scorecardresearch
Wednesday, 20 November, 2024
होमराजनीतिवारकरी सिर्फ भक्ति की ओर देखते हैं जबकि राजनेता वार्षिक 'वारी' तीर्थयात्रा को एक 'मार्केटिंग' समझते हैं

वारकरी सिर्फ भक्ति की ओर देखते हैं जबकि राजनेता वार्षिक ‘वारी’ तीर्थयात्रा को एक ‘मार्केटिंग’ समझते हैं

राजनीति से दूर और खुद को किसी जाति का नहीं मानने वाले वारकरी संप्रदाय की ओर राजनीतिक दल काफी उत्साह से देख रहे हैं. बीआरएस प्रमुख केसीआर से लेकर शिंदे सरकार तक ने इन तीर्थयात्रियों के लिए स्वास्थ्य बीमा की घोषणा की है.

Text Size:

पंढरपुर: मुंबई के रहने वाले पेशे से एक इंजीनियर, एक किसान, एलपीजी सिलेंडरों का एक विक्रेता, एक छात्र और एक गृहिणी उन वारकरियों में शामिल थे, जो “मौली मौली (भगवान)” के मंत्रों का उच्चारण करते हुए 250 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के पंढरपुर पहुंचे. ये तमाम लोग अभंग (भक्ति गीत) गा रहे थे तथा पारंपरिक वाद्ययंत्र ताल और मृदंगम बजा रहे थे.

यह ‘वारी’ की स्थापना थी जो तीर्थयात्रियों द्वारा की जाने वाली वार्षिक तीर्थयात्रा है, जिन्हें वारकरी भी कहा जाता है. तीर्थयात्रा, जो जून की शुरुआत में पुणे के आलंदी और देहू से शुरू हुई और आषाढ़ी एकादशी (गुरुवार) को पंढरपुर के विठ्ठल-रुक्मिणी मंदिर में समाप्त हुई. इस साल तेलंगाना की पार्टी भारत राष्ट्र समिति ( बीआरएस) ने इस यात्रा से राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास किया.

‘वारी’ के दौरान बीआरएस प्रमुख और तेलंगाना के सीएम के.चंद्रशेखर राव की उपस्थिति ने राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरीं. साथ ही एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार ने भी अपनी ताकत दिखाने के प्रयास किए. पुणे जिले के आलंदी में लगी भीड़, जहां से ‘वारी’ शुरू होती है, और वारकरियों को रोकने की कोशिश कर रही पुलिस का वीडियो जब वायरल हुआ तो यह राज्य में मौजूद विपक्षी पार्टियों को हमला करने का एक मौका दे दिया. 

Lord Vitthal & Rukhmai idols | Purva Chitnis | ThePrint
भगवान विट्ठल और रुखमाई की मूर्तियां | फोटो: पूर्वा चिटणीस | दिप्रिंट

सभी राजनीतिक पार्टियां वारकरियों को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं. इसका एक कारण यह है कि यह समुदाय महाराष्ट्र के ही एक हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है. इसके अनुयायी जाति, लिंग और वर्ग से ऊपर उठकर संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव, एकनाथ और मुक्ताबाई के प्रति अपनी भक्ति दिखाते हैं. वारकरी किसी विशेष जाति या धर्म के अनुयायी नहीं हैं.

सफेद कपड़े पहने और ‘माउली’ छपी टोपी पहने बाबासाहेब चोरघे ने कहा, “यहां कोई जाति-आधारित मतभेद नहीं हैं. सहिष्णुता और समावेशिता ही ‘वारी’ का सार है. ठीक वैसे ही जैसे सूरज की रोशनी हर किसी के लिए होती है और बारिश की बूंदों में किसी का हिस्सा नहीं होता. यहां न तो कोई पुरुष है, न स्त्री, न कोई ऊंची जाति, न कोई निचली जाति. हम सभी सिर्फ वारकरी हैं.” 

किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध न होना और किसी जाति से भी कोई संबंध नहीं करने का दावा करते हुए, वारकरी कहते हैं कि उनकी जड़ें भक्ति आंदोलन में हैं, जो समाज द्वारा लगाए गए नियमों और अनुष्ठानों को लांघते हुए भगवान के साथ सीधे जुड़ने की इच्छा को सपोर्ट करता है.

चोरघे, जो सतारा जिले के कराड के रहने वाले हैं और मुंबई में एक मेडिकल कंपनी के लिए डिलीवरी पार्टनर के रूप में काम करते हैं, ने कहा कि उन्होंने आठ साल की उम्र में अपनी पहली ‘वारी’ शुरू की थी. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ”यह मेरा 47वां साल है.”

माना जाता है कि ‘वारी’ की वार्षिक तीर्थयात्रा 13वीं शताब्दी में भगवान विट्ठल और उनकी पत्नी रुक्मिणी की पूजा करने के लिए संत डायनानेश्वर की अलंदी से पंढरपुर की तीर्थयात्रा के साथ शुरू हुई थी. स्थानीय पुलिस के मुताबिक, चोरघे की तरह, पूरे महाराष्ट्र से लगभग 15 लाख श्रद्धालु इस वर्ष आषाढ़ी एकादशी तक 21 दिनों तक “भक्ति में डूबने” के लिए इस तीर्थयात्रा में शामिल हुए.

इस बार पंढरपुर तीर्थयात्रा मार्ग पर हर जगह राजनीतिक दलों द्वारा लगाए गए बैनर, पोस्टर, होर्डिंग्स से भरा हुआ था. इन बैनरों में राजनीतिक दलों के नेताओं को तीर्थयात्रियों के वेश में वारकरियों का स्वागत करते हुए दिखाया गया है.

राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश बल के अनुसार, ‘वारी’ में राजनेताओं की भागीदारी का पता पिछले दशक से लगाया जा सकता है.

उन्होंने कहा, “वारी या वारकरियों का किसी भी धर्म से कोई लेना-देना नहीं था. लेकिन हिंदुत्व नेताओं का ‘वारी’ में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना उनके बीच हिंदुत्व फैलाने की कोशिश जैसा लगता है. दशकों से राज्य सरकार वारकरियों के लिए सुविधाएं प्रदान करती रही है और यहां तक की मुख्यमंत्री भी पूजा करते थे. लेकिन, पहले सरकार की भागीदारी केवल यहीं तक सीमित थी.”

बल ने कहा कि राजनेताओं के लिए, वारकरी केवल एक वोट बैंक है. उन्होंने कहा, “यही कारण है कि जहां तक नजर जाती है, वहां तक राजनीतिक दलों के बैनर और पोस्टर देखे जा सकते हैं. कुछ साल पहले तक ऐसा नहीं था”.

हालांकि, चोरघे के अनुसार, “ये राजनेता केवल अपनी मार्केटिंग कर रहे हैं. यह उनके लिए सिर्फ बिजनेस है. और वारकरी व्यवसाय से दूर रहते हैं.”

‘पैरों में दर्द नहीं होता क्योंकि भक्ति सर्वोपरि है’

‘वारी’ आषाढ़ महीने (हिंदू कैलेंडर का चौथा महीना) के पहले सप्ताह में, पुणे के पास के कस्बों आलंदी और देहू में भगवान विट्ठल के मंदिर से शुरू होती है.

वारकरी एक मिश्रित जनसांख्यिकीय है और इसमें वरिष्ठ नागरिकों के अलावा माता-पिता के साथ बच्चे भी शामिल होते हैं. इसमें शामिल सभी लोग सभी साधारण कपड़े पहनते हैं जिसमें एक बुनियादी सूती कुर्ता या साधारण साड़ी और काफी कम आभूषण. इसमें शामिल लोग कभी भी अपनी सामाजिक और वित्तीय स्थिति को दर्शाता नहीं है.

वे कहते हैं, जब वे ‘वारी’ शुरू करते हैं, तो वे अपनी सभी सांसारिक परेशानियों को एक तरफ रख देते हैं. उनके सामने एकमात्र काम घाटों तक पहुंचना है. वह चिलचिलाती गर्मी और कभी-कभी भारी बारिश के बीच भी पैदल यात्रा करते हैं.

Sitaram Bhendekar & Yogiraj Lokhande on mridangam and tal | Purva Chitnis | ThePrint
मृदंगम और ताल पर सीताराम भेंडेकर और योगीराज लोखंडे | फोटो: पूर्वा चिटणीस | दिप्रिंट

मुंबई स्थित वारकरी नरेंद्र कीर्तिकर कहते हैं, “तीन दिन से गर्मी से हमारी त्वचा झुलस रही थी. मुझे लगा कि मैं अब नहीं चल पाऊंगा, लेकिन चौथे दिन बारिश शुरू हो गई और मैं नए जोश के साथ चलता रहा. मेरे पैरों में दर्द नहीं होता क्योंकि भक्ति सर्वोपरि है. आपको ऐसा अनुभव कहीं और नहीं मिल सकता है.” नरेंद्र कीर्तिकर ने अलंदी से अपनी तीर्थयात्रा शुरू की थी.

‘वारी’ का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा मंदिर ट्रस्टों द्वारा आयोजित संतों की पालकी होती है, जिसका अनुसरण कई दिंडी (जुलूस) करते हैं. मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया है कि इस साल वारी में 43 पालकी थी. लेकिन सबसे पुरानी और सबसे पूजनीय ज्ञानेश्वर और तुकाराम की पालकी हैं जिनमें उनकी पादुकाएं (उनके पैरों का प्रतिनिधित्व) रखी रहती हैं.

पिछले गुरुवार को एक हाथ में एकतारी वीणा और उनके माथे पर काला टीका लगाए हजारों भक्त भगवान के नाम का जाप करते हुए पंढरपुर के मंदिर में प्रवेश किया. इसमें से अधिकतर ग्रामीण महाराष्ट्र से आते हैं. ये सभी “मौली मौली, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव, एकनाथज्ञानेश्वर, तुकोबा मौली का जाप कर रहे थे”.

कई महिलाएं पारंपरिक नौ गज की साड़ी पहनकर ‘वारी’ में चल रही थी और भगवान विट्ठल, संत ज्ञानेश्वर और तुकाराम के अभंग गा रही थी. साथ ही कुछ फुगड़ी (हाथों को बंद करके और घेरे में घूमते हुए) बजाते हुए चल रही थी. कुछ लोगों ने अपने सिर पर तुलसी वृन्दावन (तुलसी का पौधा) रख लिया था.

A Warkari couple on their way to Pandharpur | Purva Chitnis | ThePrint
पंढरपुर की ओर जाते एक वारकरी दंपती जा रहे हैं | फोटो: पूर्वा चिटणीस | दिप्रिंट

‘वारी’ में भाग लेने के लिए जालना से आईं रोहिणी जंबले ने कहा, “यह रुख्मई (रुक्मिणी) का प्रतीक है, इसलिए सम्मान के प्रतीक के रूप में हम इसे कभी भी नीचे नहीं रखते हैं या इसे अपनी बाहों में भी नहीं रखते हैं.” एक किसान जंबले ने कहा, “हम इसे बस एक सिर से दूसरे सिर तक पहुंचाते हैं.”

इसके बाद वारकरी अपने भगवान के दर्शन से पहले स्नान के लिए चंद्रभागा नदी के तट पर पहुंचे, जहां भगवान विट्ठल और रुखमाई का मंदिर स्थित हैं.

दिप्रिंट ने जिन तीर्थयात्रियों से बात की, वे दो या तीन दशकों से ‘वारी’ कर रहे थे- जो एक वार्षिक पारिवारिक परंपरा है.

जालना के इकसठ वर्षीय हरिकिशन भटकल, जो ‘एलपीजी सिलेंडर बेचते हैं’, ने कहा कि उन्होंने अपने चाचा और दादा के कारण ‘वारी’ चलना शुरू किया. अपने 35वें वर्ष में, इस बार उनके साथ उनका बेटा भी शामिल हुआ.

मुंबई के 22 वर्षीय इंजीनियरिंग छात्र विशन बाविस्कर, वारकरी परिवार में पहली बार पैदा हुए थे. बाविस्कर, जिन्होंने ‘वारी’ पर चलते समय बीमारी से भी लड़ाई लड़ी, ने कहा, ”मैं अपनी पढ़ाई के कारण पहले इसमें शामिल नहीं हो सका. जब मैं 70-75 साल के एक बूढ़े आदमी को चलते हुए देखता हूं, तो मुझे एहसास होता है कि सीखने के लिए बहुत कुछ है, मैंने जीवन में शायद ही कुछ किया हो.”

‘हमारे समुदाय में राजनीति नहीं चलती’

पिछले साल प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने देहु में तुकाराम के मंदिर में एक चट्टान मंदिर का उद्घाटन किया था. इस एक आउटरीज के रूप में देखा गया था.

इस बार, एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार ने वारकरियों के लिए एक बीमा योजना की घोषणा की. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक यह तीर्थयात्रा की अवधि को कवर करती है और तीर्थयात्रियों को विभिन्न मदों के तहत दावे प्रस्तुत करने की अनुमति देती है.

सीएम शिंदे, जिन्होंने आषाढ़ी एकादशी पर पंढरपुर का दौरा किया और मंदिर में पारंपरिक पूजा की, सोमवार को ‘तैयारियों का निरीक्षण’ करने के लिए इस मंदिर शहर का दौरा किया.

मंदिर के पास पुलिस के अनुसार, कानून और व्यवस्था बनाए रखने और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पंढरपुर में लगभग 7,000 महाराष्ट्र पुलिस कर्मियों को तैनात किया गया था.

इस बीच, महाराष्ट्र में अपनी पार्टी का विस्तार करने की कोशिश कर रहे तेलंगाना के सीएम केसीआर ने मंगलवार को पंढरपुर का दौरा किया. उन्होंने मंदिर शहर में एक सार्वजनिक सभा को भी संबोधित किया, लेकिन हेलीकॉप्टर से वारकरियों पर फूलों की पंखुड़ियां बरसाने के उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया.

30 वर्षीय किसान और संगीतकार तथा दिंडी में ढोल बजाने वाले सीताराम भेंडेकर ने दिप्रिंट को बताया, “हम सिर्फ मौली के बच्चे हैं. हमारे समुदाय में राजनीति काम नहीं करती. हम यहां भक्ति के कारण आए हैं.”

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: औरंगाबाद शहर का नाम भले ही बदल गया हो, लेकिन औरंगजेब को लेकर महाराष्ट्र में राजनीति अभी भी बरकरार है


 

share & View comments