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Sunday, 24 November, 2024
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रूस-यूक्रेन युद्ध की आंखों देखी कहानी, सैन्य अधिकारी से हुई थी गूगल ट्रांसलेशन से बातचीत

रूस-यूक्रेन युद्ध को शुरू हुए अब करीब एक महीना बीत चुका था. युद्ध से जुड़ी अधिकतर जानकारी और रिपोर्ट्स यूक्रेन और पश्चिमी मीडिया के हवाले से ही ज्यादा आ रही थीं.

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यूक्रेन सीमा से सटे रूस के रोस्तोव-ऑन-डॉन शहर से रेडियो कैब के जरिए हम वॉर जोन जाने की तरफ बढ़ चुके थे. जैसाकि हमें बताया गया था कि रोस्तोव से करीब 135 किलोमीटर की दूरी पर डोनेत्स्क बॉर्डर था, जहां से डोनबास के इलाके में दाखिल हुआ जा सकता था. कुछ साल पहले तक डोनबास यूक्रेन का हिस्सा था. लेकिन डोनबास के अलगाववादी संगठनों और विद्रोहियों ने रूस के साथ मिलकर इस इलाके को लगभग आजाद करा लिया था. रूसी सीमा से सटे इलाकों में तो मिलिशिया और रूस की सेना का ही एकच्छत्र राज चलता था. यूक्रेन के समय से ही यहां बॉर्डर आउट पोस्ट यानी सीमा चौकी थी.

रूस की यह आधिकारिक बॉर्डर पोस्ट थी, जहां कभी रूस से यूक्रेन और यूक्रेन से रूस लोग आवाजाही कर सकते थे. यह बॉर्डर आउट पोस्ट ठीक भारत-पाकिस्तान के बीच अटारी-वाघा बॉर्डर जैसी थी या फिर जैसा मैंने भारत-बांग्लादेश सीमा पर देखी थी, जहां दर्जनों की संख्या में लोग अपने पासपोर्ट और दूसरे जरूरी दस्तावेजों के साथ एक देश से दूसरे देश जा सकते हैं. सीमा सुरक्षा बलों के साथ-साथ यहां कस्टम और इमीग्रेशन की सुविधा भी होती है, ताकि गैर-कानूनी आवाजाही और बॉर्डर क्राइम को भी रोका जा सके. लेकिन डोनबास प्रांत के दो मुख्य इलाके, डोनेत्स्क और लुगांस्क (लुहान्स्क) अब लगभग आजाद हो चुके थे और यहां रूस समर्थित मिलिशिया सरकार स्थापित हो चुकी थी. इन्हीं दोनों प्रांत के नाम से डोनबास के दो बड़े शहर भी हैं, यानी डोनेत्स्क और लुहान्स्क. मारियुपोल शहर भी अजोव सागर से सटा डोनबास का ही बड़ा पोर्ट सिटी है.

जिस डोनेत्स्क बॉर्डर पर हम पहुंचे थे, वहां रूसी सैनिकों और अधिकारियों के साथ-साथ डोनेत्स्क मिलिशिया के अधिकारी भी मौजूद थे. यूक्रेन के सैनिकों और अधिकारियों का दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं था. बावजूद इसके सीमावर्ती चौकी पर बेहद कड़ी निगरानी थी. जैसे ही हमारी कैब बॉर्डर पर आकर रुकी, पहले से ही वहां तैनात रशियन सिक्योरिटी फोर्स के अधिकारियों ने हमें तुरंत आगे जाने के लिए इशारा कर दिया. मैं हैरान था कि उन्हें हमारे आने की पहले से ही खबर लग चुकी थी. सीमा पार करने के लिए वहां पहले से लोग अपनी गाड़ियों में बॉर्डर क्रॉस करने का इंतजार कर रहे थे. एक-दो पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बस भी सीमा पार करने के लिए कतार में खड़ी थीं.

डॉन नदी पर बसे रोस्तोव शहर में रूसी सेना के दक्षिणी थिएटर कमांड का हेडक्वार्टर है और वहीं से डोनबास क्षेत्र में चल रहे युद्ध को संचालित किया जा रहा था. मास्को से रोस्तोव पहुंचकर हम जिस होटल में रुके हुए थे, वह थिएटर कमांड मुख्यालय से महज कुछ कदमों की दूरी पर ही था (सुरक्षा कारणों से होटल का नाम उजागर नहीं किया है). होटल में ही रूस के मरीन कमांडो का बेस भी था. हमारे रूम की खिड़की से होटल के पोर्च पर अलग-अलग तरह के कई झंडे लगे हुए थे और उनमें से एक रशियन मरीन फोर्स का था. यही वजह थी कि हमारे होटल में रूसी सेना के अधिकारी अकसर यूनिफॉर्म में घूमते हुए दिख जाते थे. होटल में रुकने के दौरान मैं मजाक में अपने कैमरामैन से कहता था कि ‘ऐसा न हो कि यूक्रेन किसी दिन रूस के सैन्य अड्डे पर हवाई हमला कर दे और कोई मिसाइल इसी होटल पर आकर न गिर जाए. इसलिए हमेशा संभलकर रहना.’


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रूस-यूक्रेन युद्ध को शुरू हुए अब करीब एक महीना बीत चुका था. युद्ध से जुड़ी अधिकतर जानकारी और रिपोर्ट्स यूक्रेन और पश्चिमी मीडिया के हवाले से ही ज्यादा आ रही थीं. भारत के भी अधिकतर मीडिया हाउस यूक्रेन की राजधानी कीव और उससे सटे इलाकों से ही रिपोर्टिंग कर रहे थे. अधिकतर पत्रकार युद्ध शुरू होने के बाद ही कीव पहुंचे थे. एकाध थे, जो युद्ध की आहट लगते ही यूक्रेन पहुंच गए थे और लगातार रिपोर्ताज कर रहे थे. ऐसे में युद्ध की एकतरफा रिपोर्टिंग हो रही थी. रूस का वर्जन कम आ रहा था. ऐसे में यह लगने लगा कि युद्ध यूक्रेन के फेवर में जा रहा है, जबकि भारत सहित पूरी दुनिया जानती थी कि रूस एक महाशक्ति है और उसकी सेना तथा हथियार तो पूरी दुनिया में अपने घातक हमलों के लिए जाने जाते थे. ऐसे में मेरे मीडिया संस्थान ने रूस के नजरिए से रिपोर्टिंग करने के लिए मुझे मास्को के जरिए युद्धभूमि में जाने का आदेश दिया.

मेरे रूस के रास्ते लड़ाई के मैदान में जाकर (रिपोर्टिंग करने) का एक कारण यह भी था कि यूक्रेन की तरफ से जो कवरेज हो रही थी, वह कीव के मेट्रो स्टेशन या फिर सब-वे और अंडरपास में छिपते-छिपाते हो रही थी. एक्चुअल वॉर जोन में कोई रिपोर्टर और कैमरा नहीं था. वह इसलिए था, क्योंकि युद्ध की शुरुआत में यूक्रेन मुख्यत: डिफेंसिव रोल में था. वह रूस के आक्रमण से अपने को बचाने की कोशिश कर रहा था. एक-दो हमलों को छोड़ दें तो रूसी सेना शुरुआत से ही यूक्रेन के मिलिटरी बेस, छावनियों, गन लोकेशन या फिर मिसाइल सिस्टम को ही निशाना बना रही थी. एयरबेस और हैंगर में खड़े लड़ाकू विमान और हेलीकॉप्टर पर भी रशियन फोर्सेज मिसाइल से हमला कर रही थी या फिर बमों की बरसात कर रही थी. ऐसा नहीं था कि रिहायशी इलाकों पर रूसी मिसाइल और बम नहीं गिर रहे थे.
वे इसलिए गिर रहे थे, क्योंकि यूक्रेन ने बड़ी ही चालाकी से अपने हथियारों की लोकेशन अपार्टमेंट, पार्क और थिएटर में कर ली थी. यहां तक कि सैनिकों के बैरक भी किसी स्कूल या फिर धार्मिक स्थानों पर शिफ्ट कर दिए थे. इसके दो फायदे थे. पहला तो यह कि रूसी सेना को यूक्रेनी सेना की लोकेशन ठीक-ठीक नहीं मिल पाएगी और अगर मिल गई तो रूस को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बदनाम करने का मौका मिल जाएगा. हुआ भी कुछ ऐसा ही है. रूस ने यूक्रेनी सेना को तबाह करने के लिए स्कूल या चर्च इत्यादि पर हमले किए तो यूक्रेन ने बड़ी ही चालाकी से ‘विक्टिम कार्ड’ खेलना शुरू कर दिया.
मैंने जब रूस के प्रेस वीजा के लिए अप्लाई किया, तब तक वहां मीडिया पर काफी पाबंदी लग चुकी थी.2 सी.एन.एन. और बी.बी.सी. सहित मुख्यधारा का मीडिया और उनसे जुड़े पत्रकार मास्को छोड़कर वापस अपने देश चले गए थे या फिर दुबई या किसी और देश से रिपोर्टिंग कर रहे थे. दरअसल युद्ध शुरू होने के कुछ दिनों बाद ही रूस ने अपने देश में नया प्रेस कानून जारी किया, जिसमें युद्ध (‘स्पेशल मिलिटरी ऑपरेशन’) से जुड़ी गलत जानकारी छापने या फिर प्रसारित करने की सूरत में पत्रकारों को जेल भी जाने का प्रावधान था. इस कानून के डर से अंतरराष्ट्रीय जगत् (पश्चिमी देशों) के सभी पत्रकार रूस छोड़कर जा चुके थे.
करीब एक दशक से डिफेंस रिपोर्टिंग करने के चलते मुझे इस बात का साफ तौर से अंदाजा था कि युद्ध के मैदान से रिपोर्टिंग करना तब तक संभव नहीं है, जब तक कि आप किसी सेना के साथ ‘एंबेडेड’ नहीं हो जाते हैं. खाड़ी के युद्ध में सी.एन.एन. सहित दूसरे अमेरिकी और पश्चिमी मीडिया हाउस हों या फिर कारगिल युद्ध में स्टार न्यूज (एन.डी.टी.वी.) सभी एंबेडेड होकर ही युद्ध की कवरेज ठीक से कर सकते हैं. इसके बिना युद्ध का मैदान आपके लिए लगभग आउट ऑफ बाउंड्स रहता है. रणभूमि से बहुत दूर ही आपको पुलिस और सेना आगे नहीं बढ़ने देती है.
जब तक कि आर्मी ऑफिसर हमारी कैब की तरफ बढ़ते, मैंने इतनी देर में कैमरामैन को साफ निर्देश दे दिया था कि बेहद सावधानी से कैमरे को रोल रखे. यानी जो भी सवाल-जवाब आर्मी ऑफिसर हमसे करेंगे, हमारे आई-कार्ड और एक्रीडिएशन चेक करेंगे, वह सबकुछ कैमरे में कैद होना चाहिए. यह बिना किसी खुफिया कैमरे के एक बड़े कैमरे से ही स्टिंग ऑपरेशन जैसा होता है. इसमें सामनेवाले को पता ही नहीं चल पाता है कि कैमरामैन के कंधे पर टंगा कैमरा सबकुछ शूट कर रहा है. सामनेवाले का फोकस थोड़ा आउट होता है और वीडियो थोड़ा हिलता-डुलता है, लेकिन टी.वी. पर देखने में ऐसा लगता है कि यह कोई खुफिया शूट है. इसका फायदा यह होता है कि जब आपकी स्टोरी (न्यूज स्टोरी) चैनल पर प्रसारित होती है तो इस तरह के विजुअल से आप अपनी मंजिल तक पहुंचने की यात्रा का वीडियो वर्णन कर सकते हैं और आपकी प्रेजेंस भी संवेदनशील क्षेत्र में हो जाती है. लेकिन कई बार इस तरह के विजुअल का इस्तेमाल स्टोरी से हटा भी देते हैं, क्योंकि इससे सेना की गोपनीयता भंग होने का खतरा रहता है.
सुरक्षा के लिहाज से भी कभी-कभी इस तरह के विजुअल को हटा दिया जाता है. क्योंकि अगर आप अपनी मंजिल तक सही-सलामत पहुंच जाते हैं तो फिर इस तरह के विजुअल की जरूरत नहीं पड़ती है और आप रियल रिपोर्टिंग करने लगते हैं, जिसके लिए आप युद्धभूमि में गए हैं. भारत हो या रूस या फिर कोई और देश, सभी देशों की सेनाओं को अपनी लोकेशन की गोपनीयता बेहद जरूरी होती है. क्योंकि सेना के अधिकतर ऑपरेशंस गोपनीयता पर ही टिके होते हैं. सैटेलाइट, जी.पी.एस. और गूगल-अर्थ के जमाने में भी सेना अपनी लोकेशन से सरप्राइज देने में ज्यादा विश्वास रखती हैं.
कंधे पर ए.के.-47 टांगे जैसे ही एक वरदीधारी हमारी कार की तरफ आया, मैंने अपनी गाड़ी का शीशा नीचे कर दिया और रूसी विदेश मंत्रालय का एक्रीडिएशन कार्ड बाहर निकालकर दिखा दिया. एक्रीडिएशन कार्ड देखते ही नीले रंग की यूनिफॉर्म पहने वो अधिकारी थोड़ा स्तब्ध हुआ और फिर हमारे पासपोर्ट मांगे. कैब ड्राइवर से भी उसने ड्राइविंग लाइसेंस और दूसरे जरूरी कागजात मांगे. उन्हें देखने के बाद उसने ड्राइवर से रूसी भाषा में पूछा कि ‘कहां जाना चाहते हैं?’ ड्राइवर ने जवाब दिया—‘डोनेत्स्क.’ हमारा कैमरा पुलिसकर्मी जैसे दिखनेवाले उस अधिकारी की सब गतिविधि और हमसे हो रही बातचीत रिकॉर्ड कर रहा था.
चंद मिनटों में ही शीशे के दरवाजे से रूसी सेना की हलके ग्रीन रंग की यूनिफॉर्म पहनी एक अधिकारी हमारे पास आने लगा. मेरा शक सही साबित हुआ. डोनेत्स्क पहुंचने से पहले यह पुलिस और सेना की साझा चेकपोस्ट थी. रिहायशी इलाके में सेना अपने आप को कम-से-कम एक्सपोज होने देती है. यही वजह है कि पुलिसकर्मी गाड़ियों को चेक कर रहा था. लेकिन जैसे ही कुछ गड़बड़ लगे तो मामला सेना के हवाले कर दिया जाए. वह सैन्य अधिकारी हमारे एक्रीडिएशन कार्ड और पासपोर्ट शायद पहले ही देख चुका था. उसको गाड़ी की तरफ आता देख मैं भी गाड़ी से बाहर आ गया था. करीब आने पर पता चला कि उसके चेहरे पर हमें देखकर मुसकान-सी आ गई थी. ऐसा देखते ही मैंने हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा दिया. एक सधे हुए आर्मी ऑफिसर की तरह उसने बेहद ही गर्मजोशी से हाथ मिलाया और जानने के बावजूद हमारे यहां आने का मकसद पूछा. मैंने इंग्लिश में कुछ बताना चाहा तो ऐसा लगा कि उसकी समझ में अंग्रेजी थोड़ी कम आ रही है. इसलिए मैंने अपने मोबाइल फोन में ‘गूगल ट्रांसलेशन’ से बताया कि हम विदेश मंत्रालय की परमिशन के बाद यहां पहुंचे हैं और डोनेत्स्क जाना चाहते हैं.
हमसे कम्युनिकेशन आगे बढ़ाने के लिए अब तक ऑफिसर ने भी अपने फोन पर गूगल ट्रांसलेशन एप निकाल लिया था. फर्क सिर्फ इतना था कि मैं इंग्लिश को रूसी भाषा में ट्रांसलेट कर रहा था और वो अधिकारी अपनी मातृभाषा को अंग्रेजी में. थोड़ी-बहुत फॉर्मल बातचीत के बाद उसने लिखा—“डोनेत्स्क में युद्ध चल रहा है…वहां जाकर अपनी जान क्यों जोखिम में डालना चाहते हैं?” मैंने गूगल ट्रांसलेशन में लिखा—“यही तो मेरा काम है.” यह पढ़कर उसने मेरी तरफ देखा, मानो कह रहा हो कि आपकी बातों से मैं इंप्रेस हूं. उसने भी मुझे कुछ देर इंतजार करने के लिए कहा और अपने शीशे के दरवाजों और खिड़कियोंवाले रूम की तरफ बढ़ने लगा. मैंने उसे रोककर इशारे से सड़क के दूसरी तरफवाले मोटल के बाथरूम को इस्तेमाल करने की आज्ञा ली. उसने धीरे से हामी भर दी. साथी कैमरामैन इस बातचीत के दौरान कैब की डिक्की के पास खड़ा होकर हमारी बातचीत रिकॉर्ड कर रहा था. बॉर्डर की तरफ जाने के लिए सड़क पर रुकी हुई कारों की सुरक्षा जांच के विजुअल भी कैमरा बना रहा था. मैं सैन्य अफसर से बातचीत के दौरान साफ देख पा रहा था कि कैमरा रोल है.

(‘ऑपरेशन Z लाइव रूस-यूक्रेन युद्ध’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब हार्ड कवर में ₹350 की है.)


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