जनता के मुद्दों को लेकर आगे बढ़ेंगे और बीजेपी को माटी की पार्टी बनाएंगे. केंद्रीय नेतृत्व ने जो मुझपर भरोसा किया है, अपनी बुद्धि और क्षमता के साथ मैं पार्टी को आगे ले जाने की कोशिश करूंगा. यही नहीं, आगामी लोकसभा चुनाव में हम सभी 14 सीटें हासिल करने जा रहे हैं.
ये कहना है झारखंड बीजेपी के नए प्रदेश अध्यक्ष और राज्य के पहले सीएम बाबूलाल मरांडी का. हालांकि बीते पांच तारीख को रांची के हरमू स्थिति बीजेपी मुख्यालय में बाबूलाल पूरे उत्साह के साथ मीडिया को संबोधित कर रहे थे. समर्थकों और संभावित प्रत्याशियों से गुलदस्ता उपहार में ले रहे थे, ठीक उसी वक्त उनके उत्साह और आत्मविश्वास के बीच खुद बीजेपी ही खड़ी दिखती है. एक नहीं, तीन-तीन बीजेपी.
झारखंड में इस वक्त रघुवर दास की बीजेपी, अर्जुन मुंडा की बीजेपी और एक खुद बीजेपी की बीजेपी काम कर रही है. इसमें सबसे मजबूत रघुवर दास की बीजेपी है.
रघुवर दास वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने साल 2015 में सीएम बनने के बाद बाबूलाल मरांडी की तत्कालीन पार्टी झारखंड विकास मोर्चा के 8 में से 6 विधायकों को अपने पाले में मिला लिया था. इसके बाद बाबूलाल ने कहा कि “मिट्टी में मिल जाएंगे, लेकिन बीजेपी में नहीं जाएंगे.” उन्होंने यह भी कहा था, “झारखंड में बीजेपी की कब्र खोद देंगे.”
वक्त बदला और जज्बात भी. साल 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद तीन विधायकों के साथ जीतकर आए बाबूलाल खुद बीजेपी में शामिल हो गए और पार्टी का विलय कर दिया. उनके बाकि दो विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए. बीजेपी ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष भी घोषित कर दिया.
रघुवर दास भले ही चुनाव हार गए, लेकिन ओबीसी के राष्ट्रीय स्तर के नेता माने जाते हैं. झारखंड के ओबीसी समाज से सबसे बड़े नेता हैं और इस वर्ग को यहां बीजेपी का वोटर माना जाता है.
आज भी हेमंत सोरेन सरकार को घेरने के लिए बीजेपी रघुवर के पांच साल के कामकाज की उपलब्धियों को ही गिना रही है. यही नहीं गुजरात में हुए ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय महासम्मेलन में गृहमंत्री अमित शाह उन्हें अपने बगल में बिठाते हैं.
अब दूसरी बीजेपी की बात करते हैं. अर्जुन मुंडा भले ही केंद्र की राजनीति में चले गए हों, झारखंड के मुद्दों पर भले ही अधिक बयानबाजी न करते हों, लेकिन मुंडा आदिवासियों के बीच खासी पकड़ रखते हैं. जो कि राज्य के आदिवासियों में दूसरी सबसे अधिक जनसंख्या वाली जनजाति है.
पहले नंबर पर संताली आदिवासी हैं.
राज्य की राजनीति को लेकर दोनों ही नेताओं की अपनी महात्वाकांक्षाएं हैं और उसको लेकर प्रतिद्वंदिता भी. दोनों के अपने गुट भी हैं.
तीसरी बीजेपी वो बीजेपी है जिसके कार्यकर्ता उगते सूरज यानी जो भी वर्तमान अध्यक्ष रहें उनके साथ रहती है.
तो क्या बाबूलाल इस गुटबाजी में सेंधमारी कर पाएंगे?
वरिष्ठ पत्रकार, बीजेपी और बाबूलाल की राजनीति को बीते 25 साल से देख रहे सुरेंद्र सोरेन दिप्रिंट से कहते हैं, “बाबूलाल मरांडी की सबसे बड़ी खासियत ही यही है कि वह गुटबाजी में नहीं उलझते हैं. दूसरी बात कि बाकि दो गुट बाबूलाल ने नहीं बनाए हैं, ऐसे में उन गुटों में खुद को स्वीकार्य कराना बाबूलाल के लिए मुश्किल काम तो कतई नहीं है.”
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बाबूलाल बीजेपी की जरूरत या मजबूरी
फिलहाल तो एकमात्र जवाब ये है कि बाबूलाल मरांडी बीजेपी की सबसे बड़ी जरूरत हैं. जिस तरीके से देशभर में आदिवासी राजनीति को बीजेपी ने नया उभार देने की कोशिश की है, उसमें इस आदिवासी बहुल राज्य में ट्राइबल ही उसकी नैया पार करा सकता है. लोकसभा की 14 और विधानसभा की 81 सीट, जिसमें कि 28 आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटें हैं, पर बिना आदिवासी नेतृत्व के लड़ना और जीत हासिल करना मुमकिन नहीं है. यही नहीं, झारखंड में कुल 60 सीटों पर आदिवासी वोटर या तो बहुलता में हैं या निर्णायक भूमिका में.
बाबूलाल की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि भाजपा साल 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में 28 आरक्षित सीट में से 26 हार चुकी है. लोकसभा चुनाव में आदिवासी बहुल चाईबासा और राजमहल हार गई और खूंटी बमुश्किल ही जीत पाई. जहां से फिलहाल अर्जुन मुंडा सांसद हैं.
बाबूलाल जरूरत इसलिए भी हैं, रघुवर सरकार में हुए पत्थलगड़ी आंदोलन ने बीजेपी और रघुवर दास दोनों की छवि, आदिवासी विरोधी के तौर पर बना दी. परिणाम ये था कि 2019 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ, विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव आदिवासी होते हुए भी बुरी तरीके से चुनाव हार गए. पूरी बीजेपी में बाबूलाल ही ऐसे हैं, जिनकी छवि आदिवासी विरोधी की नहीं है.
एक और अहम कारण ये है कि संताली आदिवासी अर्जुन मुंडा को बतौर नेता आज तक स्वीकार नहीं कर पाए हैं. जबकि बाबूलाल को लगभग सभी जनजातियों में स्वीकार्य माना जाता है.
दो और नेता, जो बनना चाहते थे प्रदेश अध्यक्ष
बीजेपी में अपनी पार्टी को मर्ज करने के बाद पार्टी ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष भी बनाया था. लेकिन उनकी पुरानी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा के 2019 विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी में विलय को झारखंड विधानसभा अध्यक्ष ने मान्यता नहीं दी.
कहा गया कि पार्टी के दो विधायक कांग्रेस में चले गए. ऐसे में केवल एक विधायक यानी बाबूलाल के जाने के विलय स्वीकार्य नहीं होगा. मामला अभी भी विधानसभा अध्यक्ष के कोर्ट में चल रहा है. यही वजह है कि आधिकारिक तौर पर वो आज तक अधिकारिक तौर पर नेता प्रतिपक्ष नहीं बन सके.
बाबूलाल इस बाधा को पार करने के लिए बीते साल दिल्ली पहुंचे और केंद्रीय नेतृत्व से कहा कि वह विधानसभा की वर्तमान सदस्यता से इस्तीफा देकर बतौर बीजेपी नेता दुबारा चुनाव लड़ना चाहते हैं, ताकि नेता प्रतिपक्ष बनने में कोई कानूनी अड़चन ही न आए. लेकिन केंद्रीय नेतृतव इसपर राजी नहीं हुआ.
साल 2023 में बाबूलाल को केंद्रीय नेतृत्व का बुलावा आया. पहुंचे तो बताया गया कि बतौर अध्यक्ष नेतृत्व करने के लिए तैयार रहें. हालांकि इस ऑफर पर उन्होंने कहा कि किसी और चेहरे तो प्राथमिकता दी जाए, मुझे पार्टी अन्य काम के लिए रखें.
इसकी खबर लगते ही पूर्व सीएम रघुवर दास और राज्यसभा सांसद आदित्य साहू एक्टिव हुए. लेकिन दोनों को ही निराशा हाथ लगी.
फिर बाबूलाल इसके लिए तैयार हुए. हालांकि तैयार होते ही उन्होंने आदित्य साहू को मिलने अपने आवास बुलावा भेजा. बात हुई, और साहू ने कहा कि वह समर्थन और मदद करने को तैयार हैं. लेकिन उनके लिए मुख्य चुनौती रघुवर गुट और मुंडा गुट को साधने का होगा.
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बाबूलाल का टेस्ट तो नहीं ले रही बीजेपी
पार्टी यह देखना चाह रही है कि संताल आदिवासियों के बीच में बाबूलाल की पकड़ कितनी है. यह पकड़ मालूम करना पार्टी के लिए इसलिए भी जरूरी है कि हेमंत सोरेन इसी इलाके से चुनाव लड़ते रहे हैं और उनकी पार्टी जेएमएम इस इलाके में सबसे अधिक मजबूत है.
पार्टी यह देखना चाहती है कि अगर लोकसभा चुनाव में ट्राइबल सीटों पर मनमाफिक परिणाम मिलते हैं, तो विधानसभा चुनाव में बाबूलाल को आगे रख लड़ने की कितनी संभावना बनती है.
इसके अलावा, सीएम हेमंत सोरेन पर हाल में लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का जवाब क्या बाबूलाल की साफ छवि से दिया जा सकता है. जवाब दिया गया तो वो कितना प्रभावी रहा. ये भी देखना चाह रही है.
राज्यसभा सांसद दीपक प्रकाश को क्यों हटाया गया
पार्टी के एक प्रवक्ता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, हमलोग उन्हें चांदनी चौक टू चाइना प्रेसिडेंट कहते रहे हैं. बता दें रांची के कांके इलाके में एक चौक है जिसका नाम चांदनी चौक है.
वो आगे कहते हैं, किसी मोहल्ले में लड़ाई हो या चीन या पाकिस्तान के मसले पर कुछ बोलना हो, अध्यक्ष जी खुद ही सभी मामलों में प्रेस कॉन्फ्रेंस करते रहते थे.
दूसरी सबसे बड़ी बात ये थी कि रांची के बाहर से आए पार्टी के किसी कार्यकर्ता की रांची स्थित पार्टी मुख्यालय में किसी तरह की कोई इज्जत या तवज्जो नहीं दी जाती थी. ये एक खास वजह है कि मेरा बूथ सबसे मजबूत कार्यक्रम झारखंड में कोई खास सफलता लिए नहीं चल रही है.
तीसरी वजह के बारे में गढ़वा के एक बीजेपी नेता ने दिप्रिंट के साथ अपना अनुभव साझा किया. उन्होंने कहा, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को कम से कम जिला स्तर पर जितने पदाधिकारी हैं, उनको नाम और चेहरे से पहचानना चाहिए. लेकिन हमारे पुराने अध्यक्ष से मिलने जब मैं एक बार रांची गया तो मुझे अपना नाम और पद उनको बताना पड़ा. आप समझ सकते हैं आम कार्यकर्ताओं के साथ उनका कैसा संबंध रहा होगा.
जिस दिन बाबूलाल मरांडी को अध्यक्ष बनाया गया और बाबूलाल का ढोल-नगाड़ों के साथ पार्टी ऑफिस में स्वागत किया जा रहा था. ठीक उसी वक्त पूर्व अध्यक्ष दीपक प्रकाश अपने घर के टेरेस पर अकेले बैठे हुए थे. दो बल्ब जल रहे थे और वो चुपचाप आसमान को निहार रहे थे.
घुमड़ते बादलों और रिमझिम बारिश के बीच राज्य में मानसून ने भले ही अब तक रफ्तार न पकड़ी हो, लेकिन राजनीतिक मानसून बरसने को तैयार हैं.
झारखंड मुक्ति मोर्चा के राज्यभर के नेताओं की बैठक हो चुकी है. जेएमएम ने साफ कहा कि वह बड़े भाई की भूमिका में रहेगा.
इधर बाबूलाल मरांडी के ऊपर शिथिल पड़ चुके बीजेपी को साइकिल के सफर से हवाई जहाज के सफर तक ले जाने की जिम्मेदारी है. क्या पूर्व सीएम रघुवर दास, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश और केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा बाबूलाल को सपोर्ट करेंगे, जिसके बूते बीजेपी लोकसभा और विधानसभा की नैया पार कराने की तैयारी करे.
(आनंद दत्त स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @DuttaAnand है.)
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