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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतबीजेपी 2024, यहां तक कि 2029 के लिए भी अपना रोडमैप बना रही है. विपक्ष अब भी 2018 में फंसा हुआ है

बीजेपी 2024, यहां तक कि 2029 के लिए भी अपना रोडमैप बना रही है. विपक्ष अब भी 2018 में फंसा हुआ है

2024 के लोकसभा चुनाव से एक साल पहले विपक्ष क्या कर रहा है जो 2018 में नहीं हुआ? अनिवार्य रूप से, कुछ भी अलग नहीं है.

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अगले साल इसी समय के आसपास चुनाव आयोग 2024 के लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर चुका होगा. चूंकि एक साल से कम समय बचा है इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि विपक्ष अपनी रणनीतियों और एजेंडे को अंतिम रूप दे रहा होगा. आइए नजर डालते हैं पिछले हफ्ते की सुर्खियों पर: राहुल गांधी विदेश से लौटे; संसद में हंगामा, विपक्ष ने अडाणी पर ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी की मांग की, बीजेपी चाहती है कि राहुल माफी मांगें; तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी प्रवर्तन निदेशालय के कार्यालय तक विरोध मार्च में शामिल नहीं हुई; अखिलेश यादव और ममता बनर्जी कोलकाता में मिले, भाजपा-विरोधी व गैर-कांग्रेसी मोर्चे पर चर्चा; बनर्जी अगले सप्ताह नवीन पटनायक से मुलाकात करेंगी. और भी बहुत सारी खबरें रहीं, लेकिन वे उससे अलग नहीं होंगी जो विपक्ष ने एक सप्ताह पहले, या महीने या साल में किया था.

व्यापम, राफेल, कोविड-19, चीनी घुसपैठ, बेरोजगारी, मूल्य वृद्धि- ये सब पुराने हो चुके हैं. संसद का नया सत्र, नए नारे- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके गद्दी से नीचे गिराने के उसी पुराने इरादे के साथ.

अडाणी मामले में जेपीसी की मांग और केंद्रीय जांच एजेंसियों के कथित दुरुपयोग को लेकर कांग्रेस द्वारा किए जा रहे विरोध मार्च में आम आदमी पार्टी और भारत राष्ट्र समिति शामिल हुई; तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने इसमें हिस्सा नहीं लिया. लेकिन पहले की बात करें तो कांग्रेस के साथ टीएमसी और एनसीपी हुआ करते थे न कि आम आदमी पार्टी और बीआरएस.

अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव, अरविंद केजरीवाल, एचडी कुमारस्वामी और अन्य के बीच बैठकें वर्षों से सुर्खियां बटोर रही हैं. उनका एजेंडा एक ही रहा है और परिणाम भी एक ही.

मतदाताओं की ऊब?

लोकसभा चुनाव से एक साल पहले विपक्ष ऐसा क्या कर रहा है जो उसने 2018 में नहीं किया? अनिवार्य रूप से, भारत जोड़ो यात्रा के अलावा कुछ भी अलग नहीं है, जिसने कांग्रेस को विपक्षी खेमे में अपनी नंबर एक स्थिति का दावा करने के लिए प्रोत्साहित किया. लेकिन कांग्रेस के भीतर भी यह यात्रा लोगों की याददाश्त से फीकी पड़ती दिख रही है.

किसी विपक्षी नेता से पूछें कि 2024 में उन्हें किस बात की सबसे बड़ी उम्मीद है. उनमें से अधिकांश आपको बताएंगे कि 543 सीटों वाली लोकसभा में भाजपा की संख्या को 250 से नीचे लाना है. उन्हें लगता है कि यह भारतीय राजनीति में मोदी युग के अंत की शुरुआत होगी. और कौन जानता है कि यदि बीजेपी के सीटों की संख्या नीचे जाती है तो यह नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और बाकी लोगों को क्या अवसर प्रदान करेगा.

और वे भाजपा की सीटों की संख्या को नीचे लाने के लिए क्या कर रहे हैं जबकि उनकी पिछली कोशिशों ने सिर्फ इसे बढ़ाने का काम किया – 2014 में 282 से 2019 में 303 तक? खैर, विपक्षी नेताओं का कहना है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने 2014 और 2019 के चुनावों में कई राज्यों में “अधिकतम” किया है. उन्हें उत्तर प्रदेश की 80 में से क्रमशः 73 और 64 सीटें मिलीं; महाराष्ट्र में 48 में से 42 और 41; मध्य प्रदेश में 29 में से 27 और 28; राजस्थान और गुजरात में सभी 25 और 26; कर्नाटक में 28 में से 17 और 25; बिहार में 40 में से 31 और 39; झारखंड में दोनों चुनावों में 14 में से 12; छत्तीसगढ़ में 11 में से 10 और 9; हरियाणा में 10 में से 7 और 10; और हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के दोनों चुनावों में सभी चारों और पांचों सीटें.

सिर्फ इन दर्जन भर राज्यों में पिछले दो चुनावों में एनडीए की 300 से कुछ कम लोकसभा सीटों पर पकड़ रही है. विपक्षी नेता आपको बताएंगे कि बीजेपी इन राज्यों में “अपनी अधिकतम संख्या” तक पहुंच गई है. उन्हें लगता है कि यह संख्या कम से कम 20-25 प्रतिशत कम हो जाएगी, जिससे 2024 में लोकसभा में भाजपा की संख्या 250 से नीचे आ जाएगी. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उन्हें लगता है कि सत्ताधारी पार्टी लोकसभा चुनावों में अन्य राज्यों में अपनी सीटों की संख्या में उल्लेखनीय सुधार नहीं कर सकती.

और उन्हें क्यों लगता है कि उन दर्जन भर राज्यों में बीजेपी की सीटों की संख्या कम हो जाएगी? सबसे पहले, तो ‘मैक्स आउट’ थियरी, जिसके मुताबिक सीटें केवल नीचे जा सकती हैं. दूसरा, भाजपा ने प्रमुख सहयोगियों- महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और बिहार में नीतीश कुमार को खो दिया है.

जाहिर है, विपक्ष आसानी से अन्य कारकों की अनदेखी कर रहा है. मसलन, बिहार में नीतीश कुमार ने 2014 के चुनाव से पहले बीजेपी से नाता तोड़ लिया था. भाजपा को रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के साथ जाना पड़ा. लेकिन इन 40 में से 31 सीटों पर फिर भी एनडीए को जीत मिली. इसके बाद से नीतीश कुमार की लोकप्रियता में गिरावट ही आई है और कुशवाहा और चिराग पासवान 2024 में एक बार फिर भाजपा के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार हैं.

इसी तरह, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल के बीच का महागठबंधन एनडीए के सीटों की संख्या को 2014 में 73 से 2019 में 64 तक लाने में कामयाब रहा था. बसपा के इस गठबंधन से बाहर होने के बाद, भाजपा यूपी में 2014 की तुलना में ज्यादा सीटे पाने की उम्मीद कर सकती है, खासकर तब जबकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है.

2014 और 2019 के चुनावों में मोदी एकमात्र सबसे महत्वपूर्ण कारक थे. और भाजपा के सहयोगियों को उनके गठबंधन से अन्य किसी चीज की तुलना में काफी लाभ हुआ. यह नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) के प्रदर्शन से स्पष्ट था, जिसने 2014 में बीजेपी के बिना दो सीटें और 2019 में बीजेपी के साथ 16 सीटें जीती थीं. इन राज्यों में पीएम मोदी की लोकप्रियता में गिरावट के कोई सबूत नहीं है.

विपक्षी नेताओं को भी अन्य राज्यों में भाजपा के खिलाफ कुछ विरोध देखने को मिल रहे हैं. ममता बनर्जी द्वारा पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी को हराने के तरीके को देखते हुए वे 2019 में पश्चिम बंगाल में भाजपा की सीटों की संख्या (18) में गिरावट की उम्मीद कर रही हैं. इसी तरह, वे ओडिशा में बीजेपी को 2019 में आठ सीटों से फिसलकर नीचे जाते हुए देख रहे हैं क्योंकि सीएम नवीन पटनायक खतरे को महसूस करके करारा जवाब देने वाली मुद्रा में हैं.

अनिवार्य रूप से, विपक्ष की सारी उम्मीद इस बात पर टिकी है कि मोदी के दो कार्यकाल के बाद मतदाता उनसे निराश महसूस कर रहे होंगे. इससे उन्हें विश्वास हो रहा है कि वे वही रणनीति दोबारा अपना के भी ज्यादा सीटें जीत जाएंगे.


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भाजपा के जवाबी उपाय

विपक्षी नेता एक काल्पनिक दुनिया में जी रहे हैं. ऊपर बताए गए दर्जन भर राज्यों के बारे में विपक्ष की यह धारणा कि बीजेपी यहां अपने अधिकतम संख्या तक पहुंच चुकी है यह दिखाता है कि उनकी धारणा आशावाद और एक हद तक खयाली पुलाव पकाने जैसा है. आज तक, जमीनी स्तर से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है जिससे यह लगता हो कि मोदी के वोटर किसी और को वोट देने के बारे में विचार कर रहे हों या भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुए हों.

सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों के दृष्टिकोण में अंतर को देखें. भाजपा अपने कमजोर एरिया पर काम कर रही है. इसने लगभग 144 लोकसभा क्षेत्रों में काम करने के लिए मंत्रियों सहित 70 वरिष्ठ नेताओं को पहले ही तैनात कर दिया है, जिनमें कई लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिन्हें वह हार चुकी है. उनमें से प्रत्येक को तीन से चार सीटों का क्लस्टर दिया गया है.

अब तक अछूते एरिया में प्रवेश करने का पार्टी का प्रयास पूरी गति से जारी है. पिछले हफ्ते की सुर्खियों पर नजर डालें और आप देखेंगे कि बीजेपी अपना 2024—और यहां तक कि 2029—का रोडमैप तैयार कर रही है. 12 मार्च को अमित शाह एक रैली को संबोधित करने और अगले चुनाव के लिए पार्टी की तैयारियों का जायजा लेने के लिए केरल के त्रिशूर में थे– जहां 2019 में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. इस हफ्ते पीएम मोदी के राज्य का दौरा करने की संभावना है.

शुक्रवार को, शाह ने दिल्ली में सक्रिय राजनीति से हाल ही में रिटायर हुए अभिनेता से नेता बने चिरंजीवी और उनके बेटे, आरआरआर स्टार, राम चरण से मुलाकात की.

जाहिरी तौर पर इस मुलाकात में कुछ भी राजनीतिक नहीं था. लेकिन यह ऐसे समय में हुआ है जब चिरंजीवी के छोटे भाई, भाजपा के सहयोगी, जन सेना के पवन कल्याण, तेलुगु देशम पार्टी के साथ तालमेल बिठाने को कोशिश कर रहे हैं. और बीजेपी लगातार आंध्र प्रदेश में अपनी उपस्थिति बढ़ाने की कोशिश कर रही है वह भी तब जबकि सत्तारूढ़ पार्टी, जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी विपक्षी खेमे से किसी से भी मिलने की इच्छा नहीं रख रही.

द्रविड़ राजनीति की भूमि, तमिलनाडु में, भाजपा अभी भी अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है. राज्य इकाई के प्रमुख अन्नामलाई ई के पलानीस्वामी के नेतृत्व वाले अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) से अलग रास्ते की तलाश करने में लगे हैं. यह ईपीएस द्वारा लगभग एक दर्जन भाजपा नेताओं को अन्नाद्रमुक में शामिल किए जाने के कुछ दिनों बाद आया है. जबकि भाजपा आलाकमान ने गठबंधन पर कोई फैसला नहीं किया है, अन्नामलाई के दावे से पता चलता है कि भाजपा अन्नाद्रमुक के साथ नहीं फंसना चाहती है और अपनी अलग पहचान बनाना चाहती है.

शुक्रवार को, महाराष्ट्र भाजपा प्रमुख चंद्रशेखर बावनकुले को द टाइम्स ऑफ इंडिया में पार्टी की एक बैठक में यह कहते हुए बताया गया था कि 2024 के विधानसभा चुनावों में भाजपा 240 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना को शेष 48 सीटें मिलेंगी.

इसने सत्तारूढ़ गठबंधन में खलबली मचा दी. हालांकि बाद में बावनकुले ने यह कहकर विवाद पर पर्दा डालने की कोशिश की कि उनकी टिप्पणी का गलत अर्थ निकाला गया और सहयोगियों के बीच सीटों के बंटवारे को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है. राज्य में राजनीतिक जानकारों ने इसे नए सहयोगियों की कीमत पर भाजपा की भविष्य की विस्तार योजना के संकेत के रूप में देखा. जाहिरी तौर पर बावनकुले पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि पानी कितना गहरा है.

इन उदाहरणों से हमें पता चलता है कि सहयोगी दलों और विरोधियों दोनों की कीमत पर भाजपा का अपनी पार्टी का विस्तार करने का अथक प्रयास है. यह 2024 से बहुत आगे निकल जाता है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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