scorecardresearch
Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतझारखंड में महागठबंधन में दिखने लगीं दरारें

झारखंड में महागठबंधन में दिखने लगीं दरारें

जहां बीजेपी ने झारखंड में अपना गठबंधन फाइनल कर लिया है, वहीं सेकुलर गठबंधन में अभी कई पेंच फंसे हुए हैं. इसकी मुख्य जवाबदेही झामुमो की है.

Text Size:

तीन उत्तर भारतीय राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़- के हाल में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा हार चुकी है. आम चुनाव में भी बिहार और उत्तरप्रदेश में 2014 दोहराने की उम्मीद उसे नहीं है. ऐसे में झारखंड की 14 सीटें, जिनमें से फिलहाल 12 सीटों पर भाजपा का कब्जा है, का भाजपा के लिए खासा महत्व है.

यहां भाजपा सावधानी से अपने कदम उठा रही है. पिछले विधानसभा चुनाव के बाद जो आजसू उनके लिए महत्वहीन हो चुकी थी, उसे एक लोकसभा सीट देकर बीजेपी ने एनडीए को मजबूत किया है और कुड़मी/कुर्मी वोटों को बिखरने से बचाने का प्रयास किया है.

सिर्फ दो वयोवृद्ध नेताओं का टिकट काटा गया है. एक तो खूंटी के कड़िया मुंडा का और दूसरे रांची के रामटहल चैधरी का. उन्हें और उनके समर्थकों को भरसक समझाया गया है कि यह एक नीतिगत फैसला है और पार्टी में उन दोनों को अब भी सम्मानित स्थान प्राप्त है. साथ ही राजद की असंतुष्ट पूर्व सांसद अन्नपूर्णा यादव को भाजपा में शामिल कर पार्टी ने कोडरमा सीट पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है, साथ ही राज्य की आठ सीटों पर दखल रखने वाले यादवों को आकर्षित करने की कोशिश की है.

उनकी तुलना में विपक्षी दलों के महागठबंधन में चुनाव करीब आने के साथ दरारें दिखने लगी हैं. महागठबंधन का एक प्रमुख घटक राजद नाराज है. गठबंधन की तरफ से उसे सिर्फ पलामू सीट दी गयी है, लेकिन उनके नेताओं का कहना है कि राजद चतरा सीट से भी जीतती रही है. इसलिए कम से कम दो सीटें उन्हें मिलनी चाहिए.

पार्टी की एक अन्य नेता और पूर्व सांसद अन्नपूर्णा देवी तो पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल हो गईं. जाहिर है कि पार्टी नीति-सिद्धांतों से ऊपर उन्होंने अपना राजनीतिक हित देखा और उम्मीद है कि वे कोडरमा सीट से भाजपा की प्रत्याशी होंगी.

कोडरमा शुरू से विवाद के केंद्र में रहा है. माले सहित वामदल महाठबंधन में शामिल होने के लिए तैयार थे, लेकिन माले कोडरमा सीट पर अपना दावा कर रही थी. वहां से माले प्रत्याशी को पिछले चुनाव में भाजपा के बाद सर्वाधिक वोट मिले थे और इस वजह से कोडरमा पर उनका दावा भी बनता था.

लेकिन झाविपा के बाबूलाल मरांडी की वजह से महागठबंधन के नेताओं ने माले का दावा खारिज कर दिया. बाबूलाल मरांडी खुद इस सीट से लड़ने वाले हैं. संसदीय राजनीति की पारी उन्होंने दुमका में शिबू सोरेन को हरा कर शुरू की थी, लेकिन बाद के चुनावों में वे उस सीट पर हारते रहे. 2004 के चुनाव में वे कोडरमा से लड़े और जीते थे, इसलिए वे कोडरमा सीट पर अपनी दावेदारी जताते रहे हैं.

इसके अलावा गोड्डा सीट भी महगठबंधन के अंदरुनी विवाद का एक कारण बन गया है. वह सीट बाबूलाल के दबाव से उनकी पार्टी को मिल गयी और वहां से प्रदीप यादव चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि कांग्रेस के फुरकान अंसारी उस सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे. अब फुरकान अंसारी तो नाराज हैं ही, राज्य के मुसलमान गठबंधन में एक भी सीट न मिलने की वजह से नाराज चल रहे हैं.

मुसलमानों के विभिन्न संगठनों की तरफ से नाराजगी भरी बयानबाजी आ रही है. उनके एक स्थानीय नेता वशीर अहमद का कहना है कि कांग्रेस और भाजपा में कोई फर्क नहीं. यदि कांग्रेस को हमारी फिक्र होती तो वे राज्य में कम से कम एक सीट तो किसी मुस्लिम नेता को देते.

इसके अलावा खूंटी सीट भी विवाद की वजह बनी हुई है. समझौते में यह सीट कांग्रेस को मिली है. यहां भाजपा ने इस बार कड़िया मुंडा की जगह अर्जुन मुंडा को टिकट दिया है. अर्जुन मुंडा एक दबंग नेता और झारखंड में कारपोरेट विकास के पैरोकार रहे हैं. अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उन्होंने मित्तल को खूंटी क्षेत्र में ही 25,000 एकड़ जमीन इस्पात कारखाना के लिए देने का अनुबंध किया था. प्रबल विरोध के बाद मित्तल का वह प्रोजेक्ट फिलहाल स्थगित है.

कांग्रेस अब तक उस सीट के लिए किसी उम्मीदवार का नाम तय नहीं कर सकी है. जन आंदोलनों की नेता के रूप में उभरी दयामनी बारला को यहां से प्रत्याशी बनाने की चर्चा तो है, लेकिन अब तक इस मामले में अंतिम फैसला नहीं लिया जा सका है. जबकि झामुमो के एक अन्य नेता पौलुस सुरीन यहां से चुनाव लड़ने पर अमादा हैं. उनका कहना है कि वे झामुमो के टिकट पर ही चुनाव लड़ना चाहते हैं, लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो वे किसी भी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं.

इन तमाम विवादों में झामुमो की भूमिका नकारात्मक रही है. दरअसल, झामुमो नेता हेमंत सोरेन ने कांग्रेस से यह आश्वासन प्राप्त कर लिया है कि झारखंड में विधानसभा चुनाव झामुमो के नेतृत्व में लड़ा जायेगा. इसलिए वह चार लोकसभा सीटों को लेकर संतुष्ट हैं और गठबंधन के अन्य दलों के बारे में उनकी राय है कि ‘‘बड़ी छलांग लगाने के लिए कंकर-पत्थर का भी सहारा लेना पड़ता है.’’

वे भूल जाते हैं कि आत्मविश्वास तो काम आता है, लेकिन अतिरिक्त आत्मविश्वास कभी-कभी बेड़ा गर्क भी कर देता है. रही कांग्रेस के आश्वासन की बात, तो एक बार सत्ता पर सवार होते ही उनके सुर बदलते देर नहीं लगेगी.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है)

share & View comments