भारत में क्रिकेट को कुछ लोग धर्म और खिलाड़ी को देवता तक कहते हैं. फिर भी पालवंकर बालू के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. भारतीय क्रिकेट के पहले सुपरस्टार क्रिकेटर बालू को आखिर क्यों भुला दिया गया? इसके लिए क्रिकेट की राजनीति और समाजशास्त्र को समझना होगा और उसके जातिवादी चरित्र को भी जानना होगा.
बालू पालवंकर का जन्म 1876 में वर्तमान कर्नाटक के धारवाड़ में दलित परिवार में हुआ. दलित होने की वजह से उन्हें बहुत संघर्ष और यातनाएं झेलनी पड़ीं. रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘ए कॉर्नर ऑफ़ फॉरेन फील्ड’ में पालवंकर बालू की जिंदगी पर विस्तार से लिखा है.
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उस समय भारतीय क्रिकेट में धर्म और जाति आधारित टीमें होती थीं. पारसी, हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश क्लब के बीच मैच होते थे. शुरू में पालवंकर मजदूर के तौर पर पारसी क्लब के लिए क्रिकेट पिच तैयार करते थे. 1892 में वह पुणे चले गए, जहां यूरोपियन क्रिकेट क्लब के लिए प्रैक्टिस नेट लगाने से लेकर पिच साफ करने का काम करने लगे. इसी दौरान यूरोपियन बल्लेबाज मिस्टर ट्रॉस और ग्रेग ने पालवंकर को नेट में गेंदबाजी करने के लिए प्रेरित किया. पालवंकर नेट में ग्रेग को बाएं हाथ से स्पिन बॉलिंग डालते.
यहीं से जन्म हुआ एक महान स्पिनर का. पालवंकर को दलित होने की वजह से बैटिंग नहीं मिलती. उस समय क्रिकेट में मजदूरों को सिर्फ बॉलिंग मिलती थी और अभिजात्य वर्ग बैटिंग करता था.
लगान फिल्म का कचरा और पालवंकर
लगान फिल्म के कचरा और पालवंकर में बहुत समानता है. लगान फिल्म में कचरा की ताथाकथित अछूत जाति की वजह से बाकी हिन्दू उसके साथ नहीं खेलना चाहते. लेकिन कचरा को टीम में रखना उनकी मजबूरी है. कचरा की फिरकी, स्पिन बॉलिंग की बदौलत ही वे लोग अंग्रेजों को हराने में सक्षम हो पाते हैं. पालवंकर को भी मज़बूरी में ही सही, हिन्दू अपनी टीम में रखते हैं.
मराठी इतिहासकार सदानंद मोरे का मानना है कि ‘उस समय हिन्दू टीम अंग्रेजों की तुलना में काफी कमजोर थी, लेकिन पालवंकर को टीम में रखने के बाद वह अंग्रेजो की बराबरी में आ गयी.’ 1906 में पालवंकर की शानदार स्पिन बॉलिंग के दम पर पहली बार हिन्दुओं की टीम ‘हिन्दू जिमखाना’ अंग्रेजों को हरा पायी. दलित होने की वजह से क्रिकेट टीम में भी पालवंकर के साथ छुआछूत, भेदभाव हुआ. उन्हें अलग खाना पानी मिलता. उन्हें कप्तान नहीं बनने दिया गया.
भारतीय क्रिकेट का पहला सुपरस्टार क्रिकेटर
रामचन्द्र गुहा का मानना है की भारतीय क्रिकेट का पहला महान और सुपरस्टार क्रिकेटर सीके नायडू नहीं, बल्कि पालवंकर थे. लेकिन दलित होने की वजह से उन्हें भुला दिया गया. उस समय प्रथम श्रेणी के ही मैच होते थे. पालवंकर ने प्रथम श्रेणी के 33 मैचों में 15 की औसत से 179 विकेट लिए. इसमें 17 बार पांच विकेट थे.
यह असाधारण रिकॉर्ड है. खासकर ये देखते हुए की उन दिनों मैच कोयर मैटिंग की पिच अर्थात नारियल के रेशे की बनी चटाई पर होता था. मिट्टी की नेचुरल पिच पर उनसे खतरनाक कोई स्पिनर नहीं था. उस समय पालवंकर के खिलाफ खेलने वाले एम ई पवरी पालवंकर को स्टिकी विकेट पर सबसे घातक बॉलर मानते थे. क्रिकेट लेखक बोरिया मजूमदार और शशि थरूर भी पालवंकर को अपने समय का बेस्ट स्पिनर मानते हैं. पालवंकर निचले क्रम में उपयोगी बल्लेबाज भी थे.
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जब राष्ट्रवाद पर भी भारी पड़ा ब्राह्मणवाद
भारत में क्रिकेट का पितामह राजा रणजीत सिंह को माना जाता है, पालवंकर को नहीं. रणजीत सिंह के नाम 1934 में रणजी ट्रॉफी शुरू हुई. यह भारत का सबसे प्रतिष्ठित घरेलू क्रिकेट टूर्नामेंट है. लेकिन रणजीत सिंह ने तो किसी भारतीय क्लब के लिए खेला ही नहीं. उन्होंने 15 अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट मैच इंग्लैंड के लिए खेले. प्रथम श्रेणी के सारे मैच इंग्लैण्ड में कैम्ब्रिज और ससेक्स क्लब के लिए खेले. इसके अलावा रणजीत प्रथम विश्वयुद्ध में कर्नल पद पर अंग्रेजों के लिए सेवा दे रहे थे.
इसके विपरीत पालवंकर ने भारतीय क्लब के लिए अंग्रेजों के खिलाफ खेला. 1905 में जब बंगाल विभाजन के विरोध में राष्ट्रवादी भावनाएं चरम पर थीं. उसके एक वर्ष बाद 1906 में एक भारतीय क्लब ‘हिन्दू जिमखाना’ ने पालवंकर के शानदार गेंदबाजी के दम पर पहली बार ब्रिटिश क्लब के खिलाफ जीत दर्ज की. यह फाइनल मैच था. इस जीत को राष्ट्रीय स्तर पर सेलिब्रेट किया गया.
1911 में भारत के कई क्लबों को मिला कर एक टीम बनी, जो खेलने इंग्लैंड गयी. यह टीम 10 मैच हारी और मात्र दो जीती. लेकिन पालवंकर ने निजी तौर पर शानदार प्रदर्शन किया. उन्होंने 114 विकेट (कहीं यह आंकड़ा 87 भी है) लिए और 376 रन भी बनाये. उनके प्रदर्शन को पूरे भारत में सराहा गया. इस तरह अगर राष्ट्रवाद के भी नजरिये से देखें तो भारतीय क्रिकेट के पितामह पालवंकर हैं. रणजी ट्रॉफी का नाम पालवंकर ट्रॉफी होना चाहिए. इंग्लैंड के लिए और इंग्लैंड में खेलने वाले रणजीत सिंह के नाम पर रणजी ट्रॉफी क्यों होनी चाहिए? कारण स्पष्ट है.
आंबेडकर भी मानते थे अपना नायक
पालवंकर एक अखिल भारतीय दलित नायक थे. उनके प्रदर्शन की खबर मद्रास तक छपती थी. आंबेडकर अपने युवाकाल से ही पालवंकर को अपना हीरो मानते थे. उन्होंने बालू को सम्मानित करने के लिए बम्बई में एक कार्यक्रम भी आयोजित किया था. वह मानते थे पालवंकर दलितों के हीरो और प्रेरणास्रोत हैं. बाबा साहेब ने 1926 -27 में अपने समाज सुधार कार्यक्रमों के दौरान दलित बस्तियों में पालवंकर के बारे में चर्चा जरूर करते.
भारत का प्रथम क्रिकेट परिवार
पालवंकर बालू चार भाई थे और चारों ने क्रिकेट खेला. पालवंकर, विट्ठल, गणपत और शिवराम. विट्ठल बहुत शानदार बल्लेबाज थे. 1911 के इंग्लैंड दौरे पर उन्होंने शतक भी लगाया. विजय मर्चेंट जैसे क्रिकेटर विट्ठल को अपना हीरो मानते थे. 1923 में विट्ठल हिन्दुओं की टीम के कप्तान बनने वाले पहले दलित थे. यह उनके लम्बे संघर्ष का नतीजा था क्योंकि उस समय टीम के कप्तान उच्च जाति के ही खिलाड़ी होते थे. छुआछूत, भेदभाव से संघर्ष कर दोनों भाई बुलंदी पर पहुंचे. लेकिन इन दोनों नायको को जान बूझकर गुमनामी के अंधेरे में डाल दिया गया.
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खेल पुरस्कारों का ‘द्रोणाचारी’ चरित्र
जिस देश में अब भी एकलव्य का अंगूठा काटने वाले द्रोणाचार्य के नाम पर खेलों के श्रेष्ठ कोच या प्रशिक्षक का पुरस्कार मिलता हो, वहां तो दलित नायकों की उपेक्षा होगी ही. क्रिकेट में देवधर के नाम पर देवधर ट्रॉफी है और सीके नायडू के नाम पर अवार्ड दिया जाता है. लेकिन कालक्रम और प्रदर्शन के हिसाब से देखा जाये तो पालवंकर, देवधर और नायडू से पहले आते हैं. फिर भी उनके नाम पर न कोई ट्रॉफी, न ही पुरस्कार है. ओलम्पिक खेलों में भारत के लिए पहला व्यक्तिगत स्पर्धा में मेडल जीतने वाले के डी जाधव को भी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा. जाधव दलित थे और 1952 ओलम्पिक में कुश्ती प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीता था. किसी निजी स्पर्धा में किसी भारतीय को मिला यह पहला ओलम्पिक मेडल है. लेकिन जाधव ओलम्पिक में मेडल जीतकर भी पद्म पुरस्कार न पाने वाले एकलौते खिलाड़ी हैं.
इस साल क्रिकेट का विश्व कप होने वाला है. इसलिए भारतीय क्रिकेट के पहले सुपरस्टार पालवंकर को याद करिये जिस तरह से इंग्लैंड अपने क्रिकेट के पितामह डब्ल्यू जी ग्रेस को याद करता है.
(लेखक जेएनयू में पीएचडी स्कॉलर हैं.)