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Monday, 4 November, 2024
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नक्सलवाद एक सामान्य अपराध नहीं है, न ही यह केवल कानून और व्यवस्था की समस्या है

नक्सलवादियों का सामाजिक आधार कानून और व्यवस्था की समस्या से कहीं आगे जाकर इसकी कहानी कहता है. बेरोजगार गरीब युवाओं, वंचित आदिवासियों, शोषित ग्रामीण मिलिशिया के अलावा कई शिक्षित युवा भी हैं, जो नक्सलवाद के रास्ते पर निकल पड़े हैं.

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गरीबों और आदिवासियों के बीच असंतोष बढ़ने के साथ ही नक्सलियों का आधार धीरे-धीरे व्यापक हो रहा है. गहरे घने जंगलों के भीतर भारी उद्योगों की घुसपैठ के साथ उसी अनुपात में नक्सलियों का आक्रोश भी बढ़ता जा रहा है. एक गांव, एक पुलिस स्टेशन से शुरू हुआ आंदोलन अब 20 राज्यों के 230 जिलों के 2,000 पुलिस स्टेशन तक फैल चुका है. कृषि संबंधी मुद्दों को लेकर जो आंदोलन शुरू किया गया था, आज वह सत्ता पर कब्जा करने के विचार और विचारधारा के साथ गति पकड़ चुका है. इसमें नक्सलवाद का सैन्यीकरण और इसका हिंसक रूप धारण करना सर्वाधिक चिंता का विषय है. सुरक्षाबलों के लिए नक्सलवाद सबसे बड़ी चुनौती है. वे इस संघर्ष में अपनी जान गंवा रहे हैं. कई बार माओवादियों द्वारा उन पर अचानक हमला बोल दिया जाता है. कई बार उन्हें प्रलोभन देकर फंसा लिया जाता है. सुरक्षाकर्मियों के लिए यह इलाका अनजाना है, वे उन लोगों से अजनबी हैं, जिन इलाकों में ऑपरेशन चलाया जाता है. नक्सलियों से लड़ने के लिए सुरक्षाकर्मी विभिन्न बलों से लिये जाते हैं, वे अलग-अलग संस्कृतियों से ताल्लुक रखते हैं..

युद्ध का सबसे मूल सिद्धांत होता है—‘अपने दुश्मन को जानो.’ भारत में माओवादी आंदोलन को ‘नक्सलवाद’ के नाम से पुकारा जाता है. आज नक्सली आंदोलन की कमान माओवादी पार्टी के हाथों में है, जिसे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) कहा जाता है. देश के विभिन्न इलाकों में जारी चरमपंथी माओवादी समूहों के लिए कई शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है, जैसे—नक्सल, नक्सली या नक्सलवादी. लेकिन इनमें से अधिकतर चारू मजूमदार के विचारों से प्रेरित हैं. इसे ‘वामपंथी चरमपंथ’ (एल.डब्ल्यू.ई.) भी कहा जाता है. नक्सलियों का कहना है कि वे भारतीय राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए हैं.

एक युद्ध (गुरिल्ला) में जीत हासिल करने के लिए मूल सिद्धांत होता है—दुश्मन की विचारधारा, रणनीति, कूटनीति, उनकी पार्टी, संगठन, उनकी ताकत और कमजोरियों के बारे में जानना.

सुरक्षाबल नक्सलियों के जन समर्थन, आय-व्यय, भरती-प्रशिक्षण, उनके पहनावे, आदतों, कौशल, तौर-तरीकों, साजिशों, दिनचर्या, बाहरी सूत्रों, साहित्य और प्रचार तथा ऑपरेशन को समझे बिना युद्ध (गुरिल्ला) क्षेत्र में जीत हासिल नहीं कर सकते. अगर नक्सलियों के खिलाफ लड़ रहे लोग उन्हें पूरी तरह से जान जाते हैं तो वे आधी लड़ाई जीत सकते हैं.

व्यावहारिक रूप से नक्सलियों से निपटने के अपने तीन साल के अनुभव के आधार पर मैंने निम्नलिखित तथ्यों को समझा और जाना है—नक्सली गतिविधियों से निपटनेवाले फील्ड स्तर के अधिकारी नक्सलवाद से पूर्ण रूप से अवगत नहीं हैं. स्टेशन हाउस ऑफिसर और दूसरे जवान नक्सलवाद को कानून-व्यवस्था से जुड़ी एक सामान्य समस्या मानकर उससे एक अपराध की तरह सुलझाने में लगे हैं. मैंने यह जरूरत महसूस की थी कि यदि फील्ड अफसरों को नक्सलवाद की बेहतर समझ होती तो वे इस समस्या से प्रभावी तरीके से लड़ सकते थे. उत्तर प्रदेश के सोनभद्र के पुलिस अधीक्षक के नाते मैंने 2003 में सभी अधीनस्थों के बीच यह पुस्तक बांटी थी. पुलिसकर्मियों की क्षमता के निर्माण और लक्ष्य के प्रति उन्हें एक उचित समझ प्रदान करने में यह लाभदायक साबित हुई. इसलिए मैंने सोचा कि यह पुस्तक न केवल सुरक्षाबलों के लिए लाभदायक साबित होगी, बल्कि उन लोगों को भी इससे काफी मदद मिलेगी, जो नक्सलवाद के बारे में जानने को उत्सुक हैं. इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य उन लोगों को नक्सलियों के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी उपलब्ध कराना है, जो ‘भारत की आंतरिक सुरक्षा के प्रति सबसे बड़े खतरे’ के बारे में जानना-समझना चाहते हैं. अपने दिमाग में इस उद्देश्य को सामने रखकर मैंने नक्सलवाद के विभिन्न पहलुओं का विस्तार से विश्लेषण करने का प्रयास किया है.

नक्सलवाद एक सामान्य अपराध नहीं है, न ही यह केवल कानून और व्यवस्था की समस्या है. नक्सलवादियों का सामाजिक आधार कानून और व्यवस्था की समस्या से कहीं आगे जाकर इसकी कहानी कहता है. बेरोजगार गरीब युवाओं, वंचित आदिवासियों, शोषित ग्रामीण मिलिशिया के अलावा कई शिक्षित युवा भी हैं, जो नक्सलवाद के रास्ते पर निकल पड़े हैं. शहरी इलाकों के कुछ बुद्धिजीवी भी नक्सली विधारधारा के प्रति सहानुभूति रखते हैं. 

(‘नक्सलवाद और समाज’, प्रभात प्रकाशन से छपी है. इस किताब की कीमत ₹300 है.)


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