राजनीति के पर्यवेक्षकों को जो बात बड़ी शिद्दत से महसूस हो रही थी उस पर चुनाव-पूर्व होने वाले सर्वेक्षणों के अंतिम दौर के निष्कर्षों ने मुहर लगा दी है- ऐसे चुनाव सर्वक्षणों में लोकनीति-सीएसडीएस टीम का बहुप्रतीक्षित नेशनल इलेक्शन स्टडी (एनईएस) भी शामिल है. तमाम सर्वेक्षणों बता रहे हैं कि चुनावी मुकाबले की शुरुआती घड़ी में बढ़त एनडीए को हासिल है.
बालाकोट में हुए हवाई हमले के बाद जनमत में महत्वपूर्ण बदलाव आया है. सर्वेक्षण के तथ्य संकेत करते हैं कि मोदी को पसंदीदा प्रधानमंत्री मानने, उनकी सरकार को फिर से सत्ता में आते देखना चाहने तथा अर्थव्यवस्था की हालत बेहतर मानने की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है. इसके साथ ही हिन्दी पट्टी में मतदाताओं की एक बड़ी तादाद बीजेपी के पाले में सरक गई है. लेकिन, सर्वेक्षणों के कुछ तथ्य इस रुझान के विपरीत भी संकेत करते हैं. बेरोज़गारी अब भी लोगों के लिए शीर्ष प्राथमिकता का मुद्दा है. शीर्ष प्राथमिकता के मुद्दों में बालाकोट कहीं भी मौजूद नहीं. लोग मोदी सरकार को दोष दे रहे हैं कि वो बालाकोट हवाई हमलों का फायदा उठा रही है. अलग-अलग मुद्दों पर सवाल करने पर सर्वेक्षण में यह भी आ रहा है कि लोग-बाग मोदी सरकार को बहुत कम नंबर दे रहे हैं.
इन बातों को ध्यान में रखकर अलग-अलग सर्वेक्षणों में सीटों के बारे में अलग-अलग पूर्वानुमान लगाये गये हैं. लोकनीति की टीम ने बीजेपी के खाते में 222-232 सीटें (तथा एनडीए को 263-283) जाती बताई हैं. लोकनीति की टीम का अनुमान है कि कांग्रेस को 74-84 सीटें मिलेंगी (और कांग्रेस नीत गठबंधन को 115-135 सीटें). टीम ने यह अनुमान द हिन्दू, तिरंगा टीवी तथा दैनिक भास्कर के लिए किये गये चुनाव-पूर्व नेशनल इलेक्शन स्टडी सर्वेक्षण के तथ्यों के आधार पर लगाया है. इसी तरह टाइम्स नाऊ-वीएमआर के सर्वेक्षण में एनडीए के खाते में 279 सीटें तथा यूपीए के खाते में 149 सीटें जाती दिखायी गयी हैं. इसका मतलब हुआ कि पिछले एक साल के दरम्यान बीजेपी को 3 प्रतिशत की बढ़त हासिल हुई है जबकि कांग्रेस को 2 प्रतिशत का घाटा हुआ है. एबीपी नील्सन ने प्रुख राज्यों के लिए समान अनुमान लगाया है.
इस आलेख का मकसद इन पूर्वानुमानों को मानने या नकारने का नहीं है. मैं मानकर चलता हूं कि आंकड़ों के साथ कोई झगड़ा नहीं मोल लेना चाहिए बशर्ते जिन पद्धतियों का पालन करते हुए इन आंकड़ों को हासिल किया गया है उस पर शक करने का आपके पास कोई पर्याप्त आधार न हो. आइए, मानकर चलते हैं कि चुनाव की दौड़ शुरू होने के 10 दिन पहले जो सूरत-ए-हाल थे उसका एक प्रतिनिधि चित्र इन चुनाव-सर्वेक्षणों के ज़रिए उभरा है. लेकिन, असल सवाल यह है कि क्या ये तस्वीर सात हफ्ते के बाद के उस वक्त तक भी टिकी रहेगी जब आखिरी चरण के चुनाव सम्पन्न होंगे? सात हफ्ते बाद के वक्त में क्या होगा- क्या बीजेपी के खाते में जा रही सीटें बढ़ती जायेंगी या फिर उनमें कमी आयेगी?
अब जबकि हम सात चरणों के चुनाव में प्रवेश करने जा रहे हैं तो हमें इसको लेकर आठ बातों का ध्यान रखना चाहिए. मैं इन आठ बातों को आपके सामने रखने के लिए लोकनीति टीम के एनईएस को आधार बनाऊंगा. एनईएस को आधार बनाने की वजह यह नहीं कि मैं भी कभी इस बेहतरीन टीम का हिस्सा हुआ करता था, बल्कि वजह ये है कि लोकनीति ने अपने सर्वेक्षण की विस्तृत तालिका सार्वजनिक जनपद में पेश की है, सर्वेक्षण में अपनाई गई शोध-प्रविधि का खुलासा किया है और उन सवालों के बारे में भी बताया है जो सर्वेक्षण में उत्तरदाताओं से पूछे गये. (लोकनीति टीम की रिपोर्ट आप इस लिंक पर देख सकते हैं https://www.lokniti.org/NES2019PREPOLL )
1. क्या बालाकोट का असर ठंडा पड़ेगा?
एनईएस के आंकड़ों से पता चलता है कि पुलवामा-बालाकोट या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा स्वयं में कोई बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं है (केवल 2 प्रतिशत मतदाताओं ने कहा कि वे इस मुद्दे के आधार पर अपना वोट देने का फैसले करेंगे) लेकिन बहुत मुमकिन है कि यह मुद्दा प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की छवि को चमकाने में बड़ा कारगर साबित हुआ हो. सर्वेक्षण में शामिल तकरीबन 79 प्रतिशत मतदाताओं ने बालाकोट पर हुए हवाई हमले के बारे में सुन रखा था और लगभग 50 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बालाकोट पर हुये हमले के लिए मोदी सरकार को श्रेय दिया. एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जिन मतदाताओं ने बालाकोट हमले के बारे में सुन रखा था उनमें मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में पसंद करने वाले ज़्यादा हैं और ऐसे उत्तरदाता मोदी सरकार को अगली बार भी मौका देने के इच्छुक हैं. लेकिन क्या बालाकोट का यह असर चुनाव-प्रचार के धूल-गर्द वाले घमासानी कुछ हफ्तों के बाद भी कायम रहेगा? लोकनीति के सर्वेक्षण के मुताबिक 61 प्रतिशत मतदाताओं का कहना था कि बीजेपी बालाकोट पर हुये हवाई हमले को चुनावी फायदे के लिए भुनाना चाहती है, हालांकि इनमें से तकरीबन 50 प्रतिशत मतदाता मौजूदा सरकार को एक और मौका देने के पक्ष में थे. ऐसे में, क्या प्रधानमंत्री का बारंबार बालाकोट का हवाला देना फायदे की जगह नुकसान का सबब साबित होगा?
2. क्या न्याय (न्यूनतम आय योजना) चुनावी मुद्दे के रूप में जोर पकड़ेगी?
हालांकि कांग्रेस ने न्यूनतम आय गारंटी योजना की औपचारिक घोषणा जिस वक्त की उस समय तक एनईएस का सर्वेक्षण अपने मध्यवर्ती चरण में पहुंच चुका था तो भी एनईएस के तथ्यों से पता चलता है कि लगभग 48 प्रतिशत मतदाताओं को इस योजना की जानकारी थी. चुनाव-प्रचार के बढ़ने के साथ यह तादात और आगे बढ़ेगी. ‘न्याय’ की औपचारिक घोषणा में कुछ देरी तो हुई ही, इसके साथ-साथ कांग्रेस को इस मोर्चे पर दो और बड़ी मुश्किलों से जूझना होगा. एक मुश्किल ये है कि इस योजना का फायदा गरीबों को होना है, लेकिन इसके बारे में जानकारी गरीबों को कम और खाते-पीते लोगों के बीच ज़्यादा है. दूसरी बात ये कि न्याय के बारे में लोगों को जैसे-जैसे जानकारी हुई है कांग्रेस को कुछ फायदा हुआ है (राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी के बीच लोकप्रियता का अन्तर में 9 फीसद की कमी आयी है) लेकिन यह फायदा बालाकोट के मसले पर बीजेपी को हुए फायदे की तुलना में कहीं नहीं ठहरता.
3. क्या बेरोज़गारी के मोर्चे पर बढ़ती चिंता के बावजूद नौजवानों का वोट बीजेपी की तरफ जायेगा?
सर्वेक्षण से दो परस्पर विरोधी तथ्य निकलकर सामने आये हैं. सर्वेक्षण में जब लोगों से पूछा गया कि आप किस एक चीज़ को सबसे अहम मानकर अपना वोट डालने का फैसला करेंगे तो बेरोज़गारी का मुद्दा सबसे अव्वल साबित हुआ. (Table 1a). लगभग 46 प्रतिशत उत्तरदाता (Table 16) सर्वेक्षण में इस बात से सहमत दिखे कि मोदी राज में नौकरी के अवसर घटे हैं तथा 3-4 साल पहले की तुलना में (Table 12) अभी नौकरी तलाश पाना बहुत कठिन हो चला है. नौजवान तथा शिक्षित मतदाता इस विचार से कहीं ज़्यादा तादात में सहमत नज़र आये. लेकिन बीजेपी को नौजवान मतदाताओं के बीच औसत से कहीं ज़्यादा समर्थन मिलता दिख रहा है. ज़ाहिर है, बहुत से नौजवान मतदाता मोदी सरकार को रोज़गारहीनता का दोषी मानकर नहीं चल रहे. लेकिन जब विपक्षी दल रोज़गार के मोर्चे पर मोदी सरकार के रिकार्ड को सामने रखकर आक्रामक प्रचार अभियान चलाएंगे तो क्या नौजवानों का यही रुझान बरकरार रह पायेगा?
4. राज्यों में प्रांतीय सरकारों के प्रति समर्थन का माहौल क्या केंद्र में मौजूद सरकार को दोबारा सत्ता में लाने की भावना पर भारी पड़ेगा ?
नेशनल इलेक्शन स्टडी सर्वेक्षण के तथ्यों से पता चलता है कि पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार के लोकसभा चुनाव में ऐसे मतदाताओं की तादात कहीं ज़्यादा है जो अपना वोट डालते वक्त केंद्र सरकार के कामकाज की समीक्षा करेंगे. विपक्षी दलों के शासन वाले छह राज्यों (पश्चिम बंगाल, ओडिशा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान) में टकराव की स्थिति देखने को मिल सकती है: इन राज्यों में मोदी सरकार तथा प्रांतीय सरकार दोनों ही के पक्ष में माहौल है और मतदाता दोनों ही सरकारों पर ज़ोर देकर चल रहा है. सवाल उठता है, मतदाता वोट डालते वक्त अपने इन दो रुझानों में से किस एक को वरीयता देगा? चुनाव में कांग्रेस का भविष्य इस बात से भी तय होना है.
5. बीजेपी के उम्मीदवारों के प्रति मतदाताओं में नकार का मनोभाव है. क्या बीजेपी इस भाव की धार कुंद कर पायेगी?
पांच राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा दिल्ली) से 16वीं लोकसभा में बीजेपी के सर्वाधिक तादात में सांसद थे और इन राज्यों में मौजूदा सांसदों को लेकर मतदाताओं में गहरे नकार का भाव है. क्या बीजेपी इन सांसदों को तजकर नये उम्मीदवार उतारेगी? या, इन सांसदों को लेकर मतदाताओं का गुस्सा सत्ताधारी पार्टी को सबक सिखायेगा?
6. इस बार का चुनाव किस हद तक कुछ वैसा हो पायेगा जैसा कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव होता है?
बीजेपी ने जी-तोड़ कोशिश की है कि इस बार का चुनावी मुकाबला मोदी बनाम राहुल का बन जाये. और, पार्टी ने जो ऐसा किया है तो फिर उसका कारण भी समझ में आता है. दरअसल, जो लोग उम्मीदवार को देख-भाल कर अपना वोट डालने का फैसला करेंगे उनके बीच एनडीए को बस दो अंकों की बढ़त हासिल है. जो लोग पार्टी को देख-परख कर अपना वोट डालने का फैसला करेंगे उनके बीच एनडीए को तीन अंकों की बढ़त हासिल है. लेकिन तकरीबन 20 फीसद मतदाताओं के बीच, जो पसंदीदा प्रधानमंत्री के आधार पर अपना वोट डालने का फैसला करेंगे, एनडीए को 51 अंकों की बढ़त हासिल है. (Table 15)! सो, लगता तो यही है कि बालाकोट पर हुये हमले ने इस बार के चुनाव पर असर डाला है और प्रधानमंत्री को लेकर अपनी पसंद को आधार मानकर वोट डालने वालों की तादात बढ़ी है. ज़ाहिर है, मोदी को इस मोर्चे पर बढ़त हासिल है. क्या मतदाताओं का यह मनोभाव चुनाव के बढ़ते चरणों के साथ और ज़्यादा गहरा होगा या फिर इसमें कमी आयेगी?
7. कमज़ोर गठबंधन विपक्ष को कितना नुकसान पहुंचायेगा?
अभी तक महागठबंधन बड़ा ढीला-ढाला और स्थानीय स्तर के लचर गठजोड़ के रूप में सामने आया है. हर सर्वेक्षण में एक बात समान रूप से निकलकर सामने आई है कि आपसी तालमेल की कमी के कारण विपक्षी दलों को दर्जनों सीट का नुकसान उठाना पड़ सकता है. कांग्रेस यूपी में अपने बूते बड़ी संख्या में सीट जीतने की हालत में नहीं लेकिन उसके वोट एसपी-बीएसपी की सीटों की संख्या में ज़रूर ही सेंधमारी करेंगे. कांग्रेस के लिए यही बात ओडिशा, पश्चिम बंगाल और दिल्ली में कही जा सकती है और बीएसपी के लिए मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में. बिहार में वामदलों के साथ महागठबंधन की आंशिक सहमति बन पायी है और महागठबंधन को इसका भी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. सवाल उठता है कि क्या गैर-बीजेपी पार्टियां आखिरी वक्त में कोई ऐसा इंतज़ाम कर पायेंगी कि उनके वोट आपस में न बंटे? या फिर, ये होगा कि मतदाता ही भाजपा के विरोध में सबसे मज़बूत स्थिति में दिख रहे उम्मीदवार के पीछे लामबंद हो जायेगा?
8. मोदी-विरोधी मतदाता कम तादात में मतदान केंद्र पर पहुंचे तो क्या होगा?
मेरे लिए इस बार के नेशनल इलेक्शन स्टडी से निकलने वाला सबसे अहम तथ्य है : ‘चुस्त सरकार समर्थक’ मतदाता बनाम ‘सुस्त सरकार विरोधी’ मतदाता नाम की परिघटना. सरल शब्दों में कहें तो मोदी के समर्थक मतदाता वोटिंग को लेकर खासे उत्साहित हैं. वहीं दूसरी ओर जो लोग मोदी के विरोध में हैं, उनके मतदान केंद्र पर पहुंचने की संभावना कम है (Table 14). मतदान केंद्र में जाने के मामले में न-नुकुर करने वाले मतदाताओं की तादात मुसलमानों में ज़्यादा है (Table 14b). तो फिर हमारे लिए यहां वह पुराना नियम दोहराने का वक्त है कि वोटिंग जितनी ही कम होगी, बीजेपी के लिए उतना ही अच्छा रहेगा. मुस्लिम मतदाताओं में एनडीए की तुलना में यूपीए के समर्थक ज़्यादा हैं. अगर तमाम मुस्लिम मतदाता वोटिंग के दिन मतदान केंद्र पर नहीं पहुंचते तो फिर एनडीए को यूपीए पर तीन अंकों की बढ़त हासिल होगी और ऐसे में एनडीए का पलड़ा 30 सीटों पर भारी हो सकता है.
तो फिर नज़र इस बात पर भी रखिएगा कि इस बार किस तादात में लोग वोट डालने मतदान केंद्रों पर पहुंचते हैं.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)
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