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Saturday, 23 November, 2024
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क्या राजस्थान में कांग्रेस अपनी ज़मीन बचा पाएगी? मुश्किल है

मोदी के प्रति लोगों के विश्वास में कमी ज़रूर आई है, लेकिन पुलवामा हमले और बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद हवा का रुख फिर बदलता लग रहा है.

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पिछले साल के विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान में कांग्रेस की जीत ने राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया था. इन चुनाव परिणामों को देखने के बाद यह उम्मीद जताई जा रही है कि 2019 आम चुनावों में मोदी लहर को रोकना संभव है. अगर हम 2009 और 2014 के आम चुनाव के परिणामों को देखें तो पाएंगे कि इन तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव जीतने वाली पार्टी ने लोकसभा चुनावों में भी इस बढ़त को बनाए रखा था.

राजस्थान में यह मिथक या संयोग 1998 के आम चुनावों से चला आ रहा है. अगर 2018 विधानसभा चुनाव के वोट प्रतिशत का आकलन करें तो कांग्रेस का मत प्रतिशत 39.03 प्रतिशत रहा, जो कि भाजपा के वोट प्रतिशत 38.8 से कुछ ही ज़्यादा है. इन आंकड़ों को ध्यान में रखकर दिल्ली में बैठे चुनाव विश्लेषक कह सकते हैं कि कांग्रेस राजस्थान की 25 में से 12-13 सीट जीत सकती है.

लेकिन इस बार परिस्थितियां कुछ और हैं. मोदी के प्रति लोगों के विश्वास में कमी ज़रूर आई है, लेकिन पुलवामा हमले और बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद हवा का रुख फिर बदला-बदला सा लग रहा है. इसकी प्रमुख वजह यह है कि राजस्थान के काफ़ी लोग सेना में भर्ती होते हैं ओर राजस्थान के 6 जिले पाकिस्तान सीमा पर स्थित हैं. इससे भाजपा को यहां राष्ट्रवाद की भावनात्मक अपील करने में सहायता मिलती है.

मोदी सरकार में लोगों के विश्वास में कमी की एक प्रमुख वजह गहराता कृषि संकट है. क़र्ज़माफ़ी की घोषणा कर राज्य की कांग्रेस सरकार ने इसको भुनाने की कोशिश की है. लेकिन इसी मुद्दे को लेकर हनुमान बेनीवाल की रालोपा व माकपा भी चुनाव में दमख़म से ताल ठोक रही है. माकपा ने तो राजस्थान के किसान आंदोलनों की आवाज़ अमराराम चौधरी को भी चुनाव मैदान में उतार दिया है.

इन कारणों से किसान असंतोष का कांग्रेस को कोई ख़ास फ़ायदा होता नहीं दिख रहा है. कांग्रेस के पारम्परिक गढ़ दक्षिणी राजस्थान में गुजरात के छोटूभाई वसावा की भारतीय ट्राइबल पार्टी के चुनाव मैदान में आने से कांग्रेस के परम्परागत आदिवासी वोट उससे छिटकते हुए दिख रहा है. बीटीपी हाल ही के विधानसभा चुनावों में 2 सीटें जीतने में सफल रही ओर इसने कुछ अन्य आदिवासी बहुल सीटों पर भी कांग्रेस पार्टी को नुक़सान पहुंचाया. साथ ही राजस्थान के शहरी क्षेत्रों और गुजरात से लगते हुए राजस्थान के हिस्सों में मोदी के समर्थन में कोई ख़ास गिरावट नहीं देखने को मिली है. इस बात की पुष्टि हाल के विधानसभा चुनाव के परिणाम करते हैं.

दक्षिणी और पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों के युवा समूहों से बात करने पर पता चला कि उनमें मोदी का क्रेज़ अब भी बरककार है, हालांकि वो सर्जिकल स्ट्राइक के अलावा मोदी सरकार की कोई ख़ास उपलब्धि नहीं गिनवा पाए. वहीं कुछ ग्रामीण महिलायें उज्ज्वला गैस कनेक्शन से ख़ुश दिखीं पर साथ-साथ मनरेगा के कार्यों में कमी होने का असंतोष भी दिखा.

जातिगत समीकरणों का चुनावों पर प्रभाव

एक प्रमुख फ़ैक्टर जो इन चुनाव परिणामों को तय करेगा, वो है ओबीसी वोटरों का रुख. राजस्थान में ओबीसी जातियों की संख्या 50 से 55 प्रतिशत तक मानी जाती है. वर्तमान में सीएम अशोक गहलोत और डिप्टी सीएम सचिन पायलट दोनों इसी वर्ग से आते हैं.

इस वर्ग को हम तीन भागों में बांटकर देखने की कोशिश करेंगे. पहली जाट जाति, जो कि क़रीब 10 प्रतिशत है. इसे किसी भी पार्टी का परम्परागत वोटबैंक नहीं कहा जा सकता है. इस बार इसी जाति से आने वाले हनुमान बेनीवाल की आरएलपी 5-6 सीटों पर कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा कर सकती है.

दूसरी बड़ी जाति है गुर्जर, जो कि 7-8 सीटों पर निर्णायक भूमिका अदा करने का प्रभाव रखते हैं. सचिन पायलट इसी समुदाय से आते हैं. सचिन को सीएम नहीं बनाने के कारण गुर्जर समुदाय छला हुआ महसूस कर रहा है. कांग्रेस को इससे नुक़सान होने की उम्मीद है.

बाक़ी ओबीसी समुदायों को दोनों प्रमुख पार्टियां यानी कांग्रेस और बीजेपी टिकट वितरण में प्राथमिकता नहीं देती हैं. लेकिन ये अन्य ओबीसी जातियां राजस्थान की जनसंख्या का लगभग एक तिहाई हैं. माली/सैनी जाति, जिससे राजस्थान के सीएम आते हैं, को छोड़कर अन्य जातियां भाजपा की तरफ़ अपना झुकाव रखती हैं. इसका एक प्रमुख कारण मोदी/आरएसएस द्वारा विगत कई वर्षों से किया जा रहा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण है.

हाल की राजस्थान राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में ओबीसी की मेरिट अनारक्षित वर्ग की मेरिट से काफ़ी ज़्यादा रही है. इससे ओबीसी वर्ग के युवाओं में काफ़ी असंतोष है, लेकिन यह चुनावों को कैसे प्रभावित करेगा इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता.

राजस्थान का सवर्ण मतदाता जो कि जनसंख्या के 20 प्रतिशत के क़रीब है, वह पहले से ही भाजपा का पारम्परिक समर्थक था और 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण देने से यह और भी मज़बूती से भाजपा के साथ खड़ा दिख रहा है. हालांकि इसमें से कुछ हिस्सा मुस्लिमों का भी है जो कि परम्परागत रूप से कांग्रेस का वोटर रहा है.

राजस्थान में एक वर्ग जो कि अभी भी कांग्रेस के साथ मज़बूती से जुड़ा है, वो है एससी समूह. अनुसूचित जाति यहां 18 प्रतिशत है और यह पारम्परिक रूप से कांग्रेस को वोट करती आई है. राजस्थान सरकार ने हाल ही में 2 अप्रैल के भारत बंद में एससी/एसटी आंदोलनकारियों पर लगाए गए मुक़दमों की समीक्षा करने की घोषणा की है. इसका कांग्रेस को लाभ मिलने की उम्मीद है.

घोषणा हुई, लेकिन जनता तक पहुंची नहीं

एक और वजह जिससे कि कांग्रेस को चुनाव में फ़ायदा मिलने की उम्मीद जताई जा रही है, वह है राहुल गांधी द्वारा हाल ही में किया गया वादा, कि अगर देश में कांग्रेस की सरकार बनती है तो ग़रीबों की सालाना आय को 72,000 रुपये तक पहुंचा दिया जाएगा. मैंने अपने फ़ील्ड वर्क में पाया कि यह ख़बर अभी तक आम जनता और ख़ासकर ग़रीब परिवारों तक नहीं पहुंच पायी है. जनमानस तक बिना इस वादे के पहुंचे हुए इसके चुनावी लाभ पर चर्चा करना बेमानी होगा. इस ख़बर के जन-जन तक न पहुंचने का ज़िम्मेदार मीडिया तो है ही, लेकिन साथ-साथ कांग्रेस के निष्क्रिय पड़े ब्लॉक, इकाई ओर प्रकोष्ठ भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं.

अंत में इन तमाम समीकरणों को ध्यान में रखकर कहा जा सा सकता है कि राजस्थान में कांग्रेस अगर 8-10 सीटें भी जीत ले तो इसे उसका बेहतरीन प्रदर्शन माना जाएगा. इसका श्रेय यक़ीनन अशोक गहलोत के चुनावी कौशल को जाएगा.

(लेखक आईआईटी दिल्ली के समाज एवं मानविकी विभाग की समाज विज्ञान शाखा में पीएचडी शोधार्थी हैं, और वर्तमान में राजस्थान में फ़ील्ड अध्ययन पर हैं)

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