नई दिल्ली: जब नागालैंड को इस महीने अपनी पहली महिला विधायक- नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी की हकानी जाखलू और सलहौतुओनुओ क्रूस- मिलीं, तो इसके कारण उठी खुशी की लहर ने एक दूसरे पूर्वोत्तर राज्य, त्रिपुरा, द्वारा एक और मील का पत्थर पार करने की उपलब्धि पर पर्दा सा डाल दिया.
2 मार्च को घोषित त्रिपुरा विधानसभा चुनावों के परिणामों से पता चलता है कि इस राज्य के विजताओं में से 15 प्रतिशत महिलाएं थीं- और यह पिछले 25 वर्षों के दौरान किसी भी राज्य विधानसभा या लोकसभा चुनाव में उनकी जीत का सबसे अधिक अनुपात है.
हालांकि, यह 15 प्रतिशत- 60 विधायकों के सदन में नौ विधायक- अपने आप में एक महत्वपूर्ण संख्या नहीं लग सकती है, मगर यह विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के संदर्भ में काफ़ी अहमियत रखती है.
दिप्रिंट ने पिछले 25 वर्षों के दौरान राज्यों में हुए 150 विधानसभा चुनावों और छह लोकसभा चुनावों (विधानसभा या लोकसभा के उपचुनावों को छोड़कर) से जुड़े चुनाव आयोग (ईसी) के आंकड़ों पर नज़र डाली, ताकि यह विश्लेषण किया जा सके कि विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं द्वारा किस तरह से प्रतिनिधित्व किया गया है, और यह कि इसमें कैसे बदलाव आया है.
दिप्रिंट के इस विश्लेषण से पता चलता है कि सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में पिछले 25 वर्षों के दौरान चुने गए कुल 21,161 विधायकों (दोबारा चुने गए विधायकों को हर बार अलग से गिना गया है), में से केवल 1,584 महिलाएं थीं. इसका मतलब यह है कि इस दौरान चुने गए सभी विधायकों में से 92 प्रतिशत से अधिक पुरुष थे.
इसी विश्लेषण में यह भी पाया गया कि साल 1998 और 2023 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में निर्वाचित महिलाओं का औसत अनुपात 7 से 9 प्रतिशत के बीच स्थिर सा रहा है.
हालांकि, जब लोकसभा की बात आती है, तो पिछले 25 वर्षों के दौरान महिलाओं के प्रतिनिधित्व में निरंतर वृद्धि देखी गई है, साल 1998 में चुने गये 543 में से मात्र 43 सांसदों से बढ़कर यह संख्या साल 2019 में 78, या 14.4 प्रतिशत, हो गई है.
संयोग से, नागालैंड की महिला विधायकों की कुल संख्या उस संख्या से मेल खाती है जो इस राज्य से कभी भी संसद के लिए चुनी गई महिला सांसदों की संख्या है- 1963 के बाद से सिर्फ दो.
तो फिर आख़िर वे कौन से कारक हैं जो महिलाओं के इस खराब प्रतिनिधित्व की व्याख्या कर सकते हैं और क्या चीज़ इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकती है? दिप्रिंट के विश्लेषण में पाया गया कि संभावित संकेतक जैसे कि शिक्षा और लिंग अनुपात, सदन का आकार, या यहां तक कि राजनीति के शीर्ष पर किसी महिला नेता की उपस्थिति भी अक्सर इस तरह के परिणामों को प्रभावित करने में विफल रहती है.
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में प्रोफ़ेसर और इसके द्वारा संचालित एक शोध कार्यक्रम ‘लोकनीति’ के सह-निदेशक संजय कुमार ने कहा, ‘मतदाताओं के बीच कुछ ऐसे वर्ग ज़रूर हैं जो महिला उम्मीदवारों को वोट देने के प्रति इच्छुक नहीं होते हैं, क्योंकि उनका मानना होता है कि अगर कोई महिला निर्वाचित होती है, तो वह राज्य विधानसभा या लोकसभा में उनके हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए उतनी अच्छी प्रतिनिधि साबित नहीं होगी, लेकिन यह कोई मूल कारण नहीं है.’
कुमार के अनुसार, महिला आरक्षण विधेयक, जो लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए कुल सीटों के एक तिहाई को आरक्षित करने का प्रस्ताव करता है, चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के न्यूनतम स्तर की गारंटी प्रदान करेगा. लेकिन राज्य सभा द्वारा मार्च 2010 में ही पारित किए गये इस बिल को 13 साल बाद भी लोकसभा में लाया जाना बाकी है.
महाराष्ट्र से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की राज्यसभा सांसद फौज़िया खान ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा, ‘महिलाएं हमेशा सेवा के मामले में सबसे आगे रही हैं. चाहे कोई भी संकट हो, महिलाएं (इससे लड़ने में) सबसे आगे रही हैं. दुख की बात है कि गहरे तक पैंठी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक बाधाएं महिलाओं को निर्णय लेने की मेज पर अपनी जगह बनाने- ताकि संसाधनों और शक्ति को अधिक समान रूप से वितरित किया जा सके- से रोकती हैं.’
खान ने आगे कहा, ‘वे (महिलाएं) हमेशा सबसे कम वेतन वाली नौकरियों में रही हैं और रोजगार के कई बेहद असुरक्षित स्वरूपों में कार्यरत रही हैं. कई सारे ऑडिट से पता चला है कि नेतृत्व वाली भूमिकाओं में महिलाओं को छह प्रतिशत से अधिक जगह कभी नहीं मिली है. इसलिए, हमें इसके बारे में सोचना चाहिए.’
‘पार्टियां अधिक संख्या में महिलाओं को टिकट नहीं देतीं’
इस महीने त्रिपुरा द्वारा पार किए गये मील के पत्थर तक, यह हरियाणा (2014 का विधानसभा चुनाव) और छत्तीसगढ़ (2018 का विधानसभा चुनाव ) हीं थे, जिन्होंने पिछले 25 वर्षों में महिला विधायकों के उच्चतम अनुपात को चुना था. दोनों राज्यों के लिए यह आंकड़ा 14.4 फीसदी था.
यह हरियाणा, जहां 2011 की जनगणना के अनुसार सभी भारतीय राज्यों में सबसे खराब लिंगानुपात (प्रति 1,000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या) 879 था, के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण बात है.
तुलनात्मक रूप से, कर्नाटक, जहां इसी साल चुनाव होने हैं, इस मामले में लगातार खराब प्रदर्शन करता रहा है. राज्य का सबसे अच्छा आंकड़ा साल 2018 में था, जब उसने 224 सदस्यों वाले सदन में सात महिला विधायक– केवल 3.12 प्रतिशत- चुनीं थी.
कुछ पूर्वोत्तर राज्यों का हाल तो और भी बुरा है. जहां नागालैंड ने इस साल अपनी पहली दो महिला विधायक चुनी हैं, वहीं मिजोरम के पूरे चुनावी इतिहास में केवल चार महिला विधायक चुनी गईं हैं. उनमें से तीन दिप्रिंट द्वारा किए गए 25 साल की अवधि के विश्लेषण से पहले चुनी गईं थीं’, और बाकी एक विधायक ने साल 2016 के उपचुनाव में अपनी सीट जीती थी. साल 2018 में राज्य के आखिरी विधानसभा चुनाव का नतीजा एक सर्व-पुरुष (सिर्फ़ मर्दों के प्रतिनिधित्व वाले) सदन के रूप में सामने आया.
दिप्रिंट द्वारा विश्लेषण की गई अवधि के दौरान जम्मू और कश्मीर विधानसभा (साल 2019 में इस राज्य के जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजन से पहले) के लिए निर्वाचित महिलाओं का प्रतिशत भी काफ़ी कम (2.3 और 3.5 प्रतिशत के बीच) रहा था.
हालांकि, विशेषज्ञ मानते हैं कि समस्या यह नहीं है कि कम महिलाएं चुनी जा रही हैं, बल्कि असल मुद्दा तो यह है कि काफ़ी कम महिलाएं हीं चुनाव लड़ रही हैं.
कुमार ने कहा, ‘भारत में, राजनीतिक दलों के आधार पर वोट दिए जाते हैं और तमाम पार्टियाँ महिलाओं को पर्याप्त रूप से टिकट नहीं देती हैं. यदि महिलाएं निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ती हैं, तो उनके जीतने की क्षमता बहुत कम हो जाती है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘ जिस मूल कारण की वजह से पार्टियां बड़ी संख्या में महिला उम्मीदवारों को टिकट नहीं देती हैं, वह यह है कि उन्हें लगता है कि महिलाओं के लिए चुनाव जीतना मुश्किल होगा. यदि पार्टियां टिकट नहीं देती हैं, तो महिलाएं राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के लिए निर्वाचित नहीं हो पाती हैं. कुछ खास निर्वाचन क्षेत्रों में, महिला उम्मीदवारों को अपने निर्वाचन क्षेत्र के पुरुष सदस्यों द्वारा उपयोग किए जाने वाले धन और बाहुबल के कारण निर्वाचित होने में मुश्किल भी होती है.’
शायद इसी वजह से राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई को लगता है कि कम से कम शुरुआती स्तर पर किसी राजनीतिक परिवार से जुड़े होने पर महिला उम्मीदवारों को मदद मिलती है.
किदवई ने दिप्रिंट को बताया, ‘मुझे सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि महिला कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर आगे नहीं आ पाती हैं.’
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बढ़ी हुई साक्षरता, अच्छा लिंगानुपात, महिला मुख्यमंत्री का होना आदि भी प्रतिनिधित्व की गारंटी देने में विफल रहे हैं
चुनावी राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बेहतर बनाने में क्या चीज़ मदद करती है, इसके कोई स्पष्ट संकेतक मौजूद नहीं हैं.
उदाहरण के लिए असम को ही लीजिए. इसके पिछले चार विधानसभा चुनावों के दौरान महिला विधायकों का अनुपात साल 2006 के 10.3 प्रतिशत से लगातार गिरकर साल 2021 में 4.7 प्रतिशत हो गया है.
असम के तीन विद्वानों द्वारा तैयार किया गया एक शोध पत्र, जिसका शीर्षक ‘पोलिटिकल रेप्रेज़ेंटेशन ऑफ विमन इन लेजिस्लेटिव असेंब्ली एलेक्शंस ऑफ असम’ है, पिछले साल ‘WJARR’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. इसने राज्य की राजनीति में महिलाओं की सीमित उपस्थिति के कई संभावित कारणों का हवाला दिया: जैसे कि कम साक्षरता दर (2011 की जनगणना के अनुसार महिलाओं के मामले में 66.27 प्रतिशत), घरेलू कामों का बोझ और कार्यबल में कम भागीदारी (इस शोध पत्र के अनुसार 40 प्रतिशत से कम).
लेकिन अगर साक्षरता एक कारक है, तो सबसे साक्षर राज्य भी कोई अच्छी तस्वीर पेश नहीं करता है. केरल- जिसकी कुल साक्षरता दर 2011 की जनगणना के अनुसार 94 प्रतिशत (महिलाओं के मामले में 92 प्रतिशत) थी, और साथ ही उच्चतम लिंगानुपात (1,084) भी था- के 140 विधायकों वाले सदन में केवल 11 (7.86 प्रतिशत) महिला विधायक ही हैं.
इसी तरह, अपने इतिहास में केवल चार महिला विधायकों के साथ मिजोरम साल 2011 की जनगणना के अनुसार 89.27 प्रतिशत के साथ दूसरा सबसे अधिक महिला साक्षरता दर वाला राज्य है.
फिर, क्या किसी महिला के मुख्यमंत्री होने से मदद मिलती है? इस बारे में राज्यों ने मिले-जुले आंकड़े पेश किए.
उदाहरण के लिए तमिलनाडु में, अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईडी एम के ) ने साल 1991 ( जब जे. जयललिता पहली बार मुख्यमंत्री बनीं) और 2016 (जब उनकी मृत्यु हुई) के बीच सबसे बड़ी संख्या में अपने महिला विधायकों को विधानसभा में भेजा. साल 1996 का चुनाव- जो द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के नेतृत्व वाले मोर्चे द्वारा जीता गया- इसका एक अपवाद था.
इसके विपरीत, साल 2021 के चुनाव- जयललिता की मृत्यु के बाद हुआ पहला चुनाव- में एआईएडीएमके ने केवल तीन महिला विधायकों को विधानसभा में भेजा, जबकि विजयी दल डीएमके ने छह को सदन में भेजा.
हालांकि, भारत की सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाली शीला दीक्षित के नेतृत्व में दिल्ली का रिकॉर्ड इसके विपरीत रहा है. इस केंद्र शासित प्रदेश ने साल 1998 में- जिस वर्ष दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं- नौ महिला विधायकों को निर्वाचित किया जो पिछले 25 वर्षों में इसकी उच्चतम संख्या है, मगर यह संख्या उनके अगले दो कार्यकालों में कम हो गई और साल 2008 में केवल तीन रह गई. दिल्ली विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या 70 है.
किदवई के अनुसार, शीर्ष पर बैंठीं महिलाएं अपने ‘सह यात्रियों’ की मदद करने के लिए बहुत कम काम करती हैं.
वे कहते हैं, ‘उनमें (महिला सीएम) से अधिकांश सत्ता संरचना को पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अनुरूप बनाए रखती हैं. महिला नेताओं को पुरुषों की तरह काम करना होता है, उनसे कहीं अधिक निर्दयता के साथ और बिना किसी बकवास के. वे महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने के लिए बहुत कम काम करती हैं.’
किदवई ने कहा, ‘यहां तक कि केरल और पूर्वोत्तर जैसे मातृसत्तात्मक समाजों में भी महिलाओं का राजनैतिक प्रतिनिधित्व काफ़ी खराब है.’
महिला आरक्षण विधेयक के लिए दिया जा रहा जोर
बड़े राज्यों में- जिनकी विधानसभाओं में 100 से अधिक सदस्य हैं- उत्तर प्रदेश ने अपनी विधानसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में सबसे अधिक बेहतरी दिखाई है. 403 सदस्यीय विधानसभा वाले इस राज्य में साल 2002 में निर्वाचित 26 महिला विधायकों से बढ़कर साल 2022 में 47 महिला विधायक चुनी गईं. महाराष्ट्र ने अपनी 288 सदस्यीय विधानसभा में साल 1999 में 12 महिला विधायकों के चुनाव से आगे बढ़ते हुए साल 2019 में 24 की संख्या तक, दूसरा सबसे अच्छा सुधार दिखाया है.
दिप्रिंट के विश्लेषण से पता चलता है कि पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात में भी काफ़ी सुधार हुआ है.
गुजरात में महिला विधायकों की संख्या साल 1998 में चार से बढ़कर साल 2002- जो मोदी के मुख्यमंत्री के रूप में पहला चुनाव था और केशुभाई पटेल को बदलने के लिए भाजपा नेतृत्व द्वारा चुने जाने के बाद वे 2001 में पहले ही मुख्यमंत्री बन चुके थे- में 12 हो गई थी. उस साल के गुजरात विधानसभा के लिए चुनी गई 12 महिला विधायकों में से आठ भाजपा से थीं. हालांकि मोदी ने 2014 में प्रधान मंत्री बनने के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था, मगर यह प्रवृत्ति जारी रही: गुजरात ने पिछले साल अपनी 182 सदस्यीय विधानसभा में 15 महिला प्रतिनिधियों को चुना.
इस बीच, नई सहस्राब्दी (मिलेनियम) में गठित राज्य अलग-अलग रिकॉर्ड पेश करते हैं.
साल 2000 में मध्य प्रदेश से अलग होने के बाद, छत्तीसगढ़ ने साल 2003 में छह प्रतिशत महिला विधायकों वाली अपनी विधानसभा का चुनाव किया. उसी वर्ष की मध्य प्रदेश विधानसभा में आठ प्रतिशत महिला सदस्य थीं. हालांकि, साल 2018 के नवीनतम चुनाव में, जहां छत्तीसगढ़ से 14.44 प्रतिशत महिला विधायक चुनीं गईं, मध्य प्रदेश के लिए यह आंकड़ा केवल 9.13 प्रतिशत था.
दूसरी ओर, साल 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग किए गए तेलंगाना में पिछले दो चुनावों- 2014 और 2018 में- के दौरान महिला विधायकों का प्रतिशत 7.56 प्रतिशत से घटकर 5.04 प्रतिशत रह गया है. आंध्र में भी, 2014 और 2019 के बीच 10.29 से 8 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई है.
तेलंगाना की एक महिला नेता, के. कविता – जो सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति की एक विधान पार्षद (एमएलसी) हैं- विधानसभाओं में महिलाओं के खराब प्रतिनिधित्व के मुद्दे को उजागर करने की कोशिश कर रही हैं. इस महीने की शुरुआत में वह लंबे समय से अटके पड़े महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक दिन की भूख हड़ताल पर भी बैठी थीं.
कविता का कहना है, ‘अगर भारत को दुनिया के अन्य देशों के बराबर विकास करने की जरूरत है, तो महिलाओं को राजनीति में और अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए.’
(अनुवाद: राम लाल खन्ना| संपादन : ऋषभ राज)
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