पटना: एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार अपने खाने में मोटे अनाज को शामिल करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, भारतीय सेना ने भी अपने खाने में मोटे अनाज को शामिल कर लिया है. बेकरी प्रोडक्ट्स भी अब हर दिन रागी, मरुआ, बाजरा, के बने बिस्किट और प्रोडक्ट्स बेच रहे हैं. लेकिन अभी अभी एक बार फिर फैशन में आए मोटे अनाज को हटा दें तो नई पीढ़ी मरूवा, बाजरा, रागी के बारे में और उसके फायदे के बारे में जानती तक नहीं है.
पहले इस फसल को गोल्ड ग्रेन कहा जाता था. अधिकांश किसान इस फसल की खेती करते थे. शुगर मरीज के लिए मरूवा औषधि का काम करती रही है. इसके अलावा गम्हार, सर्पगंधा, चिकना, अर्जुन, कबछुआ और कोचिला जैसे कई औषधीय पेड़-पौधे जंगलों में खेतों के किनारे भरपूर पाए जाते थे. हालांकि इसकी भरमार कोशी क्षेत्र में थी. कबछुआ के बारे में आम राय थी कि डायबिटीज और मानसिक रोगों के इलाज के अलावा यह पुरुषों के स्पर्म में शुक्राणुओं की संख्या बढ़ाता है. अश्वगंधा पौधे को बाहर के लोग खरीदकर ले जाते थे, क्योंकि इसका इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाइयां बनाने के लिए किया जाता है. लेकिन अब यह सारे औषधि युक्त पौधे बहुत ही कम देखने को मिलते हैं.
बिहार में आज से 50 साल पहले तक मोटे अनाज की खेती खूब हुआ करती थी. यही नहीं किसी बीमारी में लोग डॉक्टरों के पास कम ही जाया करते थे छोटी मोटी बीमारियां आयुर्वेद फूल -पत्तियों और पेड़ की छालों को कूट पीट कर ठीक कर लिया करते थे. सुपौल स्थित बभनगामा गांव के अनिल झा (70 वर्ष) बताते हैं कि, “पहले हम लोग मुख्य रूप से निर्भर ही आयुर्वेद पर थे. सुबह दातुन भी नीम की लकड़ी से करते थे. पूरे गांव में गम्हार,आंवला, कल्पनाथ, खैरा और अर्जुन के पौधों की भरमार थी. अब एक पौधा भी आपको खोजना पड़ता है.”
वह आगे कहते हैं, “पान का कत्था खैर के पौधे से बनाया जाता था. इसका छाल कुष्ठनाशक और हृदय रोग के लिए बहुत उपयोगी होता है. साथ ही इसके पत्ते को पीसकर पीने से खून साफ होता है. अब नई पीढ़ी पूरे रूप से एलोपैथ पर निर्भर हो गई हैं, इस वजह से आयुर्वेदिक पौधों का संरक्षण नहीं हो पा रहा है.”
बिहार राज्य जैव विविधता पार्षद 2020-21 के मुताबिक राज्य में 60 से अधिक पौधों की प्रजाति विलुप्त होती जा रही है. इसमें आयुर्वेदिक पौधे भी शामिल हैं. इसके अलावा वनस्पति सर्वेक्षण संस्थान द्वारा साल 2001 में हुए सर्वेक्षण के मुताबिक बिहार में पाए गए 2963 पौधों की प्रजातियों में कई पौधों का अस्तित्व कुछ सालों में समाप्त हो जाएगा.
क्यों विलुप्त हो रहे औषधीय पौधे
विकास के नाम पर जंगलों को अंधाधुंद काटा जा रहा है, संरक्षण की कमी और पौधे में उत्पन्न बीमारियों की वजह से भी औषधीय पौधे की दर्जन से अधिक प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर चुकी हैं.
पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग बिहार सरकार के मुताबिक जहां एक तरफ 2020-2021 में 432.78 हेक्टेयर वन क्षेत्र को विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए गैर वन क्षेत्र में तब्दील कर दिया गया था, वहीं दूसरी तरफ जंगल में आग लगने की संख्या में भी दिनों-दिन बढ़ोतरी होती जा रही है.
पूसा कृषि विश्वविद्यालय के शंकर झा के मुताबिक आयुर्वेदिक पेड़ में गमोंसी बीमारी बहुत जल्दी से फैलती है. इसमें पेड़ के अंदर से गम निकलने से पेड़ सूख जाता है. वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर मनाेज सिंह के मुताबिक जलवायु परिवर्तन, आंधी, बाढ़ का खतरा, भूमिगत जल स्तर का घटना और वातावरण में गर्मी विलुप्त हो रहे आयुर्वेदिक पौधों का मुख्य कारण है.
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पौधे लगाने से ज्यादा संरक्षण जरूरी
पटना स्थित पर्यावरणविद और डॉक्टर धर्मेंद्र के द्वारा पीपल-नीम-तुलसी वृक्षारोपण अभियान चलाया जाता है. इस अभियान के तहत अभी तक लगभग एक लाख पौधे लगाए जा चुके हैं. डॉ धर्मेंद्र बताते हैं कि, “हमारे पौधे लगाने की उपलब्धि हमें नजर नहीं आ रही है. क्योंकि पूरे बिहार में ही आयुर्वेदिक पौधे विलुप्त होते जा रहे हैं. पौधे लगाने से ज्यादा उनको संरक्षित करने की जरूरत है. लोग पौधों को तभी बचाएंगे जब उन्हें इसकी जरुरत होगी इसलिए हम आयुर्वेद और योग का प्रचार भी कर रहे हैं.”
अनुदान की स्थिति
बिहार बागवानी विकास सोसायटी को बागवानी विकास कार्यक्रम के लिए राज्य योजना मद से मुख्यमंत्री बागवानी मिशन हेतु 2018-19 में 4126.417 लाख रुपए की स्वीकृति दी गई. इसके तहत औषधीय फसलें भी आती है. इसके अलावा विलुप्तप्राय पशु-पक्षियों और स्थानीय औषधीय पौधों के संरक्षण के लिए केंद्र सरकार ने बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी एक्ट, 2002 बनाया था. अनुदान की स्थिति और एक्ट धरातल पर नजर नहीं आते हैं.
बिहार के पुर्णिया जिले के धमदाहा पंचायत के मुरारी झा ने 2009-2010 यानी दो साल तक सर्पगंधा पौधे की खेती की. झा के मुताबिक प्रत्येक एकड़ लगभग ₹50000 की लागत से यह फसल तैयार की गई. मौसम का साथ न मिलने की वजह से लाभ ज्यादा नहीं हो पाया. सरकार द्वारा अनुदान की राशि के लिए भी प्रयत्न किया गया लेकिन नहीं मिल पाया. इसके बाद मुरारी झा ने सर्पगंधा की खेती करना ही छोड़ दिया.
सहरसा कृषि विभाग में काम कर रहे हैं एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि यहां के लोगों को पता भी नहीं हैं कि आयुर्वेदिक फसल पर अनुदान की भी व्यवस्था है. बाकी अनुदान की स्थिति आपको भी पता है. सरकार के सोशल मीडिया पर भी ज्यादा प्रचार प्रसार नहीं किया जाता है.
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भगवान भरोसे आयुर्वेदिक दवा
बिहार में आयुर्वेदिक कंपनी डाबर के लिए काम कर रहे हैं आदित्य वत्स बताते हैं कि “बिहार की राजधानी पटना में आयुर्वेदिक दवाई के जांच के लिए कोई नहीं है. 4 साल पहले ही ड्रग इंस्पेक्टर की रिटायरमेंट के बाद अभी तक नई भर्ती नहीं हुई है.”
पटना के अलावा बिहार के कई जिलों में ड्रग इंस्पेक्टर के पद पर भी कोई नहीं है. बिहार सरकार के द्वारा आयुर्वेदिक दवाई की जांच के लिए ड्रग इंस्पेक्टर के 14 पद पर बहाली की स्वीकृति तो हुईं हैं, लेकिन नियुक्ति नहीं हुई है. बिहार में जहां भी आयुर्वेदिक दवाई की बिक्री की जा रही है वहां आयुष निदेशालय के अधिकारियों के द्वारा जांच नहीं की जाती है.
कई नई कंपनी आयुर्वेद के नाम पर दवाई बेच रहे हैं. ऐसे में बिहार के लोग भगवान के भरोसे ही आयुर्वेदिक दवाई खा रहे है. पटना में तैयारी कर रहे प्रवीण कुमार झा के मुताबिक बिहार में औषधि केंद्र के लिए ड्रग इंस्पेक्टर की बहाली कई सालों से नहीं हुई है.
बिहार के गलियों और सड़को के किनारे आयुर्वेद के नाम पर व्यवसाय करने वाले लोग आपको आसानी से मिल जाएंगे. पूरे बिहार में ही आयुष निदेशालय निष्क्रिय है. एक तरफ आयुर्वेदिक पौधे की अस्तित्व खतरे में है वहीं दूसरी तरफ कई आयुर्वेदिक कंपनी बाजार में है. जब आयुर्वेदिक पौधे ही नहीं है तो इतनी दवाई आ कहां से रही हैं?”
आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय
2021 में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ने बताया था कि बिहार के दरभंगा, भागलपुर और बक्सर के लिए अच्छी खबर यह है कि वहां स्थित आयुर्वेदिक कॉलेज फिर से शुरू होने जा रहा है. साथ ही पूरे बिहार में 700 नये आयुश हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर की स्थापना भी की जाएगी.
सुपौल स्थित आयुर्वेदिक डॉक्टर राजकुमार राय (57 वर्ष) बताते हैं,”पूरे बिहार में आयुर्वेद विश्वविद्यालय का हाल बहुत ही खराब है. भागलपुर का खगड़ा आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय हो या बक्सर का आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय सब खंडहर बन चुके है. पुराने अधिकारी और शिक्षक को आज भी रुपया तो मिल रहा है. लेकिन आयुर्वेद पढ़ने वाले कितने हैं.”
भागलपुर जिला परिषद सदस्य नंदनी सरकार जिला स्थित खगड़ा आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय के जीर्णोद्धार के लिए 2 दिन अनशन कर चुकी हैं. वो बताती हैं कि एक वक्त था जब इस अस्पताल में टीबी, दमा, लकवा जैसे रोगों का इलाज होता था, लेकिन अब यह खंडहर बन चुका है और अपने अस्तित्व की तलाश में है. पिछले 21 वर्षों से बंद इस अस्पताल के सभी कर्मचारी रिटायर हो चुके हैं. चुनावी मुद्दा तो बनता है लेकिन जीर्णोद्धार नहीं हो पा रहा है.
राहुल कुमार गौरव स्वतंत्र पत्रकार हैं.
(संपादन: अलमिना खातून)
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