कई मायनों में, बिहार विपक्ष के महागठबंधन का आधार था. पहली बार यहीं पर महागठबंधन तैयार हुआ था जिसने नीतीश कुमार के नेतृत्व में 2015 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को सफलतापूर्वक चुनौती दी थी.
पर, विडंबना ही कहेंगे कि अब जबकि लोकसभा चुनावों के लिए प्रचार अभियान का अंतिम दौर शुरू होने वाला है, बिहार में महागठबंधन को जीत का खाका तैयार करने में जद्दोजहद करनी पड़ रही है.
बिहार के राजनीतिक महत्व से कौन नहीं अवगत होगा. ये उन तीन राज्यों (बाकी दो पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश हैं) में से है जहां चुनाव के सातों चरणों में वोटिंग होगी.
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और विपक्षी महागठबंधन के बीच युद्ध की रेखाएं खिंच चुकी हैं. बिहार में एनडीए में भाजपा, जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी शामिल हैं. जबकि महागठबंधन के घटक हैं- कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्यूलर), विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी), राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) और सीपीआई-एमएल.
क्या हैं जातिगत समीकरण
बिहार की राजनीति में जाति एक निर्णायक भूमिका निभाती है, और पिछले कुछ दशकों के दौरान इसकी भूमिका भारी सामाजिक परिवर्तनों को दर्शाती है. कभी स्वाभाविक रूप से सामंती और ऊंची जाति के प्रभुत्व का क्षेत्र रहा बिहार, उन शुरुआती राज्यों में शामिल था जो कि समाज के निचले तबके से आरंभ क्रांति का गवाह रहे हैं.
पर ये परिवर्तन और विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच शक्ति के पुनर्वितरण का काम सुचारू रूप से नहीं हुआ. बिहार के ऊंची जातियों और ऊंचे वर्गों ने इसका जमकर विरोध किया.
जब पिछड़े वर्ग के लोकप्रिय नेता कर्पूरी ठाकुर 1970 में बिहार का पहला गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री बने तो सामंतवाद समर्थक ‘कर्पूरी कर्पूरा, छोड़ कुर्सी, पकड़ उस्तूरा’ का नारा लेकर आए थे. उस दौरान, राज्य में पहली बार, फैसले करने की अहम ताकत ऐतिहासिक रूप से वंचित रहे वर्गों के हाथ में आई थी.
लालू प्रसाद यादव के 1990 के दशक में मुख्यमंत्री बनने तक बिहार एक पीढ़ीगत बदलाव का गवाह बन चुका था. उनके शासनकाल में ‘भूरा बाल साफ करो’ का नारा लोकप्रिय हुआ था. इसमें ‘भू’ का मतलब पारंपरिक रूप से भूस्वामी रहे भूमिहारों से था, जबकि ‘रा’ राजपूतों के लिए, ‘बा’ ब्राह्मणों के लिए और ‘ला’ लाला या कायस्थों के लिए प्रयुक्त हुए थे. यहा नारा उत्पीड़कों के स्थापित वर्ग से मुक्ति की मांग करता था.
सही जातीय समीकरण का असर
इस लोकसभा चुनाव में भी सही जातीय समीकरण साधने वाले गठबंधन को प्रतिद्वंद्वी पर बढ़त मिलने की संभावना है. भाजपा की अगुआई वाले एनडीए का सुविचारित जातीय गणित उन तीन कारणों में से एक है जो कि इस गठबंधन की जीत सुनिश्चित करने वाला है.
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय यादव समुदाय से आते हैं, और वह मतदाताओं के इस प्रभावशाली वर्ग को एनडीए की ओर खींच सकते हैं. लालू प्रसाद यादव के बाद राजद के अगली पीढ़ी के नेतृत्व के बारे में स्पष्टता नहीं होने के कारण, यादव मतदाताओं को अन्य विकल्पों को आज़माने से गुरेज नहीं है.
मध्यवर्ती जातियों और दलितों के बीच जारी संघर्ष भी महागठबंधन के नेताओं के लिए चिंता का एक बड़ा कारण होगा.
जैसा कि मैं दिप्रिंट में प्रकाशित अपने एक आलेख में कह चुका हूं, प्रभावशाली यादव समुदाय और दलितों के बीच बढ़ती खाई हिंसा को जन्म दे रही है, जैसा कि पिछले मई में राघोपुर में देखा गया. दलित एनडीए का साथ देने के इच्छुक हैं क्योंकि उनके समुदाय के शीर्ष नेताओं में से एक रामविलास पासवान राज्य में सत्तारूढ़ गठबंधन के साथ मज़बूती से खड़े हैं.
महागठबंधन के बिहार के पसमांदा मुसलमानों का कोपभाजन बनने की भी आशंका है. पिछड़ी जाति के मुसलमानों को अलग पहचान देने वाला पसमांदा आंदोलन जदयू के तत्कालीन नेता अली अनवर द्वारा शुरू किया गया था, जो अब शरद यादव के लोकतांत्रिक जनता दल के साथ हैं. बिहार के मुसलमानों में से 60 प्रतिशत से अधिक पसमांदा वर्ग से आते हैं. इसके बावजूद, महागठबंधन के उम्मीदवारों की सूची में एक भी पसमांदा नाम नहीं है. इसका पूरे राज्य में महागठबंधन को मिलने वाले मुस्लिम वोटों पर असर पड़ना तय है.
बड़ी बातें बनाम तुच्छ राजनीति
एनडीए के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में एक सुपर प्रचारक है जिसने एक मज़बूत नेता के रूप में अपनी साख बनाई है. साथ ही, भाजपा का अपना ज़बरदस्त चुनाव तंत्र भी है. और, इन मामलों में एनडीए को विपक्ष पर बढ़त प्राप्त है.
राष्ट्रवाद और विकास के एजेंडे के पीछे भाजपा का उद्देश्य है भारत को सुपरपावर का दर्ज़ा दिलाना, ख़ासकर बालाकोट हवाई हमले के बाद ये बात स्पष्ट हो चुकी है.
बिहार का पुरुषवादी समाज बालाकोट हमले को मर्दानगी भरे सफल हस्तक्षेप के रूप में देखता है. राज्य के ग्रामीण इलाकों में बालाकोट हमले को लेकर गढ़े गए गीत काफी लोकप्रिय हो रहे हैं.
इसके विपरीत महागठबंधन नेतृत्व में दूरदर्शिता और परिकल्पना का नितांत अभाव दिखता है. उम्मीदवारों, चुनाव क्षेत्रों और विचारों को लेकर भी स्पष्टता नहीं है.
जहां एनडीए राज्य की 40 सीटों में से 39 पर उम्मीदवारों की घोषणा कर चुका है, वहीं महागठबंधन अभी तक 32 उम्मीदवारों के नाम ही तय कर पाया है.
महागठबंधन ने मधुबनी और शिवहर जैसी अहम सीटों के लिए भी उम्मीदवार तय नहीं किए हैं. जबकि, क्रमश: पांचवें और छठे चरण में वोटिंग वाली इन सीटों पर एनडीए के उम्मीदवार जोरशोर से प्रचार में जुट भी चुके हैं.
राजद में दोनों भाइयों तेजस्वी और तेज प्रताप यादव के बीच जहानाबाद और शिवहर सीटों को लेकर बढ़ती खींचतान की बात असहज रूप से सार्वजनिक हो चुकी है. बेगूसराय में जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार को लेकर असहमति के पीछे भी, बहुतों का मानना है, तेजस्वी यादव की असुरक्षा की भावना ही है.
इसी तरह, आरा सीट सीपीआई-एमएल के लिए छोड़ने का राजद का फैसला इसके संरक्षणवादी राजनीति का हिस्सा है. आरा से राजू यादव चुनाव लड़ेंगे, जिनकी कोई खास राजनीतिक हैसियत नहीं है और भाजपा के आर. के. सिंह के विरुद्ध मुकाबले में उनके लिए कोई संभावना नहीं दिखती है.
शराबबंदी और महिलाओं का समर्थन
शराबबंदी बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू नेता नीतीश कुमार के राज्य की महिलाओं के बीच अपनी पार्टी के लिए एक जाति-निरपेक्ष समर्थन आधार बनाने में मददगार रही है.
शराब पर प्रतिबंध के नीतिगत निहितार्थों पर बहस हो सकती है, पर नि:संदेह इस कदम को महिलाओं, खासकर ग्रामीण महिलाओं का समर्थन मिला है, जो कि बिहार की आबादी का आधा हिस्सा हैं.
इन तीन व्यापक कारकों के अलावा, ऊंची जाति के गरीबों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण के फैसले का एनडीए के पक्ष में खासा प्रभाव पड़ने वाला है.
इन सबके बावजूद, बिहार राजनीतिक रूप से जागरूक जनता के लिए जाना जाता है और ये भविष्यवाणी करना कठिन है कि उनका वोट किसे मिलेगा. दोनों राजनीतिक ध्रुवों पर नए सिरे से पार्टियों की गोलबंदी बिहार की जनता के लिए एक रोचक लोकतांत्रिक अवसर उपलब्ध कराती है. पर, आज की स्थिति में यही कहा जा सकता है कि बिहार में भाजपा की अगुआई वाला एनडीए फायदे की स्थिति में है.
(लेखक इंडिया फाउंडेशन में अध्येता और पटना विश्विद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं.)
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