वर्ष 1606 में, पांचवें सिख गुरु, गुरु अर्जन देव, को मुगल सम्राट जहांगीर ने पकड़ लिया और लाहौर किले में कैद कर लिया. इसका एक कारण था कि उन्होंने जहांगीर के विद्रोही पुत्र खुसरो को आशीर्वाद दिया था, और दूसरा कारण था कि उत्तरी भारत में उनका बढ़ते प्रभाव और सिख धर्म में तेजी से धर्मांतरण, जिसने रूढ़िवादी मुस्लिम मौलवियों के साथ-साथ हिंदू अभिजात्य वर्ग के भी मन में डर पैदा कर दिया था.
गुरु अर्जन देव को कैद करने के बाद, जहांगीर ने जुर्माने रूप में 2 लाख रुपये की मांग की और आदि ग्रंथ से उन सभी प्रसंगों को हटाने का आदेश दिया, जो कि हिंदुओं या मुसलमानों के लिए ‘अपमानजनक’ हो सकता था.
लेकिन गुरु अपनी बात पर दृःढ़ रहे और ग्रंथ से कुछ भी हटाने से इनकार कर दिया, इसलिए मुगल सम्राट ने उन्हें काफी सताया और मृत्युदंड दे दिया. प्रसिद्ध रूप से, गुरु को जलती हुई तवे पर बिठाया गया, उनके चेहरे पर गर्म रेत डाली गई. ऐसा कहा जाता है कि जब उन्हें 30 मई 1606 को रावी नदी में स्नान करने की अनुमति दी गई, तो वे कभी वापस नहीं लौटे. यहीं पर लाहौर में गुरुद्वारा डेरा साहिब स्थित है.
गुरु अर्जन देव की 457वीं जयंती पर, सिख धर्म पर उनके प्रभाव पर एक नज़र डालते हैं.
हरमंदिर साहिब का निर्माण
15 अप्रैल 1563 को गुरु रामदास और बीबी भानी के घर जन्मे अर्जन देव को उनके पिता ने अपना उत्तराधिकारी चुना था, भले ही वे सबसे छोटे बेटे थे. निर्णय को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन उनकी विरासत निर्विवाद है.
गुरु अर्जन देव के सबसे प्रत्यक्ष, मूर्त और प्रतिष्ठित योगदानों में से एक यह है कि उन्होंने अमृतसर में हरमंदिर साहिब, या स्वर्ण मंदिर के निर्माण की कल्पना की और उसका निर्माण शुरू किया.
अर्जन देव चाहते थे कि हरमंदिर साहिब सबको साथ मिलाकर चलने के लिए खड़ा हो, एक ऐसी जगह जहां सभी का स्वागत हो. इन्हीं मूल्यों के आधार पर उन्होंने मंदिर का डिजाइन तैयार किया, जिसमें चार प्रवेश द्वार और निकास द्वार हैं, जो 4 हिंदू जातियों और सभी धर्मों की स्वीकृति को दर्शाते हैं.
गुरु ने प्रसिद्ध मुस्लिम संत मिया मीर को भी मंदिर की आधारशिला रखने के लिए आमंत्रित किया. मंदिर को एक विशाल ऊंचा स्मारक बनाने के बजाय, उन्होंने इसे प्रतीकात्मक रूप से कम ऊंचाई पर रखने का फैसला किया, ताकि मंदिर में प्रवेश करने वाले अपने को कमतर न महसूस करें.
आदि ग्रंथ
गुरु अर्जन देव को आदि ग्रंथ को संकलित करने का श्रेय दिया जाता है, जो 1604 में पूरा हुआ था. यह गुरु नानक और 32 अन्य हिंदू और मुस्लिम संतों द्वारा रचित भजनों का संकलन है, जिसमें 2,000 से अधिक भजन शामिल हैं, जिन्हें उन्होंने स्वयं बनाया था. इसमें शेख फरीद, भगत कबीर, भगत रवि दास, धन्ना नामदेव, रामानंद, जय देव, त्रिलोचन, बेनी, पीपा और सूरदास की रचनाएं शामिल थीं.
आदि ग्रंथ को बाद में गुरु गोबिंद सिंह द्वारा परम गुरु बानी या भगवान के शब्द के रूप में घोषित किया गया था. बाद में इसमें गुरु तेग बहादुर द्वारा रचित 115 भजन जोड़े गए और बाद में यह आदि ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब बन गए.
आदि ग्रंथ की पहली प्रति गुरुद्वारा ठुम साहिब में करतारपुर में रखी गई है.
सिख धर्म पर प्रभाव
भले ही गुरु अर्जन देव ने सिखों के सबसे पवित्र ग्रंथ, आदि ग्रंथ और हरमंदिर साहिब को पूरा करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जो कि सिखों का सबसे पवित्र प्रतीक है, पर उनकी मृत्यु का धर्म पर काफी प्रभाव है.
जहांगीर द्वारा लाहौर बुलाए जाने से पहले जहां उन्हें पकड़ लिया गया था और बाद में मार दिया गया था, अर्जन देव ने अपने बेटे हरगोबिंद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था.
जब गुरु हरगोबिंद ने गद्दी संभाली, तो वे गुरु नानक के बाद से स्थापित कवि-गुरु परंपरा से विचलित होने वाले पहले सिख गुरु थे. अपनी कमर से लटकती दो तलवारों से लैस, हरगोबिंद ने सिख गुरु की पहचान बदल दी, जो यहां सिखों को मुगलों के उत्पीड़न से बचाने के लिए आए थे. गुरु अर्जन देव के बलिदान को सत्य के लिए बलिदान के रूप में देखा गया, और अत्याचार सहना गैर-सिख बन गया. गुरु की मृत्यु एक महत्त्वपूर्ण क्षण बन गया क्योंकि तब से सिखों का सैन्यीकरण शुरू हो गया था.
अर्जन देव की फांसी के साथ मुगलों और सिखों के बीच शुरू हुआ यह संघर्ष अंतिम गुरु, गोबिंद सिंह तक जारी रहा, जिन्होंने अंततः 1699 में सैन्यीकृत व्यवस्था खालसा की स्थापना की.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ेंः