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Friday, 22 November, 2024
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चुनावी बॉन्ड योजना लाकर भाजपा सरकार ने ठीक नहीं किया

चुनावी मौसम शायद इस योजना में बदलाव का सही वक्त नहीं हो, पर 23 मई के बाद नई सरकार को राजनीतिक चंदे की इस व्यवस्था को रद्द कर देना चाहिए.

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चुनाव आयोग ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को बताया, और सही ही, कि चुनावी बॉन्ड (इलेक्टोरल बॉन्ड) राजनीतिक चंदे का ज़्यादा पारदर्शी तरीका नहीं है. सबसे पहले तो भाजपा की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का इस योजना को आगे बढ़ाना ही गलत था. चुनावी मौसम शायद इस योजना में बदलाव का सही वक्त नहीं हो, पर 23 मई के बाद नई सरकार को राजनीतिक चंदे की इस व्यवस्था को रद्द कर देना चाहिए.

चुनावी बॉन्ड योजना संभवत: ‘नेक इरादे, पर बुरे कदम’ वाले फैसले का एक अच्छा उदाहरण है. राजनीतिक चंदे के संदर्भ में बेशक सख़्त वित्तीय मानदंड तय किए जाने चाहिए, पर मौजूदा स्वरूप में चुनावी बॉन्ड योजना भ्रष्टाचार और राजनीतिक दलों को अवैध चंदे की चिरकालिक समस्या का समाधान नहीं कही जा सकती. इसके विपरीत, ऐसा प्रतीत होता है कि यह योजना समस्या को और बढ़ा ही रही है.

पारदर्शिता, सुशासन और भ्रष्टाचार को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने के वादे पर चुनकर आई पार्टी के लिए चुनावी बॉन्ड के ज़रिए पार्टी के लिए धन इकट्ठा करने का पूरा तरीका ही चुनाव-पूर्व के वादों और पिछले पांच वर्षों में किए अच्छे कामों के खिलाफ जाता दिखता है.


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चुनावी बॉन्ड की समस्याएं

चुनावी बॉन्ड वास्तव में निर्दिष्ट बैंक से खरीदे जा सकने वाले वाहक बॉन्ड हैं, जिसके ज़रिए व्यक्ति या कंपनी पूर्ण गोपनीयता के साथ किसी राजनीतिक दल को चंदा दे सकते हैं. इस दलील में दम नहीं है कि बॉन्डों की खरीद बैंक से किए जाने के कारण ‘धन वैध और चंदा पारदर्शी’ होगा, क्योंकि चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाती है. यह अपने आप में पारदर्शिता की भावना के विपरीत है.

साथ ही, भारतीय कंपनियों में बहुमत हिस्सेदारी रखने वाली विदेशी कंपनियों को राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने की अनुमित दिए जाने को बहुत से प्रेक्षक सुरक्षा मानकों के गंभीर उल्लंघन तथा सरकारी निर्णयों और आर्थिक नीतियों में हस्तक्षेप के लिए आमंत्रण के तौर पर देखते हैं.

एक वैश्विक चुनौती

दुनिया भर के लोकतंत्र राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं, और उन्होंने अपने हिसाब से इसका समाधान निकालने की भी कोशिश की है.

चुनावों के ‘व्यवसायीकरण’ से चिंतित ब्रितानी न्याय मंत्रालय ने राजनीति दलों के आय-व्यय के बारे में 2008 की अपनी रिपोर्ट में कहा: ‘चुनावों को विचारों और दृष्टिकोणों का मुकाबला होना चाहिए, पर हाल के दिनों में ये भारी मात्रा में धन इकट्ठा करने का मौका बन गए हैं. ब्रिटेन की दलीय राजनीति एक तरह से पैसे खर्च करने की होड़ बनकर रह गई है जिसमें दो सबसे बड़ी पार्टियां बहुत आगे हैं, जबकि छोटी पार्टियां भी उनसे जितना संभव है, कर रही हैं.’

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड इलेक्टोरल असिस्टेंस के राजनीतिक खर्च संबंधी आंकड़ों के अनुसार ‘करीब 31 प्रतिशत देशों में राजनीतिक दलों के खर्च के लिए सीमाएं तय हैं, वहीं 45 प्रतिशत देशों में उम्मीदवारों को तय सीमा के भीतर ही खर्च करने की अनुमति है.’

अमेरिका में, राजनीतिक चंदे की व्यवस्था खुली और पारदर्शी है, और वहां चुनाव प्रचार में मदद से जुड़ी बातें सार्वजनिक होती हैं. वहां विदेशी नागरिकों को राजनीति दलों के अभियानों में योगदान की अनुमति नहीं है.


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राष्ट्रीय बहस की दरकार

चुनावी सुधारों संबंधी वैश्विक रुझानों के अनुरूप नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले साल चुनावी बॉन्ड योजना का आरंभ किया था. पर, यह अपने वादे के अनुरूप पारदर्शिता सुनिश्चित नहीं कर पाई है.

यदि सरकार वास्तव में सुशासन को लेकर गंभीर है, तो उसे चुनावी बॉन्ड और राजनीतिक दलों को चंदे के मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस का आगाज़ करना चाहिए. साथ ही सुप्रीम कोर्ट, जहां इस मुद्दे पर अगले हफ्ते सुनवाई होनी है, और चुनाव आयोग भी इस बारे में फैसला करने से पहले इसको लेकर जनता की व्यापक भागीदारी और हस्तक्षेप का आह्वान कर सकते हैं.
बहस का एक उचित मुद्दा राष्ट्रीय चुनाव कोष की स्थापना का हो सकता है, जिसका प्रस्ताव, ओआरएफ के वरिष्ठ अध्येता निरंजन साहू के अनुसार, सबसे पहले पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने किया था. लोकतंत्र और सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के मुद्दे बेहद गंभीर हैं, जिन्हें मात्र राजनीतिक वर्ग के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.

(लेखक ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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