अयोध्या पिछले 30 वर्षों से राजनीति के केंद्र में है और इसने कई सरकारों की नियति तय की है. हालांकि, ये साबित करने के लिए पर्याप्त पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद हैं कि अयोध्या में एक मंदिर को नष्ट किया गया था और मंदिर के अवशेषों का इस्तेमाल कर उसकी जगह एक मस्जिद तामीर कराई गई थी.
बाबरी मस्जिद पर उत्कीर्ण शिलालेख में लिखा था: ‘शहंशाह बाबर के हुक्म पर, जिनके न्याय की गूंज जन्नत तक है, नरमदिल मीर बक़ी ने फरिश्तों के उतरने की ये जगह तामीर की है. यह अच्छाई हमेशा कायम रहे.’
बाबरी मस्जिद के क़ातिब और मुअज़्ज़िन मोहम्मद असग़र ने फैज़ाबाद के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर के समक्ष 30 नवंबर 1858 को पेश अर्ज़ी के ज़रिए ‘बैरागियां-ए-जन्मस्थान’ के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही शुरू करने की अपील की थी.
यह भी पढ़ेंः अयोध्या कवरेज पर सर्वोच्च न्यायलय ने मीडिया पर लगाई रोक, पर भाजपा को इसे भुनाने से कौन रोक पाएगा
बाबरी मस्जिद हमेशा से ‘मस्जिद-ए-जन्मस्थान’ कहलाता रहा है, जबकि मस्जिद के दायरे में मेहराब और चबूतरे के पास स्थित प्रांगण ‘मुक़ाम जन्मस्थान का’ कहा जाता था. बैरागियों ने प्रांगण में एक चबूतरा बनाया था, जिसे हटवाने के लिए अर्ज़ी लगाई गई थी. असग़र ने अपनी अर्ज़ी में कहा था कि जन्मस्थान की जगह की देखरेख नहीं की जा रही थी और वह सैंकड़ो सालों से बदहाल पड़ी थी और हिंदू वहां पूजापाठ किया करते थे. (‘मुक़ाम जन्मस्थान
का सद-हबारस से परेशान पड़ा रहता था. अहले हनूद पूजा करते थे.’)
‘हदिका-ए-शुहादा’ आमिर अली अमेठवी की अगुवाई में हुए जिहाद के चश्मदीदी और खुद उसमें शामिल रहे मिर्ज़ा जान ने लिखी है. वाजिद अली शाह के शासनकाल में 1855 में ये जिहाद हिंदुओं से हनुमान गढ़ी छीनने के लिए हुआ था. यह जगह बाबरी मस्जिद से कुछ सौ गज दूर थी. मिर्ज़ा ने लिखा है कि ‘सैय्यद सलार मसूद गाज़ी का शासन स्थापित होने के बाद से जब भी उन्हें हिंदुओं के शानदार मंदिर दिखे, भारत के मुस्लिम शासकों ने उनकी जगह मस्जिद, मठ और सराय बनवाए; वहां मुअज़्जिनों, मौलवियों और भंडारपालों को नियुक्त किया; जोर-शोर से इस्लाम का प्रसार किया; और काफ़िरों का खात्मा किया.
इसी तरह, उन्होंने फैज़ाबाद और अवध को भी बुतपरस्तों की गंदगी से मुक्त कराया क्योंकि ये आस्था का एक महान केंद्र और राम के पिता की राजधानी थी. जहां एक महान मंदिर (राम जन्मस्थान का) खड़ा था, वहां उन्होंने एक बड़ी मस्जिद तामीर कराई, और जहां एक छोटा मंडप था, वहां उन्होंने एक छोटी मस्जिद (मस्जिदे मुख्तसरे कनाती) बनवा दी.
जन्मस्थान मंदिर राम के अवतार से जुड़ा प्रधान स्थल है, जिसके बगल में सीता की रसोई है. इसलिए, वहां 923 हिजरी (1528 ई.) में शहंशाह बाबर ने क्या शानदार मस्जिद बनवाई, जो मूसा आशिकां के संरक्षण में थी! मस्जिद को अभी भी दूरदराज़ के इलाक़ों में सीता की रसोई मस्जिद के नाम से जाना जाता है और वो मंदिर वहां बगल में मौजूद है (और पहलू में वह दयार बाकी है).’ यहां उल्लेखनीय है कि मिर्ज़ा जान ने पुराने रिकॉर्ड (कुलुबे सबीक़ा) और समकालीन विवरणों के आधार पर अपनी किताब लिखने का दावा किया था. इससे संबंधित एक और स्रोत शेख़ अज़मत अली काकोरवी नामी (1811-1893) लिखित ‘मराक़ा-ए-खुसरावी’ है जिसे ‘तारीखे अवध’ के नाम से भी जाना जाता है. काकोरवी नामी वाजिद अली शाह के शासन की अधिकतर घटनाओं का गवाह था.
वह लिखता है: ‘पुराने रिकॉर्डों के अनुसार, जहां भी कुफ़्र का ज़ोर दिखता, मुस्लिम शासकों का पहला सिद्धांत था मस्जिदों, मठों और सरायों का निर्माण, इस्लाम का प्रसार और गैरइस्लामी रस्मो-रिवाज़ पर रोक लगाना. लिहाजा जब वे मथुरा, वृंदावन आदि से गैरइस्लामी रिवाजों की गंदगी दूर कर रहे थे, फैजाबाद-अवध में 923 (?) हिजरी में सैय्यद मूसा आशिकां के संरक्षण में जन्मस्थान मंदिर (बुतखाने जन्मस्थान) की जगह बाबरी मस्जिद तामीर हो चुकी थी, जहां राम के पिता की राजधानी थी और जो हिंदुओं की आस्था की महान जगह थी. हिंदू इसे सीता की रसोई मानते थे.’
उर्दू के शुरुआती उपन्यासकार मिर्ज़ा रजब अली बेग सुरूर (1787-1867) की कृति ‘फ़साना-ए-इबरात’ में लिखा है कि ‘सीता की रसोई वाली जगह पर एक बड़ी मस्जिद बनवाई गई थी. बाबर के शासनकाल में, हिंदुओं में मुसलमानों का
मुक़ाबला करने के कूबत नहीं थी. मस्जिद सैय्यद मीर आशिकां के संरक्षण में 923 (?) हिजरी में तामीर हुई… औरंगज़ेब ने हनुमान गढ़ी में एक मस्जिद बनवाई थी… बैरागियों ने उसे नष्ट कर दिया और उसकी जगह एक मंदिर बना
डाला. फिर बाबरी मस्जिद में, जहां सीता की रसोई है, खुलेआम मूर्तियों की पूजा होने लगी.’
यह भी पढ़ेंः सुप्रीम कोर्ट ने 8 हफ्ते के लिए टाली अयोध्या मामले की सुनवाई
ना सिर्फ मुसलमानों के दर्ज़ ब्यौरे, बल्कि अंग्रेज़ी और अन्य यूरोपीय भाषाओं में भी यात्रियों के विवरण उपलब्ध हैं. इस क्षेत्र सें संबंधित ब्रितानी दस्तावेज़ों में भी मंदिर को गिराए जाने की कहानी दर्ज़ है. (देखें- पी. कार्नेगी की हिस्टोरिकल
स्केच ऑफ तहसील फैज़ाबाद, ज़िला फैज़ाबाद, लखनऊ, 1870; और एच. आर. नेविल की फैज़ाबाद डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर, इलाहाबाद, 1905) जेसुइट पादरी जोसेफ़ टेफेंथलर ने 1771 और 1776 के बीच अवध क्षेत्र में व्यापक भ्रमण किया था.
मंदिर-मस्जिद विवाद के बारे में वह लिखता है: ‘बादशाह औरंगजेब ने रामकोट नाम की एक गढ़ी को नष्ट कर दिया और उसके स्थान पर तीन गुंबदों वाला एक इस्लामी उपासना स्थल बनवा दिया. कइयों का कहना है कि इसे बाबर ने बनवाया है. गढ़ी की जगह काले पत्थरों के पांच बित्ता ऊंचाई के 14 खंभे देखे जा सकते हैं, जिनमें से 12 पर अब मस्जिद की भीतरी मेहराबें खड़ी हैं. 12 में से दो खंभे किसी मुस्लिम की कब्र पर अवस्थित हैं. ऐसा कहा जाता है कि इन खंभों, या शिल्पकारों द्वारा नक्काशी से सुसज्जित इनके हिस्सों, को वानरराज हनुमान लंका या सेलेनदीप, जिसे यूरोपवासी सीलोन कहते हैं, से लेकर आए थे.’
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि अयोध्या में 16वीं सदी में एक मंदिर को ध्वस्त करने और वहां मस्जिद बनाए जाने के समय से ही विवाद जारी है.
(लेखक दिल्ली विरासत अनुसंधान एवं प्रबंधन संस्थान के संस्थापक निदेशक हैं और वर्तमान में विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में विशिष्ट अध्येता हैं.)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)