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Monday, 4 November, 2024
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कॉलेज की डिग्री, BBC ऐक्सेंट, फैमिली बैकग्राउंड सब पुरानी बातें हैं, भारत में अब नया एलीट क्लास उभर रहा

भारत का कारवां ऐसे लाखों अति प्रतिभाशाली लोगों द्वारा खींचे जा रहे विशालकाय रथ की तरह गति पकड़ते हुए आगे बढ़ रहा है, जिन्हें तैयार करना हमारे पुराने श्रेष्ठ संस्थानों के बस में नहीं हो सकता था.

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पिछले दिनों इस दुनिया से विदा हुए सर इवान मेंजेस (1959-2023) एक कमाल की शख्सियत थे. मैं उनसे किसी जमावड़े में शायद मिला हूंगा लेकिन उनसे मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं था. मैं उनका सहपाठी तो नहीं ही हो सकता था. लेकिन उनकी विशेषताओं, उनके गुणों और उनकी उपलब्धियों के बारे मैं उनके सहपाठी रहे अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रह्मन्यन द्वारा ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ में लिखे मर्मस्पर्शी श्रद्धांजलि-लेख से परिचित हुआ.

उन सबको मैं सच मानता हूं. लेकिन एक क्षण के लिए मैं इस लेख में लेखक की इस समापन टिप्पणी से थोड़ी उलझन में पड़ गया कि “अरस्तु भी आज होते तो उनसे ईर्ष्या करते”. एक बड़ी शराब कंपनी के ग्लोबल बॉस के ओहदे तक पहुंचे रहे सर इवान से अरस्तु क्यों ईर्ष्या करते? इस सवाल पर बहुत देर तक सोचता रहा, कि अचानक रहस्य खुल गया.

अरस्तु बेशक उनसे ईर्ष्या करते. आखिर वे कभी दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेन्स कॉलेज में पढ़ाई नहीं कर सकते थे. अगर उनके माता-पिता उन्हें इस कॉलेज में भेज सकते तो वे भी वहां से इकोनॉमिक्स ऑनर्स के 1979 बैच के उन स्नातकों में शामिल हो सकते थे, जिन्होंने आगे चलकर भारत और दुनिया पर राज किया.

हमें याद दिलाया गया है कि उस बैच ने हमें सर इवान मेंजेस दिया, जो सत्या नदेला और सुंदर पिचई से पहले कॉर्पोरेट जगत के ग्लोबल स्टार बन चुके थे. उस बैच ने हमें चीफ जस्टिस डी. वाइ. चंद्रचूड़ के साथ ही उनके एक साथी वरिष्ठ जज संजय किशन कौल भी दिए. उसी बैच के शायद सबसे महंगे वकील अभिषेक सिंघवी भी हैं जो इन जजों के सामने हाजिर होते हैं. विश्व बैंक के बॉस अजय बंगा, इन्फ्रास्ट्रक्चर गुरु विनायक चटर्जी, कई बड़े नौकरशाह भी उसी बैच के हैं, जिनके नाम मैं गिनाने लगूं तो खतरा यह है कि मुझ पर उक्त श्रद्धांजलि से चोरी करने का आरोप न लग जाए.

मैं यह कोई व्यंग्यलेख नहीं लिख रहा हूं, केवल पीछे मुड़कर यह दिखाने की कोशिश कर रहा हूं कि भारत क्या था, कहां से चला था, कहां पहुंचा है, और किस दिशा में जा रहा है. 1979 की यह पौध जिस भारत में पैदा हुई वह आज के भारत से बहुत अलग दिखता था. अखिल भारतीय सरकारी सेवाओं, तमाम आइआइएमोन, न्यायपालिका के शीर्ष पदों और कॉर्पोरेट जगत के लीडरों के कई बैचों की जनसांख्यिकीय विशेषताओं पर नज़र डालें तो पाएंगे कि 1989 के बाद से या उसके 10 साल बाद वैसी कामयाबी की मिसाल टुकड़ों में भी ढूंढना मुश्किल है. यह फर्क आया है भारत में.

2003 में, मेरे इस कॉलम के एक लेख का शीर्षक था—‘द एच.एम.टी. एडवांटेज’. इस लेख में मैंने हिंदी- मीडियमनुमा एच.एम.टी. जैसे संस्थानों से निकली नयी किस्म के कुलीन तबके के उभार पर प्रकाश डाला था. यह लेख अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला के निधन पर लिखा गया था. हरियाणा के गुमनाम-से शहर करनाल के एक साधारण स्कूल से पढ़ाई करके निकली कल्पना चावला ‘नासा’ की एस्ट्रोनॉट बनी थीं.

इस लेख में मैंने लिखा था कि हमारी राजनीति, सिविल सेवाएं, सेनाएं, कॉर्पोरेट जगत, न्यायपालिका, और मीडिया भी अब पुराने, सत्तातंत्र से जुड़े कुलीनों के लिए ही सुरक्षित क्षेत्र नहीं रह गए हैं. अब यह कोई मायने नहीं रखता कि आप किस पृष्ठभूमि से आए हैं, आपके डैडी कितने कामयाब शख्स थे, आपका परिवार किस क्लब या नेटवर्क से जुड़ा है. ये सब उस लेख के लिखे जाने से 20 साल पहले ही बेमानी हो गए थे.

आज हमें पता चला है कि इवान मेंजेस के पिता एक प्रतिष्ठित सिविल सर्वेंट और रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष थे. इसलिए, वह श्रद्धांजलि-लेख हमें याद दिलाता है कि वे एक ऊंचे खानदान से आए थे. आप ऊंचे खानदान की बात करते हैं? मुकेश और अनिल अंबानी ने मुंबई में एक चॉल के पास के गुजराती मीडियम स्कूल से पढ़ाई की, जहां उनके पिता धीरूभाई एक छोटे कारोबारी थे और उस चॉल में रहते थे. लेकिन उनके अंदर एक बड़ी आग सुलग रही थी. उस गुमनाम स्कूल का आज शायद वजूद भी नहीं रह गया है.

भारत में ऐसा क्या बुनियादी बदलाव आ गया कि अभी हाल के (या कहें मेरी पीढ़ी के जवान होने के वर्षों के) कुलीनों के नेटवर्क अपना वर्चस्व खो बैठे? वे लुप्त नहीं हुए हैं, और न कभी होंगे. नये कुलीन उभरेंगे. हुआ सिर्फ यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था और समाज में बदलावों के साथ-साथ यह नेटवर्क भी तेजी से बड़ा होकर इतना विशाल हो गया है कि अब किसी ‘गोल्डन’ संस्थान से निकले ऐसे ‘गोल्डन’ बैचों की पहचान असंभव हो गई है.


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इस बदलाव और विस्तार की शुरुआत मुख्यतः 1991 से हुई, जब आर्थिक सुधारों का पहला चरण शुरू हुआ था.

अर्थव्यवस्था जब तक छोटी थी और धीमी गति से वृद्धि कर रही थी, तब तक विशेषाधिकार प्राप्त कुछ संस्थान ही कॉर्पोरेट बोर्डरूमों से लेकर सिविल सेवाओं और न्यायपालिका तक के लिए भारत की जरूरतभर की प्रतिभाएं देने के लिए काफी थे. लेकिन अब तेज वृद्धि कर रही अर्थव्यवस्था को कहीं ज्यादा प्रतिभाओं की, और उनके कहीं बड़े स्रोत की जरूरत थी. सेंट स्टीफ़ेन्स/ दून स्कूल/ मायो कॉलेज/ सेंट कोलंबा स्कूल/ सेंट ज़ेवियर/ ला मार्टिनेरे (ये सारे नाम मैंने उसी श्रद्धांजलि से लिये हैं) अभी भी महान संस्थाएं हैं और आज भी ये भारत की सर्वोत्कृष्ट संस्थाएं हैं, लेकिन उनकी संख्या इतनी कम हैं कि वे भारत को जितनी प्रतिभाओं की जरूरत है उनकी पूर्ति नहीं कर सकतीं.

इसलिए, टाटा एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेज जैसे किसी संस्थान को इन संस्थानों, पारिवारिक नेटवर्कों, और उम्मीदवारों के पिता के नाम जांचने से आगे बढ़ने की जरूरत है. इस बीच, आतुर और 24 घंटे मेहनत करने को तत्पर मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय और गरीब भारत ने यूपीएससी की परीक्षाओं को कहीं ज्यादा-से-भी-ज्यादा प्रतियोगी बना दिया है. आज आप अखबारों के पहले पन्ने पर आइएएस अकादमियों के विज्ञापनों में टॉपरों और रैंक होल्डरों की सूची देख जाइए कि उनमें इन पुराने संस्थानों में पढ़े कितने उम्मीदवार हैं. इन परीक्षाओं और उनके इंटरव्यू में सफल होना बेहद कठिन है. उनमें आपकी पृष्ठभूमि को कोई तरजीह नहीं दी जाती.

सबसे बड़ा, सबसे स्पष्ट और सबसे श्रव्य बदलाव तो यह आया है कि लोगों और खासकर नौकरी देने वालों ने यह फिक्र करना छोड़ दिया है कि आप अंग्रेजी बोलने में कितने माहिर हैं. यह बदलाव और कहीं उतना स्पष्ट नहीं दिखता है जितना “अंग्रेजी” कुलीनवाद के अंतिम गढ़, सेना के अफसर्स मेसों में दिखता है. करीब तीन दशकों से ज़्यादातर नये अफसर ग्रामीण, कस्बाई, गैर-कुलीन पृष्ठभूमि से आ रहे हैं. उनमें बड़ी संख्या दूसरे रैंकों या जेसीओ के बच्चों की है. उन्हें बात करते हुए सुनिए, वे पुरानी बीबीसी की भाषा में बात करते नहीं मिलेंगे. यह बदलाव सीमा पार भी हुआ है.

पाकिस्तान के वर्तमान सेना अध्यक्ष पर सोशल मीडिया में तब कटाक्ष किए गए जब उन्होंने चीनी सेना के अध्यक्ष के साथ बातचीत में ‘प्लेज़र’ और ‘मेज़र’ जैसे शब्दों का उस तरह उच्चारण किया जिस तरह कॉन्वेंट में नहीं पढ़े पंजाबी किया करते हैं— ‘प्लेयर’, ‘मैयर’. लेकिन मुझे यकीन है, सेना मुख्यालय में उनके कई सहकर्मियों को इसका फर्क शायद ही मालूम होगा. और, चीनियों को क्या कोई फर्क पड़ता है?

सार यह कि हम आज उस दुनिया में जी रहे हैं, जो उस दुनिया से बिलकुल अलग है, जिसमें सेंट स्टीफ़ेन्स कॉलेज का इकोनॉमिक्स ऑनर्स का 1979 बैच जी रहा था. बीती बातों की याद बड़ी हसीन होती है और हम जैसे पुराने लोगों का यह हक़ भी है. मुझे इसी कॉलेज के एक और विख्यात ग्रेजुएट का दो साल पहले छपा एक लेख याद आ रहा है. अंग्रेजी भाषा के बारीक इस्तेमाल में माहिर लेखक ने अफसोस जाहिर किया था कि दुनिया किस कदर बदल गई है, उनके मुताबिक यह बदलाव काफी बुरा है.

उस समय को बड़ी शिद्दत से याद किया गया था, जब हर कोई साधारण-सी जीन्स पहनता था, जब कॉलेज में बिना किसी तैयारी के संगीत आयोजन हुआ करते थे, जब आपके पिता के पास फिएट की प्रीमियर पद्मिनी कार होती थी और परिवार की इससे ज्यादा कुछ बड़ी ख़्वाहिश नहीं होती थी. कितना शानदार दौर था वह; और आज के लालची, अति महत्वाकांक्षी दौर के मुक़ाबले कितना बेहतर और पवित्र दौर था! वह सौम्य समय ऐसा था जब, कभी सफल रही महिमामंडित पीढ़ी (जिसकी संख्या कुछ हजारों में ही थी) अपनी संतानों को भारत के ईटन, ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज माने जाने वाले संस्थानों में भेजा करती थी. भारत को तब इतनी ही प्रतिभाओं की जरूरत पड़ती थी. और तब वह साल में 30 हजार कारें ही बनाता था. उसे इतने की ही जरूरत पड़ती थी. आज अगर हम 40 लाख कारें बना रहे हैं और फिर भी उनके लिए प्रतीक्षा सूची बनती है, तो यह कितना अनैतिक, अपवित्र और शर्मनाक दौर है! कार केवल चंद लोगों को ही क्यों न मिले, जो उसके लायक हैं?

वह बीता दौर कितना भी यादगार क्यों न रहा हो, वह वापस लौटकर आने से तो रहा. आप इसे मुकेश के गाए इस गाने (जाने कहां गए वो दिन…) से या किशोर कुमार के गाए गाने (कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…) से या एस.डी. बर्मन के गाए इस गाने (राज गए, ताज गए, बदला जहां सारा/ रोज मगर बढ़ता जाए कारवां हमारा…) से भी समझ सकते हैं.

वे कथित शानदार दौर बीत चुके हैं. भारत का बढ़ता कारवां जबकि गति पकड़ते हुए आगे बढ़ रहा है, वह लाखों अति प्रतिभाशाली लोगों द्वारा खींचे जा रहे विशालकाय रथ की तरह दिख रहा है. मुझे नहीं लगता कि अरस्तु को इससे कोई परेशानी होती.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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