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Monday, 25 November, 2024
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लंबी अवधि के पूंजीगत लाभ से होने वाले लाभ को खत्म किया तो निवेशक जोखिम की राह पकड़ लेंगे

दीर्घकालिक पूंजीगत लाभों पर टैक्स में छूट को अचानक खत्म करने से पहले सरकार को टैक्स व्यवस्था में एकरूपता लाने की कोशिश करनी चाहिए थी या संसद में इस मसले पर बहस तो करवानी ही चाहिए थी.

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सरकार ने ऋणपत्रों से होने वाले दीर्घकालिक पूंजीगत लाभों पर टैक्स में छूट को अचानक खत्म करके एक गूगली जैसी चाल चल दी है. इस फैसले को उसने संसद में बिना बहस के पारित कराए गए वित्त विधेयक में अंतिम समय में शामिल किया.

भारत में पूंजीगत लाभ पर टैक्स की दरें काफी उदार रही हैं और अधिकांश एसेट-होल्डरों और मोटी कमाई करने वालों की तरफदार रही हैं. इसलिए समीक्षा जरूरी तो थी लेकिन सरकार के इस तरह टुकड़े-टुकड़े वाले कदम की नहीं.

पहला मसला सिद्धांत का है कि ‘बिना काम किए की गई’ आय पर टैक्स की दर ‘काम करके की गई’ आय पर टैक्स की दर से कम नहीं होनी चाहिए. हर कोई इस सिद्धांत को नहीं मानता, और इस बात पर बहस हो सकती है कि ‘काम करके की गई’ आय क्या है और ‘बिना काम किए की गई’ आय क्या है. अपनी पूंजी का बुद्धिमानी से निवेश करने के लिए आपको निश्चित ही काम करना पड़ता है लेकिन इसमें आपसे ज्यादा आपकी पूंजी आपके लिए काम करती है. जो भी हो, किसी के साथ ज्यादा पक्षपात करने की जरूरत नहीं है. लेकिन इस तरह के तर्क की उपेक्षा कर दी जाती है क्योंकि अधिकतर देश पूंजीगत लाभ पर टैक्स की उदार दरें लगाते हैं.

यह इस बात से काफी प्रभावित होता है कि पूंजी कामगारों के मुक़ाबले ज्यादा आसानी से सीमाएं पार कर जाती है, और जिस देश में पूंजीगत लाभ पर टैक्स की सख्त दरें होती हैं वहां से अगर पूंजी बाहर नहीं जाती तो भी उसे विदेशी पोर्टफोलियो से कम निवेश हासिल होता है. यानी व्यावहारिकता को तरजीह दी जाती है.

फिर भी, आमदनी तथा संपत्ति के मामले में बढ़ती असमानता वाली इस दुनिया में पूंजीगत लाभ पर टैक्स के मामले में उदारता का समर्थन करना मुश्किल होता जाता है. लेकिन सवाल यह है कि टैक्स किस पर लगाया जाए, संपत्ति पर या उससे होने वाली आय पर या दोनों पर?

अधिकतर देश संपत्ति पर किसी प्रकार का टैक्स लगाते हैं और कुछ आसान छिद्र भी छोड़ दिए जाते हैं. भारत अलग तरह का देश है क्योंकि उसने जायदाद शुल्क और संपत्ति कर को खत्म कर दिया है, और यहां वंशजों और करीबी रिश्तेदारों को दिए जाने वाले उपहार पर टैक्स नहीं लगता. बेशक पहला हमला इस पर होना चाहिए क्योंकि संपत्ति पर कोई टैक्स न हो तो एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी के बीच असमानता बढ़ती है. इसका व्यावहारिक जवाब यह है कि आप ज्यादा कमाई नहीं कर सकते.

निवेश की गई संपत्ति से लाभ पर टैक्स लगाने की बात जब आती है तब न तो दरों में एकरूपता है (जो 10, 15, 20 फीसदी, और स्लैब रेट में होती हैं) और न होल्डिंग की मियाद में एकरूपता है (जो भिन्न-भिन्न संपत्तियों के लिए एक, दो, तीन साल की होती हैं).


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कुछ संपत्तियों पर टैक्स एक कीमत सूचकांक के जरिए मूल्य के समायोजन के बाद ही तय किया जाता है (ताकि मुद्रास्फीति को बेअसर किया जा सके), जबकि दूसरों को ऐसे सूचकांक का लाभ (इनडेक्सेशन) नहीं मिलता. सूचकांक के जरिए समायोजन का तरीका यह है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें रियल एस्टेट के लिए संपत्ति मूल्य वृद्धि के आकलन से काफी फर्क हो सकता है.

इनडेक्सेशन (जिसे सरकार ने इक्विटी के लिए नहीं बल्कि दीर्घकालिक ऋण होल्डिंग के लिए अभी-अभी खत्म कर दिया है) उसका आसानी से बचाव किया जा सकता है क्योंकि औपचारिक क्षेत्र में वेतन को प्रायः महंगाई से जोड़ा जाता है. न्यूनतम मजदूरी को भी समय-समय पर महंगाई के हिसाब से बदला जाता है. और अनौपचारिक श्रम बाजार में वास्तविक इनडेक्सेशन के प्रमाण मिलते हैं, भले ही वह कमजोर किस्म का हो. इसलिए पूंजी के मामले में इनडेक्सेशन की पेशकश न करने का कोई कारण नहीं है बशर्ते आप वक़्त के साथ पूंजी के वास्तविक मूल्य को घटाना न चाहते हों (ताकि अमीर की अमीरी घटे).

ऋण बाजार में दिक्कत यह है कि बैंक डिपॉजिट पर मिलने वाले ब्याज पर बिना इनडेक्सेशन के टैक्स लगाया जाता है, जिससे अवसर की असमानता पैदा होती है. इसे यह कहकर उचित ठहराया जाता है कि म्यूचुअल फंड के विपरीत बैंक डिपॉजिट फिक्स रेट पर की जाती है और उसमें सुरक्षा का तत्व काफी मजबूत होता है, जबकि म्यूचुअल फंड में लाभ बदलता है और आप अपना पैसा गंवा भी सकते हैं. पीपीएफ और लघु बचत के कई साधनों की तरह फिक्स्ड ब्याज वाली बचत योजनाओं पर भी शुरू में टैक्स में छूट मिलती है, जो बाजार में सूचीबद्ध साधनों के लिए नहीं होती. सभी पूंजीगत लाभों पर बेहतर दर पेश करके मामले को सरल बनाया जा सकता है, जैसा कि कुछ विकसित देशों ने किया है. इससे साधारण निवेशक और अमीर निवेशक में अंतर हो सकेगा.

जबकि इतने सारे मसले विचार के लिए हैं तब सरकार ने ज्यादा अहम मसलों से उलझने से पहले (लागू होने वाली टैक्स दर और इंडेक्सेशन की अवधि को लेकर) समरूपता लाने की कोशिश की होती तो बेहतर होता. जो भी हो, इन मसलों पर, खासकर उनके प्रभावों के मद्देनजर, संसद में और बाहर भी विचार-विमर्श होना चाहिए था. जैसा कि होता है, सरकार के फैसले निवेशकों को जोखिम वाले इक्विटी की ओर जाने को या बैंक डिपॉजिट का सहारा लेने को मजबूर कर सकते हैं, और इस तरह ऋण बाजार पर नकारात्मक असर दाल सकते हैं जबकि उसे फलना-फूलना चाहिए.

(विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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