मणिपुर में व्याप्त अराजकता के लिए उसके मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह और उनके चलते राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा तथा मोदी सरकार भी आलोचनाओं के निशाने पर है. वहां जो हालात हैं उन्हें ‘गृहयुद्ध’ ही कहा जा सकता है. भाजपा का बचाव करने वाले लोग ये तीन तर्क देते हैं—
- उस राज्य में शांति कभी नहीं रही. भाजपा ने ही वहां छह साल तक कुछ शांति बहाल की. वहां के समुदायों को दशकों तक कांग्रेस ने ही बांटा. वहां के हालात को जल्दी से दुरुस्त नहीं किया जा सकता.
- वहां बड़े स्तर पर विदेशी साजिश चल रही है. जिस वीडियो ने पूरे देश को हिला दिया उसे सबके सामने आने में घटना के बाद 10 दिन का समय क्यों लगा? क्या उसे जानबूझकर संसद का मॉनसून सत्र शुरू होने के ठीक पहले जारी नहीं किया गया?
- एक बात जो खुल कर नहीं मगर इशारे में कही जाती है और भाजपा के सोशल-मीडिया-वीरों की ओर से जवाबी हमले का मूल मुद्दा है वह यह है कि मुख्यतः हिंदू मैतेई समुदाय ही ईसाई कुकी समुदाय के हमलों का शिकार है और इसमें चर्च केंद्रीय भूमिका निभा रहा है. मुख्यमंत्री बीरेन सिंह और दूसरों की तरफ से खुल कर यह कहा गया है कि कई ‘विदेशी’ तत्व (म्यांमारी कुकी समुदाय) इसमें शामिल हैं, इसमें विदेशी हाथ (मुख्यमंत्री के मुताबिक चीन) भी शामिल है, और यह कि कुकी जनजाति समुदाय ने जंगल में अतिक्रमण किया, अफीम की अवैध खेती करता है, नशीले पदार्थों की तस्करी में शामिल है और आतंकवादी है. बीरेन सिंह ने उनके लिए ‘आतंकवादी’ शब्द का कई बार प्रयोग किया है, जिसे राष्ट्रीय अखबारों में भी दर्ज किया गया है.
वीडियो के कारण बेशक पूरा देश शर्मसार हुआ है लेकिन हमें उपरोक्त दावों को तथ्यों, तर्कों और इतिहास के आधार पर शांति से जांच करने की जरूरत है.
सबसे पहली बात: भाजपा ठीक कह रही है कि मणिपुर में स्थिति कभी भी और खासकर 1970 वाले दशक के मध्य से पूरी तरह सामान्य नहीं रही. कांग्रेस के राज में अक्सर हिंसा के कारण अस्थिरता पैदा हो जाती थी; बगावत, आतंकवाद, स्थानीय समुदायों के बीच झगड़े चलते रहते थे. आज कुकी और मैतेई समुदाय एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं. पहले, कुकी बनाम नगा संघर्ष चलता था, और नगा का भारत के साथ भी युद्ध चलता था. याद रहे कि नगालैंड के संगठन ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड’ (एनएससीएन) के अध्यक्ष टी. मुइवा मणिपुर के ही हैं.
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भाजपा को वास्तव में कांग्रेस से एक अस्थिर और बुरी तरह विभाजित राज्य विरासत में मिला. यही वजह है कि वहां के लोगों ने हालात बदलने की उम्मीद में भाजपा को नयी राजनीतिक ताकत के रूप में गले लगाया. लेकिन कांग्रेस अगर वर्षों तक कई गलतियां करती रही, तो भाजपा को तो वहां के लोगों को वास्तविक बदलाव देना चाहिए था. इसकी जगह उसने राज्य में अपने प्रमुख नेता उसी कांग्रेस से उधार लिये, जिन्हें वह नाकाम घोषित कर चुकी थी. बीरेन सिंह भी ऐसे नेताओं में शामिल हैं.
राजनीति की शैली और तरीके में ठोस बदलाव करने की जगह भाजपा सरकार ने अपनी विभाजनकारी नीति ही जारी रखी और हालत को और गंभीर बना दिया. राज्य कितना बंट चुका है इसे समझने के लिए हमें हिंसा के शुरुआत से पहले और उस दौरान भी मुख्यमंत्री के बयानों पर गौर करना होगा.
मैं क्रम को तोड़ते हुए 19 जून के उनके बयान से शुरू करूंगा, न कि इससे पहले के उनके बयानों और संकेतों से. बलात्कारों और हत्याओं की वारदात के सात सप्ताह बाद जबकि गृहयुद्ध जारी ही था, 19 जून को उन्होंने कहा, “यह सब बंद होना चाहिए. खासकर ‘सू’ (सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन्स) समझौते में शामिल कुकी उग्रवादियों को यह सब बंद करना चाहिए वरना उन्हें नतीजे भुगतने पड़ेंगे. मैं हथियारबंद मैतेई समुदाय से भी अपील करता हूं कि वे कोई गैर-कानूनी काम न करें.” ‘सू’ केंद्र, राज्य और कुकी उग्रवादियों के बीच किया गया त्रिपक्षीय समझौता है जिसके तहत युद्ध विराम घोषित किया गया था.
अब जरा ध्यान से पढ़िए. दोनों खेमे हथियारों से लैस हैं लेकिन मुख्यमंत्री एक ही खेमे को “उग्रवादी” कहते हैं और उसे धमकी देते हैं. और अपने वाले को, जो हथियारबंद है उसे कोई गैर-कानूनी काम न करने की हिदायत भर देते हैं. उनके हथियारों को गैर-कानूनी नहीं बताया जाता, न ही नतीजे भुगतने की धमकी दी जाती है.
इसके अलावा, 29 मई के उनके इस बयान पर भी गौर कीजिए, जिसे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समेत कई अखबारों में प्रकाशित किया गया— “हमने उन आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी है, जो एम-16, एके-47 जैसे आधुनिक हथियारों से नागरिकों पर हमले कर रहे हैं…” उनके दूसरे बयानों से बिल्कुल साफ हो जाता है कि वे ‘आतंकवादी’ किसे कह रहे हैं. एक से ज्यादा ट्वीट (जिन्हें डिलीट कर दिया गया है) में उन्होंने कुकी आलोचकों को ‘म्यांमारी’ कहा है. एक आलोचक ने उन्हें जब यह याद दिलाया कि म्यांमार में मैतेई भी रहते हैं, तो उन्होंने जवाब दिया कि वे उस देश में अपने अलग होमलैंड की मांग नहीं करते. कुकी समुदाय पर आरोप लगाया जा रहा है कि वह भारत में ऐसा कर रहा है. बीरेन सिंह म्यांमार (जो भारत के साथ दोस्ताना रिश्ता रखता है) तक ही सीमित नहीं रहते, चीन को भी घसीट लेते हैं. 1 जुलाई को उन्होंने बयान दिया— “विदेशी हाथ से इनकार नहीं किया जा सकता… चीन भी सटा हुआ है.” उनके ट्वीटों और बयानों के साथ यह खबर ‘दिप्रिंट’ में छप चुकी है.
इस तरह, यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि अगर कांग्रेस ने पहले इस राज्य को अपनी सियासत की खातिर जातीय आधार पर बांटा, तो अब भाजपा उस खाई को और गहरा कर रही है. बाकी जो कुछ है वह भाजपा की मूल विचारधारा से जुड़ा है— चाहे इसे हिंदू बनाम ईसाई मसले के रूप में देखने का मामला हो या इसमें चर्च की छाया देखने का, खासकर उस टकराव में जिसमें हिंदू समुदाय भी प्रमुख भूमिका में है. असम से लेकर मेघालय (नागरिकता कानून व रजिस्टर मामले में) तक और अब मणिपुर तक, इस दोहरेपन की आसान नीति उत्तर-पूर्व की जटिलताओं के मद्देनजर नाकाम रही है.
धर्म, जाति, स्थानीयता, भाषा, क्षेत्र से जुड़ी पहचान इस देश के हर एक हिस्से में बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है. लेकिन उत्तर-पूर्व में पहचान के आधार कहीं और ज्यादा जटिल और उलझे हुए हैं. उदाहरण के लिए, नगा एक व्यापक समूह है लेकिन उसके अंदर 28-35 (यह गिनती गिनने वाले पर निर्भर है) अलग-अलग जनजातियां मौजूद हैं और उन सबकी अपनी अलग-अलग भाषा, संस्कृति और युद्ध कला का इतिहास है. असम में भाजपा कुछ मुसलमानों (स्थानीय) को स्वीकार करती है लेकिन दूसरों (बांग्लाभाषी प्रवासियों) को नागरिकता कानून के जरिए बाहर करना चाहती है लेकिन इसी कानून के तहत हिंदुओं को बनाए रखना चाहती है, भले ही वे विदेशी क्यों न साबित हो चुके हों.
‘विदेशियों’ को बाहर निकालने का दशकों तक आंदोलन चला चुके असमी यह हिंदू-मुसलमान भेद नहीं करते. वे सभी बांग्लाभाषी ‘विदेशियों’ को बाहर निकालना चाहते हैं, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान.
इसलिए, मुख्य सबक यह है कि पहचान की जो कसौटियां देश के बड़े भाग पर लागू हैं वे उत्तर-पूर्व में लागू नहीं होतीं. अगर आप सबको एक ही कूची से रंगना चाहेंगे तो शर्मसार होकर पीछे हटना पड़ेगा, जैसा कि असम में हुआ (जिसके चलते मेघालय में भी काफी विरोध उभरा), या जैसा संकट अब हम मणिपुर में झेल रहे हैं.
वास्तव में, मणिपुर वह राज्य है जो ‘हिंदू-मूलतः-राष्ट्रवादी-हैं’ वाले फॉर्मूले को नाकाम करता है. पड़ोसी नगालैंड और मिजोरम में विद्रोह का नेतृत्व ईसाई जनजातियों ने किया और प्रायः चर्च इसमें शामिल रहा, लेकिन मणिपुर में एक मात्र बड़े विद्रोही मैतेई हिंदू हैं.
1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में, हथियारबंद दो विद्रोह हुए. पहला और सबसे महत्वपूर्ण विद्रोह पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने किया जिसका नेतृत्व नमेराक्पम बिशेस्वर सिंह ने किया. वह चीनियों से ट्रेनिंग और हथियार लेने ल्हासा गया और 1978 में 18 ‘कॉमरेडों’ के साथ लौटा और ‘क्रांतिकारी’ युद्ध शुरू किया. उसे 17 जेएके राइफल्स के तत्कालीन सेकंड लेफ्टिनेंट सायरस एड्डी पीठावला ने मशहूर टेकचाम मुठभेड़ के दौरान कब्जे में लिया था. इस कामयाबी के लिए पीठावला को शांतिकाल में सेना के सर्वोच्च सम्मान अशोक चक्र से सम्मानित किया गया था. बिशेस्वर को बाद में रिहा कर दिया गया और वह एक राजनीतिक नेता बन गया. उसका उत्तराधिकारी कुंजबिहारी 1982 में कोडोम्पोक्पी में सेना के साथ मुठभेड़ में मारा गया.
दूसरा गुट था ‘प्रीपाक’ (पीपुल्स रेवोल्यूशनरी आर्मी ऑफ कांगलेपाक), जिसका नेता आर.के. तुलाचंद्र सिंह था. यह भी पीएलए की तरह धुर साम्यवाद की दुहाई देता था. तुलाचंद्र भी सेना के साथ मुठभेड़ में 1986 में मारा गया. इन दो मृतप्राय गुटों में से कांगलेपाक कम्युनिस्ट पार्टी (केसीपी) के कई धड़े उभरे (जिनकी अंतिम संख्या एक दर्जन थी). कांगलेपाक मणिपुर घाटी क्षेत्र का प्राचीन नाम था.
महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सभी बागी पूरी तरह मैतेई थे और हिंदू थे. गौरतलब है कि जनजातीय लोग इन दशकों में हुए संघर्षों से अलग थे. मैंने इतने विस्तार से यह सब बताने की कोशिश केवल यह याद दिलाने के लिए की है कि हम उत्तर-पूर्व की वास्तविकताओं को समझें, कि यह क्षेत्र जटिल, अनूठा, चुनौतीपूर्ण है, और इसे अगर आप देश की हिंदी पट्टी वाले सुपरिचित फॉर्मूले को लागू करके चलाना चाहेंगे तो बुरी तरह नाकाम होने की गारंटी लेकर चलिए. आज विभाजित मणिपुर इसका दुर्भाग्यपूर्ण सबूत है.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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