महात्मा ज्योतिबा फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर, 1890) का बेशक सवा सौ साल पहले निधन हो गया, लेकिन उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं और राष्ट्र जीवन को प्रभावित कर रहे हैं. उनके विचारों के प्रभाव को समझने के लिए अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश डॉ. डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा लिखे गए शबरीमाला मामले में लिखे निर्णय को पढ़ना चाहिए.
अपने निर्णय के पेज नंबर 103-104 पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने महात्मा ज्योतिबा फुले की किताब ‘ग़ुलामगिरी’ और उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले की एक कविता को उद्धृत करते हुए संविधान के अनुच्छेद-17 को परिभाषित किया है और कहा है कि एक असमान समाज में अत्याचार और वंचना के खिलाफ पीड़ितों ने लंबी लड़ाई लड़ी है. अपने फैसले में वे लिखते हैं कि छुआछूत का निषेध करने वाले अनुच्छेद 17 का संविधान में शामिल किया जाना सुधारकों और क्रांतिकारियों के सदियों तक चले संघर्ष को मान्यता देना है.
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अपनी उक्त परिभाषा को आधार बनाकर जस्टिस चंद्रचूड़ ने शबरीमाला मंदिर मामले में महिलाओं के प्रवेश पर रोक को अवैध क़रार दिया है. शबरीमाला का निर्णय आधुनिक भारत में सुप्रीम कोर्ट का शायद पहला ऐसा निर्णय जिसमें फुले दम्पति के विचारों को न्याय की परिभाषा देने का आधार बनाया गया है. हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि फुले दम्पत्ति के विचारों का न्याय और अन्याय पर जजों की समझ पर पहले असर नहीं था, बल्कि इस बार उनको सीधे-सीधे निर्णय में उद्धृत किया गया है.
जस्टिस चंद्रचूड़ अपने फैसले में सावित्रीबाई फुले की एक कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद उद्धृत करते हैं–
Arise brothers, lowest of low shudras
wake up, arise.
Rise and throw off the shackles
put by custom upon us.
Brothers, arise and learn…
We will educate our children
ourselves as well.
We will acquire knowledge
of religion and righteousness.
Let the thirst for books and learning
dance in our every vein.
Let each one struggle and forever erase
our low-caste stain.
लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ महात्मा ज्योतिबा फुले के योगदान को वैश्विक पहचान पिछले वर्ष मिली जब गूगल ने उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले की याद में डूडल बनाया. उस समय लाखों लोगों ने गूगल से सवित्री बाई फुले और उनके योगदान के बारे में जाना.
विदित हो कि महात्मा ज्योतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को न केवल शिक्षा दी थी, बल्कि 1848 में भारत में लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला था, जिसमें फ़ातिमा शेख़ भी एक टीचर थीं. लड़कियों की शिक्षा के अलावा फुले दम्पत्ति ने बाल विधवाओं के लिए भी काफ़ी काम किया था. गर्भवती ब्राह्मण विधवाओं के संतानों के लालन पालन के लिए उन्होंने एक आश्रय गृह भी बनाया.
जातिगत असमानता पर फुले और आम्बेडकर के विचार समान
जातिगत असमानता के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलनों में महात्मा ज्योतिबा फुले के विचारों के प्रभाव का अंदाज़ा सिर्फ़ इससे लगाया जा सकता है कि ख़ुद बाबासाहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर उनको अपने तीन गुरुओं में से एक मानते थे. बाबासाहेब आम्बेडकर ने अपनी किताब ‘शूद्र कौन थे’ महात्मा फुले को समर्पित करते हुए उन्हें आधुनिक भारत का महानतम शूद्र बताया.
बाबा साहेब लिखते हैं कि महात्मा फुले ने निचले वर्ग के हिंदुओं को उच्च वर्ण के हिंदुओं के प्रति की जा रही ग़ुलामी का अहसास कराते हुए यह स्थापित किया कि भारत में सामाजिक लोकतंत्र को स्थापित करना विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी ज़्यादा ज़रूरी है. सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करने की महात्मा फुले की मुहिम का डॉ. अम्बेडकर पर इस क़दर प्रभाव था कि उन्होंने संविधान सभा में 25 नवम्बर 1949 को दिए अपने आख़िरी भाषण में यहां तक आगाह कर दिया था कि बिना सामाजिक लोकतंत्र स्थापित किए, भारत में राजनीतिक लोकतंत्र ढह जाएगा.
उक्त चेतावनी के अलावा, बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपनी किताब ‘रानाडे, गांधी और जिन्ना’ में भी राजनीतिक लोकतंत्र के पहले, सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करने के कारण गिनाए.
भारत में जातिगत असमानता के टिके रहने का कारण, इसका पब्लिक मॉरलिटी में घुस जाना है, जिसकी वजह से लोगों को इस असमानता में कुछ भी बुरा नहीं दिखाई देता है. अतः जाति व्यवस्था को तोड़ने के लिए इस पब्लिक मॉरलिटी को तोड़ना ज़रूरी है.
किसी भी समाज में पब्लिक मॉरालिटी के अलग-अलग स्रोत होते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख स्रोत धर्म और धर्मग्रंथ हैं, ख़ासकर भारत में जहां सब कुछ धर्म के ही आसपास बना हुआ है. महात्मा ज्योतिबा फुले ने पब्लिक मॉरलिटी के स्रोत धर्म ग्रंथों और उनके पात्रों की ख़ूब आलोचना की. इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए बाबा साहेब अम्बेडकर अपनी किताब ‘एनिहिलेशन आफ़ कास्ट’ में जाति तोड़ने के उपाय के तौर पर कहते हैं कि धर्मग्रंथों से छुटकारा पाए बगैर जाति का विनाश संभव नहीं है.
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मान्यवर कांशीराम पर फुले का प्रभाव
महात्मा ज्योतिबा फुले के विचारों का व्यापक प्रभाव बहुजन आंदोलन के प्रणेता मान्यवर कांशीराम पर भी दिखाई देता है. अपने पहले अख़बार ‘द ओप्रेस्ड इंडियंस’ के सम्पादकीय लेखों में कांशीराम प्रो. गेल ओम्बेट द्वारा महात्मा फुले के आंदोलन पर लिखी किताब ‘औपनिवेशिक समाज में सांस्कृतिक क्रांति’ को बार-बार उद्धृत करते हैं.
महात्मा ज्योतिबा फुले ने भले ही अपना आंदोलन पश्चिमी भारत के एक ख़ास हिस्से में ही चलाया हो लेकिन उस समय दुनिया में रंगभेद के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलनों को भी उनका समर्थन था. इसका सबसे अच्छा उदाहरण उनकी किताब ‘गुलामगिरी’ के समर्पण से मिलता है, जिसको कि वो अमेरिका में नीग्रो लोगों (अश्वेत) को ग़ुलामी से मुक्ति दिलाने वाले उन महान श्वेत लोगों के सम्मान में समर्पित करते हैं, जिन्होंने उस लड़ाई में उदारता, निष्पक्षता और आत्मत्याग का परिचय दिखाया था. अपने समर्पण में महात्मा फुले भारतवासियों से अपनी हार्दिक इच्छा व्यक्त करते हुए अपील करते हैं कि यहां भी लोग अमेरिका के लोगों से प्रेरणा लेकर शुद्रों को ब्राह्मणवाद से मुक्ति दिलाएंगे.
महात्मा ज्योतिबा फुले के उक्त विचारों का ही प्रभाव है कि भेदभाव के ख़िलाफ़ जापान, डरबन, मलेशिया आदि जगहों पर हुए सम्मेलनों में दलित आंदोलन भागीदार रहा है. ख़ुद मान्यवर कांशीराम ने जापान में हुए ऐसे सम्मेलन में भागीदारी की थी और वहां से लौटकर आने पर अपने लोगों से दुनियाभर में कहीं पर हो रहे भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की अपील करते हुए भारत में ऐसा सम्मेलन करने की इच्छा व्यक्त की थी.
फुले के आलोचक
आजकल महात्मा ज्योतिबा फुले की किताबों और उनके आंदोलन को विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाना शुरू हुआ है. ऐसे में फुले के विचारों को लेकर कुछ आलोचनाएं भी निकलकर सामने आ रही हैं. उनमें दो प्रमुख आलोचनाएं हैं. पहली, महात्मा फुले उपनिवेशवाद का विरोध नहीं करते. दूसरी, उनकी रचनाएं जाति विशेष को टार्गेट करती हैं.
दोनों आलोचनाओं को देखा जाए तो इनका उद्गम उनकी किताब ‘ग़ुलामगिरी’ से दिखाई देता है. अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में फुले तमाम जगह पर अंग्रेज़ों की तारीफ़ तो करते नज़र आते हैं, लेकिन उनकी यह तारीफ़ मात्र भारतीय समाज में व्याप्त ब्राह्मणवाद को समझने में मदद के लिए हैं. इस आलोचना का दम फुले की दूसरी किताब ‘किसान का कोड़ा’ पढ़ने से निकल जाता है, क्योंकि उसमें वह किसानों पर हो रहे शोषण के लिए तब की सरकार की भी आलोचना करते हैं.
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फुले की दूसरी आलोचना भी ‘गुलामगिरी’ से ही निकलकर आती है, जिसमें वो ब्राह्मणों को टार्गेट करते हुए दिखाई देते हैं. लेकिन यदि फुले की उसी किताब के समर्पण से देखा जाए तो वह भारत के लोगों से ही अपील भी करते हैं कि वो अमेरिका के लोगों से सीख लेते हुए शुद्रों को ब्राह्मणवाद की ग़ुलामी से निजात दिलाने के लिए आगे आएं. फुले की आपील से यह बात साफ़ है कि वो ग़ैर शूद्रों से अपील कर रहे हैं, जिसमें सभी जाति और धर्म के लोग शामिल हैं, ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने किसी जाति विशेष को टार्गेट किया.
(लेखक राजनीति विज्ञान में रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान में पीएचडी कर रहे हैं.)