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Friday, 22 November, 2024
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‘इंडिया वीज़ा नहीं देता कफन क्या देगा’, JNU में नैरेटिव को सेट करने में असफल रही फिल्म ‘72 हूरें’

मौलवी साहब ने यकीन दिलाया है कि सवाब कमाने से जन्नत में 72 हूरों के साथ मौत के बाद की ज़िंदगी अय्याशियों में कटेगी और इसी मृगतृष्णा की तलाश में दोनों दुनिया में घूम रहे हैं और पाकिस्तानी हुकूमत द्वारा शरीर को अपनाए जाने के ख्वाब संजोते रहते हैं.

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नई दिल्ली: जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का माहौल मंगलवार को बेहद अलग नज़र आया. विश्वविद्यालय उन बदलावों को जी रहा था, जिनकी यहां कभी कल्पना भी नहीं की जाती थी. कन्वेंशन सेंटर ‘‘जय श्री राम’’, ‘‘हर-हर महादेव’’ और ‘‘नंद के आनंद जय विवेकानंद’’ के नारों से गूंज रहा था और माथे पर केसरी तिलक लगाए गले में गमछे लपेटे हुए स्टूडेंट्स कथित विवादित फिल्म ‘‘72 हूरों’’ की स्पेशल स्क्रीनिंग के लिए इकट्ठा हुए थे.

फिल्म की शुरुआत से पहले निर्माता अशोक पंडित ने कहा, ‘‘जेएनयू में आज वो नारे गूंज रहे हैं, जो कभी गायब हो गए थे’’, तो वहीं फिल्म में एक अहम किरदार निभा रहे अभिनेता पवन मल्होत्रा ने ‘‘जय हिंद’’ का नारा बुलंद करते हुए कहा कि कुछ लोगों को इससे दिक्कत है.

वामपंथियों के गढ़ की फेहरिस्त में शुमार किए जाने वाले विश्वविद्यालय के कन्वेंशन हॉल में बीती शाम पैर रखने तक की जगह नहीं थी, जहां दो बार के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता संजय पूरन सिंह की फिल्म की स्क्रीनिंग थी, जिसमें इस्लाम धर्म की उस कथित मान्यता की मौत के बाद ‘‘जन्नत में 72 हूरें उनका इस्तकबाल करेंगी’’, को खारिज किया गया है. फिल्म की स्क्रीनिंग विवेकानंद विचार मंच द्वारा करवाई गई थी.

ये फिल्म देशभर के सिनेमाघरों में सात जुलाई को लगभग दस भाषाओं में रिलीज़ होने वाली है. इससे पहले 2019 में गोवा के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया (FICCI) में इंडियन पैनोरमा सेक्शन के तहत 72 हूरें का प्रीमियर हुआ था. इस दौरान इसे अवार्ड भी दिया गया था.

हालांकि, फिल्म के जरिए उस संदेश को फैलाने की कोशिश की गई है कि इस्लाम में काफिरों को मारने, अल्लाह की राह पर चलने जिहाद करने से अल्लाह खुश नहीं होंगे. रिलीज़ से पहले फिल्म विवादों में घिर गई है. एक वर्ग इसे प्रोपेगेंडा बता रहा है तो वहीं, एक वर्ग पूरी तरह से इसके समर्थन में उतरा हुआ है.

ये कहानी भी दो कथित विवादित फिल्मों ‘‘द केरला स्टोरी’’ और ‘‘द कश्मीर फाइल्स’’ की तरह इस्लाम में व्याप्त कथित मान्यताओं पर प्रहार करने वाली पंक्ति में शुमार है, लेकिन इसमें निहित संदेश को दूर तलक फैलाने में निर्माता-निर्देशक खरे नहीं उतर पाए हैं.


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‘हमें जन्नत कैसे मिलेगी’

युवाओं के ब्रेन वॉश के इर्द-गिर्द घूमने वाली ये कहानी कुछ यूं शुरू होती है…मदरसे में मौलवी के भाषण से प्रभावित, हाकिम और बिलाल दो आतंकवादी मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर आत्मघाती हमला (26/11) करने के बाद जन्नत की हूरों के इंतज़ार में दर-दर भटक रहे हैं. फ्लैश फॉरवर्ड में चलती हुई ये फिल्म मौत के दूसरे दिन से 167वें दिन, दोनों के शरीर को भारत सरकार द्वारा दफनाए जाने तक चलती है.

हूरों का अर्थ अप्सरा होता है, इस्लामिक स्कॉलर शोएब जमई की मानें तो कुरान और हदीस में हूरों का ज़िक्र है- जैसे स्वर्ग में अप्सराएं होती हैं तो जन्नत में हूरें होती हैं.

हाकिम और बिलाल को मौलवी साहब ने पक्का यकीन दिलाया है कि सवाब कमाने से मौत के बाद ज़िंदगी जन्नत में 72 हूरों के साथ अय्याशियों में कटेगी और इसी मृगतृष्णा की तलाश में दोनों दुनिया में घूम रहे हैं और पाकिस्तानी हुकूमत द्वारा शरीर को अपनाए जाने के ख्वाब संजोते रहते हैं.

‘‘इंडिया वाले वीज़ा नहीं देते कफन क्या देंगे’’, दोनों मुंबई में खड़े सोच रहे हैं कि कुछ दिन भारत में बिता लेते हैं फिर पाकिस्तान के लोग उन्हें ले जाएंगे. इस बीच स्क्रीन पर एक संदेश दिखता है कि हुकूमत ने इस आत्मघाती हमले में अपनी संलिप्तता से इनकार कर दिया है और भारत सरकार ने दोनों के शरीर को गुपचुप तरीके से कहीं दफनाने के लिए भेज दिया है.

जिस बस में हाकिम और बिलाल अपने ताबूत के ऊपर बैठे बातें कर रहे होते हैं और उस ड्राइवर का ध्यान एक महिला की नग्न तस्वीर पर जाता है, जिस कारण हादसा होने से बस में आग लग जाती है, बिलाल परेशानी से चिल्लाता है ‘‘हम दोनों मुसलमान है हमारे शरीर को दफनाया जाता है जलाया नहीं…हमें जन्नत कैसे मिलेगी’’. तभी बारिश होने लगती है और एमसीडी वाले दोनों को वहीं दफना देते हैं.

हालांकि, इस बीच कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं, जिससे उन्हें उनके किए पर पछतावा होने लगता है.

कुछ दिन बीत जाने के बाद वहां, कथित हिंदू समर्थक और पत्रकार पहुंचते हैं जिन्हें पता लगता है कि दोनों आतंकियों को यहां दफनाया गया है और खुदाई के दौरान शव वहां से गायब होते हैं. तभी दो नए किरदार जुड़ते हैं, जिनसे ‘‘बिनोद ज़रूर वाकिफ होगा’’ जो मौलवी से पूछता है – ‘‘तुम्हारे मज़हब के एक व्यक्ति का शीस हमारे पास है, ISIS के किसी बंदे को जानते हो’’ इस बीच पुलिस को इसकी खबर लगती है दोनों के शरीर को बिनोद समुद्र में फेंक देता है, जहां से पुलिस उन दोनों को इस्लामिक प्रक्रिया के हिसाब से दफना देती है. तभी स्क्रीन पर कुरान का एक संदेश दिखाया जाता है ‘‘मासूमों की जान लेने से अल्लाह खुश नहीं होते’’. 

कोई सिनेमा लंबे समय तक असर छोड़े, ऐसा बॉलीवुड फिल्मों में अब कम ही नज़र आता है. बड़े पर्दे पर वीएफएक्स के चलन के ज़माने में हाल ही में आई फिल्म ‘‘भीड़’’ की तरह ब्लैक एंड व्हाईट अंदाज़ और एनिमेशन का प्रयोग सिनेमा प्रेमियों को कुर्सी की पेटी बांधे रखने में ज़रा कमज़ोर दिखाई पड़ता है, बहुत जगह प्रतीकों, प्रतिबिंबों का इस्तेमाल भी किया गया है- जैसे भूतों के पीछे कुत्तों को दौड़ाना, आत्माओं का अजन्मे बच्चे से घबराना.

‘सलीम लंगड़े पे मत रो’, ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘ग्रहण’ वेब सीरीज़ से अपनी एक्टिंग का लोहा मनवा चुके अभिनेता पवन मल्होत्रा के पंजाबी अंदाज़ में कहीं-कहीं फिल्म में आपको हंसी आ सकती है, लेकिन इसके डायलॉग और कहानी को कहने के तरीके को लेकर इस फिल्म को देखने वाले लोगों का भी मानना था कि डायरेक्टर ‘‘नैरेटिव’’ सेट करने में असफल रहे.

अभिनेता बशीर अपनी एक्टिंग से दर्शकों को कुछ देर बांध सकते हैं, लेकिन उन्हें बहुत ज्यादा परेशान दिखाया गया है. फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान बार-बार ‘‘जय श्री राम’’ के नारे भी लगते रहे थे.

जेएनयू के ही एक छात्र अनुभव शिवाल ने दिप्रिंट से कहा, ‘‘हर बार की तरह यहां भी सेक्युलरिज्म को दिखा दिया गया. कट्टरता की बात होने पर कट्टरता का रूप दिखाना चाहिए.’’ उनका कहना था कि कहानी को दिखाने का तरीका थोड़ा अलग होना चाहिए था. ‘‘मौत के बजाए कहानी ज़िंदा होने और आतंकवाद की राह को छोड़कर आम ज़िंदगी में लौटने पर बनती तो ज्यादा अच्छा होता.’’

गौरतलब है कि सेंसर बोर्ड (सीबीएफसी) ने इस फिल्म के ट्रेलर को आपत्तिजनक मानते हुए इसे सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया था, ऐसे में फिल्म के ट्रेलर को डिजिटली रिलीज़ किया गया.

बता दें कि इससे पहले जेएनयू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आधारित डॉक्युमेंट्री और द केरला फाइल्स की स्क्रीनिंग के दौरान जमकर हंगामा हुआ था, लेकिन 72 हूरों के दौरान इस तरह की किसी घटना की जानकारी सामने नहीं आई.

इस बीच, सय्यद अरिफाली महम्मोदाली नाम के एक व्यक्ति ने मुंबई के गोरेगांव थाने में फिल्म 72 हूरें के निर्देशक और निर्माता के खिलाफ ‘‘उनके धर्म का अपमान करने, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने, भेदभाव, नफरत को बढ़ावा देने और जनता के बीच मुस्लिम समुदाय की छवि खराब करने’’ के लिए शिकायत दर्ज कराई है.

फिल्म की को-प्रोड्यूसर किरण डागर से पूछे पर कि जेएनयू ही फिल्म को दिखाने का पहला विकल्प क्यों था, उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, ‘‘ऐसे कईं विश्वविद्यालय हैं, जहां छात्र आते हैं, पढ़ते हैं, चले जाते हैं, जबकि जेएनयू के छात्र आंदोलनों को को दिशा देने के लिए जाने जाते हैं.’’

निर्माता अशोक पंडित ने कहा, ‘‘फिल्म की शूटिंग के पहले दिन तय किया गया था कि इसकी पहली स्क्रीनिंग जेएनयू में की जाएगी.’’

वहीं, एसएफआई (स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया) ने स्क्रीनिंग की निंदा की और अपने बयान में कहा, ‘‘हम तथ्यों के नाम पर झूठ फैलाने और कैंपस को सांप्रदायिक बनाने की विवेकानंद विचार मंच की रणनीति को खारिज करते हैं.’’

रिलीज़ से पहले उठ रहे विवादों के बारे में उन्होंने कहा, ‘‘जो लोग इसे प्रोपेगेंडा बता रहे हैं, वो खुद सबसे बड़े प्रोपेगेंडा हैं. पंडित ने पीएम मोदी के दिन की एससीओ बैठक के बयान का संदर्भ देते हुए कहा, ‘‘आंतकवाद के खिलाफ पूरा देश लड़ रहा है और ये फिल्म इस लड़ाई में योगदान दे रही है.’

जामिया मिल्लिया इस्लामिया के एक छात्र अमित कुमार सिंह ने कहा, ‘‘फिल्म का मैसेज कि जिहाद की राह पर चलने से हूरें नहीं मिलेंगी ये बहुत बेहतरीन था और अगर इस तरह की कोई चीज़ है भी तो वो अच्छे काम से हासिल होगी. इससे समाज को अच्छा संदेश गया है.’’

एक अन्य छात्र आर्यन ने दिप्रिंट से कहा, ‘‘फिल्म को देखने के बाद कंट्रोवर्सी पर चर्चाएं बंद हो जाएंगी.’’

इस दौरान मल्होत्रा पत्रकारों के सवालों से हल्का नाराज़ होते नज़र आए. उनसे जब इस फिल्म के कारण के बारे में पूछा गया तो उन्होंने तल्ख आवाज़ में एक महिला पत्रकार से कहा- ‘‘आप तय करेंगी कि मैं कौन सी फिल्म करूंगा.’’

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘‘फिल्म 2019 में भी तैयार थी, लेकिन कोरोना और कुछ अन्य कारणों से रिलीज़ में देर हुई है. मैं आर्टिस्ट हूं और जो कहानी मुझे पसंद है मैं उसे सुनाता हूं.’’


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