पिछले सप्ताह ‘इंटर सर्विसेज ऑर्गनाइजेशन (कमांड, कंट्रोल, डिसिप्लीन) बिल 2023’ लोकसभा में पेश किया गया. यह बिल सेना में ‘इंटर सर्विसेज ऑर्गनाइजेशन’ के कमांडर-इन-चीफ या अफसर-इन-कमांड को अपने महकमे के कर्मचारियों पर प्रशासनिक तथा अनुशासनात्मक अधिकारों का इस्तेमाल करने के अधिकार देता है. ये अधिकार तय कर दिए गए हैं. लेकिन अनुशासनात्मक कार्रवाई थलसेना, वायुसेना, नौसेना एक्ट के तहत संबंधित कर्मचारी पर लागू होने वाले नियमों के तहत की जाएगी.
अब तक यह होता आ रहा था कि इंटर सर्विस संस्थान वेलिंगटन के डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज में तैनात नौसेना का कोई अधिकारी या कर्मचारी कोई अपराध करता था तो कमांडेंट यानी तीन सितारों वाला जनरल उसे किसी नौसैनिक संगठन में वापस भेज देता था जहां उस पर नेवी एक्ट 1957 के तहत कार्रवाई की जाती थी. लेकिन कमांडेंट को एक थलसेना अधिकारी होने के नाते यह अधिकार नहीं हासिल था. नया बिल इस गड़बड़ी को ठीक कर रहा है, जिसका लंबे समय से इंतजार था.
यह बिल प्रक्रियाओं को सरल बनाता है और मामले के जल्द निबटारे की व्यवस्था करता है जिससे कई प्रक्रियाएं खत्म होंगी और समय तथा सार्वजनिक धन की बचत होगी. लेकिन यह न्याय पाने के मामले में समान अवसर नहीं उपलब्ध कराता क्योंकि कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई उनकी अपनी सेना के एक्ट के तहत ही हो सकती है. तीनों सेनाओं के कर्मियों के समूह द्वारा किए गए साझा अपराध के लिए उन पर किसी कॉमन कोड के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती क्योंकि अलग-अलग सेना के संबंधित एक्ट समान नहीं हैं. इसलिए अपराध अगर एक जैसे भी होंगे तो न्याय करने में फर्क होगा.
थल/वायु/नौ सेना एक्ट की असमानताएं
कोर्ट मार्शल के मामले को ही लें. आर्मी एक्ट 1950 में चार तरह के कोर्ट मार्शल बताए गए हैं— जेनरल, डिस्ट्रिक्ट, समरी जेनरल, और समरी कोर्ट मार्शल (एससीएम). एससीएम जेसीओ रैंक से नीचे के कर्मियों का कोर्ट मार्शल कर सकता है और बरखास्त करने से लेकर एक साल कैद की सज़ा तक दे सकता है.
एयर फोर्स एक्ट 1950 में एससीएम का प्रावधान नहीं है. नेवी एक्ट में, शांति काल में एक तरह के कोर्ट मारहल, और युद्ध काल में अनुशासन ट्रिबुनल का प्रावधान किया गया है. नेवी एक्ट के तहत कन्वेनिंग ऑथरिटी कोर्ट मार्शल के अध्यक्ष को नामजद करती है. आर्मी और एयर फोर्स एक्ट में वरिष्ठतम अधिकारी को अध्यक्ष बनाने का प्रावधान है.
कोर्ट मार्शल द्वारा की गई जांच और किए गए फैसले की पुष्टि की प्रक्रिया में भी अंतर है. आर्मी और एयर फोर्स में फैसले की पुष्टि या संशोधन किया जा सकता है. नौसेना में इनकी पुष्टि की जरूरत नहीं होती और वे तुरंत लागू हो जाते हैं, सिवा मौत की सज़ा के, जिसके लिए केंद्र सरकार से पुष्टि जरूरी होती है.
जज एडवोकेट की भूमिका में भी अंतर है. आर्मी और एयर फोर्स में डिस्ट्रिक्ट और समरी जेनरल कोर्ट मार्शल के लिए उनकी उपस्थिति जरूरी नहीं होती. नौसेना में हरेक कोर्ट मार्शल में जज एडवोकेट जरूरी है लेकिन कोर्ट जब जांच पर विचार कर रहा हो तब वह उसमें भाग नहीं लेता. आर्मी और एयर फोर्स में जज एडवोकेट जांच पर विचार-विमर्श में भाग लेता है.
सज़ा देने के अधिकारों के मामले में भी अंतर है. आर्मी और एयर फोर्स में कमांडिंग अफसर संक्षिप्त सुनवाई के बाद एनसीओ से नीचे रैंक के कर्मी को 28 दिनों की हिरासत की सज़ा दे सकता है. नौसेना में पोत का कमांडिंग अफसर अधिकारी के सिवा किसी कर्मी की संक्षिप्त सुनवाई मृत्युदंड वाले अपराध से इतर दूसरे मामले में कर सकता है और तीन महीने तक कैद की सज़ा दे सकता है.
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सबके लिए समान नियम बनाने की कोशिशें
अलग-अलग सेना के मामले में अंतर ब्रिटिश क़ानूनों की देन है जिनके आधार पर मौजूदा कानून बनाए गए हैं. इसके अलावा हरेक सेना में अलग-अलग पदों की विशेषताओं के कारण भी ये अंतर हुए हैं. इन अंतरों को दूर करने की जरूरत रक्षा मंत्रालय को 1965 में ही महसूस हुई थी और तब उसने एक कमिटी बनाई थी जिसे तीनों सेनाओं के लिए समान नियम बनाने का काम सौंपा गया था. इस कमिटी में रक्षा, कानून मंत्रालय के अधिकारी और तीनों सेनाओं के प्रतिनिधि समेत उनके जज एडवोकेट भी उन्हें हरेक सेना की विशेष जरूरतों के मद्देनजर विशेष प्रावधान शामिल करने का काम भी सौंपा गया था.
कमिटी ने 1977 में एक यूनिफॉर कोड का मसौदा तैयार किया, जिसे कानून मंत्रालय ने जांचा. इस तरह आर्म्ड फोर्सेज़ कोड बिल 1978 तैयार किया गया. इस बिल की फिर से जांच तीनों सेना ने की और कुछ आपत्तियां उठाई गईं तो सेना अध्यक्षों की कमिटी ने इस बिल को रद्द कर दिया और संबंधित एक्ट्स में संशोधनों की सिफ़ारिश की. इसमें सबकी विशिष्ट जरूरतों का ध्यान रखा गया. केवल कुछ मामूली परिवर्तन किए गए.
एकीकरण और समान न्याय
जाहिर है, इन एक्ट्स में अंतर के कारण एकीकृत यूनिटों और टुकड़ियों में कर्मियों के प्रबंधन को लेकर मतभेद और तनाव उभरेंगे. अहम बात यह है कि न्याय की समानता के कानूनी सिद्धान्त को लेकर सवाल उठाए जाएंगे और उनका समान निष्कर्ष नहीं निकलेगा, भले ही अपराध समान हों. जब राजनीतिक आदेश पर थिएटर कमांड सिस्टम लागू की जाएगी तब एकीकृत यूनिटों की संख्या काफी बढ़ जाएगी. वास्तव में, कई एकीकृत लॉजिस्टिक्स सिस्टम और ट्रेनिंग संस्थान बनाए गए हैं और कई बनाए जा रहे हैं. इस संरचनात्मक परिवर्तन के साथ ऐसा कानून भी बनना चाहिए जो तीनों एक्ट को एक समान मिलिटरी कोड में ढाल सके.
आधार तैयार करने का काम किया जा चुका है और 1978 के आर्म्ड फोर्सेज़ कोड बिल को उन परिवर्तनों के लिए आधार दस्तावेज़ के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है जिन्हें आज जरूरी माना जा रहा है. इस सबके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए और तीनों सेनाओं को अधिकार देना पड़ेगा जैसा कि थिएटर कमांड सिस्टम के गठन के लिए किया गया था.
अमेरिका, ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका जैसे कुछ देशों ने यूनिफॉर्म कोड को अपना लिया है. चीन, फ्रांस, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया में पहले से ही समान कोड रहा है. भारत में सेनाओं के प्रतिरोध के कारण सुधार अटका हुआ था. समय आ गया है कि रक्षा मंत्रालय करीब 50 साल पहले के अपने पिछले असफल प्रयासों को फिर आजमाए. इसके लिए शायद पहले की तरह एक कमिटी गठित करनी पड़ेगी.
2024/25 तक आर्म्ड फोर्सेज़ कोड बिल को पास कराना न केवल थिएटर कमांडों के साथ होगा लकीन ज्यादा महत्वपूर्ण यह होगा कि यह अनुशासन बनाए रखने और समान न्याय देने में मददगार होगा.
मीडिया के एक वर्ग ने ‘इंटर सर्विसेज ऑर्गनाइजेशन (कमांड, कंट्रोल, डिसिप्लीन) बिल 2023’ के बारे में यह कहा है कि इससे थिएटर कमांड के कर्मियों का बेहतर प्रबंधन हो सकेगा. यह विचार चाहे जितना पक्षपातपूर्ण लगे, यूनिफॉर्म मिलिटरी कोड की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता. यह रक्षा मंत्रालय के लिए एक आसान लक्ष्य है क्योंकि वह ऐसे सुधारों के लिए 14 साल तक काम किया है. थिएटर कमांड का औचित्य अपनी जगह है रक्षा मंत्रालय को पुरानी फाइलें निकालकर इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए ताकि मौजूदा व्यवस्था में न्याय की प्रक्रिया बेहतर हो और इसके साथ सेनाओं की विशिष्ट जरूरतों के साथ संतुलन भी बहाल किया जा सके.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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