अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया को अत्यधिक इनोवेटिव देश माना जाता है, जबकि भारत के साथ ऐसा नहीं है, लेकिन कई कारणों से यह एक गलत आकलन है.
बीते कई साल से रिसर्च एंड डेवलपमेंट (आर एंड डी) पर भारत के अपेक्षाकृत कम खर्च पर काफी चर्चा हुई है, लेकिन ज्यादातर डिस्कशन इस बिंदु के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं कि अगर भारत को आर एंड डी पर अधिक खर्च करता है, तो इसकी अर्थव्यवस्था मजबूत और अधिक आत्मनिर्भर होगी. हालांकि, आर एंड डी के बारे में यह सारी बातें दो प्रमुख बिंदुओं को कवर करती हैं, दोनों ही भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं.
पहला यह है कि आर एंड डी को अक्सर इनोवेशन के साथ जोड़ दिया जाता है, जो बाद में हमें सीमित करता है. आर एंड डी पर खर्च किए बिना इनोवेशन हो सकता है यह केवल इस पर निर्भर है कि आप इनोवेशन को कैसे परिभाषित करते हैं.
दूसरा बिंदु यह है कि आर एंड डी की बात अर्थव्यवस्था के लेबर पक्ष की अनदेखी करते हुए पूंजी के उपयोग के तरीके तक सीमित है. इस प्रकार, हेनरी फोर्ड की कारों के निर्माण की असेंबली लाइन तकनीक के लिए अमेरिका जैसे देशों की सराहना की जाती है, लेकिन भारतीय कंपनियों को इन शब्दों में 10 मिनट की होम-डिलीवरी सेवाओं के साथ आने की बात नहीं की जाती है, जिनकी आपको ज़रूरत पड़ सकती है.
रिसर्च और डेवलपमेंट के मामले में इस कैपिटल-लेबर असंतुलन का कारण इस तथ्य से निकला है कि अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे दुनिया के सबसे अधिक नव-प्रवर्तनशील देशों में लेबर की कमी है.
काफी हद तक गुलामी के दिनों में अमेरिका के पास सस्ती लेबर थी. जापान और दक्षिण कोरिया दोनों छोटे देश हैं जिनकी आबादी बराबर है.
लेबर की इस कमी का मतलब था कि इन देशों में लेबर की लागत निश्चित तौर पर अधिक रही होगी और इसलिए कंपनियों को कम लेबर का उपयोग करके अधिक उत्पादन करने के तरीकों का पता लगाना पड़ा. भले ही इसके लिए अधिक कैपिटल का इस्तेमाल हुआ हो, कारखानों और अन्य प्रक्रियाओं के ऑटोमेशन के साथ यह फिलॉसफी अब भी जारी है.
यहां तक कि चैट-जीपीटी जैसे इन्वेंशन्स का उद्देश्य लेबर को कम करना है. इसकी सोच यह है कि सुपर-फास्ट कंप्यूटर और विशाल सर्वर स्पेस में इन्वेस्ट करने के लिए एक जैसा काम करने के लिए लेबर्स को किराए पर लेने की तुलना में कहीं अधिक लागत-कुशल है.
यहां मुख्य बिंदु यह है कि इन पारंपरिक रूप से आर एंडडी वाले देशों में लेबर महंगी है और इसके मुकाबले कैपिटल सस्ता है. भारत में स्थिति इसके उल्ट है, यही वजह है कि आर एंड डी पर पूरी बहस को यहां की वास्तविकताओं के अनुकूल बनाने के लिए नए सिरे से तैयार करने की दरकार है.
भारत व्यापक रूप से लेबर-सरप्लस वाला देश है. अगर हम अभी तक नहीं हुए हैं तो, हम जल्द ही दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश होंगे. जहां तक आर्थिक मॉडल की बात है, हमारे मॉडल इस वास्तविकता को पूरा करते हैं. हमारे पास सस्ती लेबर है और इसलिए हमारी प्रक्रियाएं कैपिटल से कहीं अधिक उत्पादन के इस कारक पर निर्भर करती हैं. हम कैपिटल की बजाय लोगों को एक समस्या में डाल देंगे.
उदाहरण के तौर पर, एक सड़क के निर्माण की पर्याप्त गति नहीं है? अधिक लेबर्स को काम पर रखना होगा. एक सॉफ्टवेयर प्रोजेक्ट को एक डेडलाइन के भीतर पूरा करने की ज़रूरत है? अधिक इंजीनियर्स को हायर कर लीजिए…ऐसा होगा. इसलिए महसूस किया गया कि ऐसी मशीनों पर खर्च करना बेहतर है जो सड़कें बिछाएंगी, या ऐसा सॉफ्टवेयर जो एक ह्यूमन इंजीनियर का काम करतो हो.
और यह वैसा ही है जैसा कि हमेशा होता आया है. आप बहुत अधिक संख्या में मौजूद संसाधनों पर निर्भर हैं.
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बड़ा भारतीय अंतर
दरअसल, सवाल यह है कि अगर हमने ऐतिहासिक रूप से कैपिटल के बजाय लेबर को चुना है, तो कैपिटल में आर एंड डी पर अधिक खर्च करने का इतना दबाव क्यों है? किसी भी मामले में, जैसा कि पहले बताया गया है, आर एंड डी पर खर्च नहीं करने का मतलब यह नहीं है कि भारतीय कंपनियां इनोवेशन नहीं कर रही हैं. हमारे इनोवेशन्स केवल इस बात में निहित हैं कि हम कैपिटल का उपयोग कैसे करते हैं, न कि हम लेबर को कैसे एडजस्ट करते हैं.
स्विगी इंस्टामार्ट, ब्लिंकिट, या किसी भी अन्य ऐप का ऑर्डर दिए जाने के 10 मिनट के भीतर आपके दरवाजे पर ऑर्डर डिलीवर करना किसी इनोवेशन से कम नहीं है. वेयरहाउस यहां इनोशवन नहीं हैं, हालांकि उनकी रणनीतियां निश्चित रूप से पुराने मॉडलों में सुधार है. यह इनोवेशन डिलीवरी ड्राइवरों का एक प्लेटफॉर्म बनाने और उन्हें गोदाम से ग्राहक तक छोटे मार्गों पर तैनात करने में निहित है.
इसी तरह, ऐसे ऐप्स भी हैं जो आपको सामान को वर्चुअल ‘कार्ट’ में रखने की इज़ाज़त देते हैं, जो अगली सुबह आपके दरवाजे के बाहर पहुंच जाएंगे. कोई आपकी डॉरबेल नहीं बजाएगा, कोई कॉल नहीं आएगा, कोई ग्राहक नहीं उठेगा. उन्हें अपनी ग्रोसरिज़ उठाने के लिए बस अपना गेट खोलना होगा. यहां इनोवेशन इन ऐप का हाउसिंग सोसाइटीज के साथ समझौता है जो उनके डिलीवरी कर्मियों को गेट या ऐप नोटिफिकेशन से सामान्य कॉल के बिना प्रवेश की अनुमति देता है.
जिस तरह से हम एक दूसरे को सामान भेजते हैं, इसमें कई भारतीय कंपनियों ने भी क्रांति ला दी है. कई कंपनियां अब उसी दिन इंट्रा-सिटी कूरियर सेवाएं पेश कर रही हैं. फिर भी अन्य लोग डिलीवरी पार्टनर को आपकी पसंद के स्टोर पर जाने के लिए कहते हैं कि आपको क्या चाहिए और फिर उसे आप तक पहुंचाया जाता है.
और यहां जो अलग है वो यह है कि इनमें से किसी भी इनोवेशन के लिए आर एंड डी में इन्वेस्ट करने की ज़रूरत नहीं है. बजाय इसके अधिक वेयरहाउस में इन्वेस्ट करने और मौजूदा सॉफ्टवेयर में सुधार करने की दरकार है, लेकिन निश्चित रूप से आर एंड डी में नहीं.
भारत में पूरी गिग इकॉनमी है- जहां आपके पास सस्ते स्वतंत्र वकील, डॉक्टर, पत्रकार, अकाउंटेंट हैं-लेबर में एक इनोवेशन हैं.
इसका ये मतलब नहीं है कि इनमें से किसी भी इनोवेशन के लिए रिसर्च और डेवलपमेंट में इन्वेस्टमेंट महत्वपूर्ण नहीं है. इसकी ज़रूरत है क्योंकि यही एकमात्र तरीका है जिससे हम अपने द्वारा लगाए गए कैपिटल में सुधार कर सकेंगे. एक तरफ इसे और अधिक ऊर्जा-कुशल बनाएंगे और दूसरी तरफ अपनी इम्पोर्ट निर्भरता को कम कर पाएंगे.
दरअसल, जैसा कि
इस कॉलम में पहले भी तर्क दिया गया है, अगर हमें ज़रूरत के मुताबिक सेवाओं का पावरहाउस बनना है, तो हमें अपने लेबर-केंद्रित इनोवेशन्स की भी गति बढ़ानी होगी. इस संबंध में लेबर कोड्स एक महत्वपूर्ण डेवलपमेंट है और केंद्र को उन्हें जल्दी से लागू करने के लिए राज्यों पर निर्भर रहना चाहिए.
लेकिन आर एंड डी के बारे में इस बात को परिप्रेक्ष्य में रखना महत्वपूर्ण है. भारत एक इनोवेटिव देश है. यह सिर्फ उन क्षेत्रों में इनोवेशन करता है जो इसके लिए मायने रखते हैं, बजाय इसके कि पारंपरिक कैपिटल -गहन मॉडल में क्या फिट बैठता है.
(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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लेखक @SharadRaghavan पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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