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Thursday, 21 November, 2024
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भीम आर्मी चीफ से मिलकर प्रियंका गांधी वाड्रा ने क्या हासिल किया?

क्या भीम आर्मी इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी की एक प्रमुख नेता चुनाव के बीच में उसके मुखिया से मिलने जाए.

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पिछले दिनों की एक चर्चित राजनीतिक मुलाकात ने लोगों को कई तरह से चौंकाया है. कांग्रेस की महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा ने जब ये तय किया कि वे मेरठ के एक अस्पताल में भर्ती भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद से मिलने जाएंगी, तो लोगों की पहली प्रतिक्रिया यही रही कि ये मुलाकात क्यों हो रही है? इससे प्रियंका गांधी और कांग्रेस क्या हासिल करना चाहती हैं?

बहरहाल, जब ये मुलाकात हुई, तो घटनाक्रम कुछ अलग ही तरीके से चला. प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस के एक और महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया और उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर के साथ एसपीजी सुरक्षा में पूरे तामझाम के साथ मेरठ के उस औसत से अस्पताल में पहुंची, जहां दूसरे मंजिल पर चंद्रशेखर भर्ती थे. पुलिस और प्रशासन के उच्च अधिकारी और कांग्रेस के तमाम स्थानीय नेता वहां मौजूद थे. प्रियंका का कारवां वहां पहुंचते ही अस्पताल के अधिकारी और प्रशासन के लोग सीधे उन्हें लेकर दूसरे मंजिल पर पहुंचे.

लेकिन प्रियंका और कांग्रेस के अन्य नेताओं को वहां एक झटका लगा.


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अस्पताल के कमरे के बाहर खड़े भीम आर्मी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें बताया कि वे ‘भाई’ से नहीं मिल सकतीं. उनके पास भाई की तरफ से कोई मैसेज नहीं आया है. मजबूरी में प्रियंका और कांग्रेस की टीम के उसी फ्लोर के एक अन्य कमरे में बैठना पड़ा. इस बीच मीडिया को ‘खबर’ लीक हो गई कि भीम आर्मी प्रमुख ने प्रियंका से मिलने से इनकार कर दिया है. हालांकि, थोड़ी देर बाद कांग्रेस के नेताओं को चंद्रशेखर की तरफ से संदेश आया कि वे कमरे में आ सकते हैं.

इसके बाद वो चर्चित मुलाकात हुई, जिसके बारे में लोगों को अब पता है.

चंद्रशेखर आजाद ने ऐसा क्यों किया होगा? उन्हें तीन घंटे पहले बता दिया गया था कि प्रियंका उनसे मिलने आ रही हैं. फिर भी उन्होंने सबको इंतजार कराया. कोई भी इसे अक्खड़पन या गंवारपन कह सकता है. चाहे तो कोई ये भी कह सकता है कि चंद्रशेखर का दिमाग खराब हो गया है.

लेकिन ये इस घटना को देखने का एक नजरिया है. इस घटना को अगर आप दलित नजरिए से देखें, तो पता चलेगा कि खासकर युवा दलितों को चंद्रशेखर का ये अक्खड़ व्यवहार पसंद आया होगा. अपने नेता का ये अक्खड़पन उनकी उन आहत भावनाओं के लिए मरहम का काम करता है, जो उन्हें सदियों से झेलना पड़ा है. दलितों के लिए अवमानना या अपमान किताब में छपे शब्द या फिल्म के सीन नहीं हैं. ये उनके जीवन का यथार्थ है. अपमान को वे जीते हैं. इसलिए जब उनके बीच का कोई आदमी सवर्णों को उनके अंदाज में ट्रीट करे, तो वे उसे पसंद करते हैं.

खैर, प्रियंका गांधी वाड्रा और कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल ने इस बात का बुरा नहीं माना और बातचीत सौहार्दपूर्ण माहौल में हुई.

लेकिन ये सवाल फिर भी अनुत्तरित रह गया कि प्रियंका ने ये मुलाकात क्यों की. इसके तीन संभावित उत्तर हो सकते हैं.

एक, प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में वह करने की कोशिश कर रही है, जो पिछले 30 साल में कांग्रेस का कोई नेता नहीं कर पाया. यानी दलितों को फिर से कांग्रेस से जोड़ना. दरअसल 80 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरुआत आते आते यूपी के दलित कांग्रेस से छिटक चुके थे. बहुजन समाज पार्टी के रूप में उनको अपनी पार्टी मिल चुकी थी. 1995 में उन्होंने मायावती के रूप में देश के सबसे बड़े राज्य में अपना मुख्यमंत्री बना लिया था. दलित अब तक कांग्रेस के कैप्टिव वोट बैंक हुआ करते थे तब तक ब्राह्मण-दलित-मुसलमान समीकरण के बूते कांग्रेस यूपी और देश पर राज कर रही थी. हालांकि बाकी कई समुदाय भी अलग अलग जगहों पर कांग्रेस के साथ थे, लेकिन उसका कोर वोट ब्राह्मण-दलित-मुसलमान ही हुआ करता था.


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इसी दौरान बाबरी मस्जिद को बचाने में कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की नाकामी के कारण मुसलमान भी कांग्रेस से खफा हो गए. और जब दलित और मुसलमान साथ नहीं रहे, तो ब्राह्मण कांग्रेस में रहकर क्या करते? वैसे भी उनके मन की बात करने वाली बीजेपी का उभार हो ही चुका था. ऐसी स्थिति में कांग्रेस की दुर्गति हो गई और 2017 में तो 403 सदस्यीय यूपी विधानसभा में कांग्रेस के सिर्फ 8 एमएलए चुनकर आए तो अपना दल के 9 सदस्यीय विधायक दल से भी कम थे. प्रियंका का प्रोजेक्ट कांग्रेस को इस दुर्गति से बाहर निकालना है.

चंद्रशेखर आजाद अपना क्या राजनीतिक सफर तय करते हैं, ये वो जानें. वे कांग्रेस के साथ क्या रिश्ता बनाते हैं, ये भी उनको और कांग्रेस को ही मालूम होगा. लेकिन प्रियंका का गणित शायद ये है कि दलितों के एक नेता, जिसका बेहिसाब दमन बीजेपी शासन में हुआ, के साथ सहानुभूति जताकर वे दलितों को ये संदेश दे पाएंगी कि कांग्रेस अब उनके साथ रिश्ता जोड़ना चाहती हैं.

दो, कांग्रेस इस समय नरेंद्र मोदी और बीजेपी के साथ तीखे सत्ता संघर्ष में उलझी है और उत्तर प्रदेश इस सत्ता संघर्ष के हिसाब से बेहद महत्वपूर्ण है. कांग्रेस अकेले लड़कर वहां कोई बड़ा चमत्कार करने की नहीं सोच सकती. लेकिन यदि उसे सपा-बसपा गठबंधन में साझीदार बनाया जाता है तो उसकी संभावना उज्ज्वल हो सकती है. इसमें सबसे बड़ी अड़चन बीएसपी और बहनजी के तरफ से आ रही है.

कांग्रेस का का गणित शायद ये है कि दलितों के एक ऐसे नेता से सार्वजनिक रूप से मिलने से, जो बीएसपी में नहीं है, बीएसपी पर गठबंधन करने का दबाव पड़ेगा. दरअसल मायावती और चंद्रशेखर दोनों दलितों की जाटव बिरादरी हैं, जिसका वोट यूपी में सबसे ज्यादा है. कांग्रेस एक और जाटव नेता को आगे बढ़ाकर मायावती को शायद ये संदेश देने की कोशिश कर रही है कि अगर आप हमें अपने खेमे में नहीं लेती हैं तो हम आपकी ही बिरादरी से आपका विकल्प खड़ा कर देंगे. कहना मुश्किल है कि दबाव की इस राजनीति का अंतिम परिणाम क्या होगा. फिलहाल तो बीएसपी ऐसे किसी दबाव में झुकती नजर नहीं आती.


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तीन, चंद्रशेखर आजाद दरअसल एक प्रतीक हैं, जो ये दिखाता है कि नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के शासनकाल में दलितों के साथ किस तरह का बर्ताव हुआ. चंद्रशेखर को 16 महीने जेल में बिताने पड़े और उनके खिलाफ दो बार राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) लगाया गया. ठाकुरों के साथ सहारनपुर के जिस झगड़े की वजह से ये सब हुआ, उसमें घर दलितों के जले, हमला उनके घरों पर हुआ, लेकिन एनएसए हमला करने वाले ठाकुरों पर नहीं, दलितों के नेता चंद्रशेखर पर लगा. चुनावी माहौल में चंद्रशेखर से अस्पताल में मुलाकात करके प्रियंका ने दलितों को ये याद दिलाया है कि बीजेपी का शासन उनके लिए कितना अत्याचारी था.

वैसे, इन सबके बीच सोचने की बात ये भी है कि चंद्रशेखर आजाद की खराब सेहत के बावजूद सपा और उससे भी ज्यादा बसपा के नेता उससे मिलने क्यों नहीं आए?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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