंद्र मोदी ने यह पता लगा लिया है कि असहमति को खत्म किए बिना या अनावश्यक रूप से इसकी चिंता किए बिना भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की संस्थाओं को कैसे चलाया जाए.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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