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Wednesday, 20 November, 2024
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कश्मीरी जिहाद गायब हुआ, अब भारत की बड़ी चूक ही उसकी वापसी करा सकती है

2001 के बाद से, कश्मीर में जिहाद कई बार कमजोर पड़ता रहा है, और एक मजबूत लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था बनाने की नाकामी की वजह से इसमें फिर से उभार देखने को मिला.

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आक्रोश की वह लहर पुराने श्रीनगर शहर की गलियों से निकल रहे लोगों के हुजूम के रूप में झेलम नदी की तरह बल खाती हुई लाल चौक और ख़ानक़ाह-ए-मौला से होती हुई ईदगाह पर ‘शहीदों के नये कब्रिस्तान’ तक आ पहुंची थी. पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बहन रुबैया सईद का अपहरण करने और कश्मीरी पंडितों की हत्याएं करने वाला अशफाक वानी अचानक ‘हीरो’ बन गया था. भारतीय सेना पर एकमात्र ज्ञात हमले में वानी ने गलती से खुद को ग्रेनेड से उड़ा लिया था. 1990 में घात लगाकर किया गया यह हमला शहर के ‘फिरदौस’ सिनेमाघर के बाहर किया गया था मगर नाकाम रहा था.

उस लंबे जिहाद के पहले बसंत में मार्च 1990 में छोटे कद के ‘शहीदों’ को भी काफी शोहरत मिली थी. शोधार्थी नवनीता बेहेरा ने लिखा है कि “उस समय माएं अपने बेटों के माथे पर मेहंदी का टीका लगाकर पाकिस्तान भेजा करती थीं. बच्चे तख्तियां लेकर घूमते थे जिन पर लिखा होता था— ‘हिंदुस्तानी कुत्तों, वापस जाओ’.

पिछले महीने के आखिरी दिनों में अक़ीब मुश्ताक़ भट को दक्षिणी कश्मीर में एक छोटे कब्रिस्तान में दफ़न किया गया. उसे पुलिस ने गोली मार दी थी. इससे कुछ ही दिन पहले भट ने कथित रूप से संजय शर्मा को उनके घर के बाहर ही चार गोलियों से भून डाला था. बैंक में गार्ड की नौकरी कर रहे कश्मीरी पंडित, शर्मा ने इतने समय से जारी हिंसा के बावजूद अपना घर नहीं छोड़ा था. लेकिन अक़ीब को जब दफ़न किया गया तब उसकी मातमपुर्शी करने वाला कोई नहीं था.

अपने ही संकट में उलझे पाकिस्तान से घटते समर्थन, और युवाओं में खोते औचित्य के कारण कश्मीरी जिहाड़ी आंदोलन बिखर रहा है. खुफिया अधिकारियों ने ‘दिप्रिंट’ को बताया कि जिहादी गुटों में सक्रिय स्थानीय कश्मीरियों की संख्या एक दशक में घटकर न्यूनतम स्तर 28 पर पहुंच गई है. कश्मीर में एक समय हजारों कार्यकर्ताओं वाला सबसे बड़ा जिहादी गुट हिज्बुल मुजाहिदीन लगभग लुप्त हो गया है.

लेकिन कश्मीरी जिहाद ऐसे संकट से यह कोई पहली बार ग्रस्त नहीं हुआ है. ऐसे हर समय में भारत के गलत आकलनों और गलत कदमों ने उसे बचाया है.

फींका पड़ता जिहाद

हिज्बुल मुजाहिदीन के मुखिया मुहम्मद यूसुफ शाह भारतीय खुफिया कार्रवाई में मारे गए जिहादियों में शामिल अपने साथी बशीर अहमद पीर को श्रद्धांजलि देने के लिए रावलपिंडी में 20 फरवरी को अपने घर से बाहर आकर तकरीर की, “जब तक हमारे जिस्म में खून का एक कतरा भी बाकी है, तब तक हम कश्मीर को बिकने नहीं देंगे.”
पाकिस्तान में हिज़्ब के आका अपने समर्थकों को हिंसा करने की नसीहत देते रहे हैं लेकिन उनके बच्चों ने सरकार के साथ बहुत पहले ही सुलह कर ली है. 2010 में इस्लामपंथियों के नेतृत्व में शुरू हुए युवाओं के इस आंदोलन के मद्देनजर क़ुर्बानी देने की अपील खोखली ही नज़र आती है.

शाह के पांच बेटों में से दो— सैयद शकील अहमद और साहिद यूसुफ— अब जेल में हैं और आतंकवाद को पैसे देने के आरोप का जवाब अदालत में दे रहे हैं. पिछले साल तक ये दोनों सरकारी कर्मचारी थे. शकील शेर-ए-कश्मीर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एसकेआइएमएस) में नर्सिंग असिस्टेंट था, और यूसुफ कृषि विभाग में कर्मचारी था.

एक बेटा वाहिद यूसुफ एसकेआइएमएस में सर्जन है. ‘रॉ’ के प्रमुख ए.एस. दौलत का आरोप है कि उसे प्रतिष्ठित श्री महाराजा हरि सरकारी मेडिकल कॉलेज में उसके अब्बा और खुफिया ब्यूरो के बीच सौदे के कारण पिछले दरवाजे से दाखिला मिला. चौथा बेटा सैयद मुईद पिछले साल बर्खास्त किए जाने तक सरकारी उद्यमिता विकास संस्थान में काम कर रहा था. पांचवां बेटा सैयद जावेद सोईबुघ के क्षेत्रीय शिक्षा कार्यालय में कंप्यूटर टेक्नीशियन है.

हिज़्ब के दूसरे नंबर के कमांडर गुलाम नबी खान का सबसे बड़ा बेटा पहलगाम के आस-पास तैनात भारतीय सेना की टुकड़ी के लिए मजदूरों के ठेके का कारोबार कर रहा है. पुलिस का कहना है कि नसीर अहमद खान और उसके छोटे भाई इरफान तथा इलियास कभी जिहादी गतिविधियों में शामिल नहीं रहे. हिज़्ब के तीसरे नंबर के कमांडर ज़फ़र भट का एकमात्र बेटा किसानी करता है.

कश्मीर में 2010 के बाद जब इस्लामपंथी युवकों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किए थे तब, ऐसा लगता है कि रावलपिंडी में बुढ़ाता जिहादी नेतृत्व निष्क्रिय हो गया था और इन सबसे कटा हुआ था. आशिक हुसैन फक्तू और आसिया अंद्राबी जैसे कश्मीरी नेताओं की नयी पीढ़ी लश्करे तय्यबा और जैश-ए-मुहम्मद जैसे गुट इन युवा इस्लामपंथियों के आदर्श बन गए.


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आंतरिक लड़ाई

अगस्त 2000 के बाद से हिज़्ब ऐसे कमांडरों के नेतृत्व में आंतरिक विभाजन से जूझ रहा है, जो भारत के साथ बातचीत के पक्ष में हैं. यह सर्वविदित है कि सरकारी अधिकारियों के साथ बैठक करने जा रहे हिज़्ब के कमांडर नंबर दो गुलाम रसूल दार ने फोटोग्राफरों से चिल्ला कर कहा था कि “फोटो मत खींचो. मेरी जान खतरे में है.” शाह के आदेश पर अब्दुल मजीद दार के कत्ल के बाद भी आंतरिक लड़ाई खत्म नहीं हुई थी. हिज़्ब का जन्म जिस राजनीतिक दल जमाते इस्लामी से हुआ था, उसमें भी आंतरिक झगड़े बढ़ गए थे.

बातचीत का समर्थन करने वाले हिज़्ब कमांडरों के लिए जमात के संरक्षक सैयद अली शाह गिलानी के बच्चों और पोते-पोतियों का बुर्जुआई शैली का रहन-सहन जिहाद के उनके आह्वानों को बिल्कुल खोखला बनाता था.
1997 में जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख गुलाम मुहम्मद भट ने ‘बंदूक संस्कृति’ को खत्म करने का आह्वान किया था.

तब, हिज़्ब में कई लोगों को लगने लगा था कि राजनीतिक सौदा करने का वक़्त आ गया है ताकि वे इस विकट बंद गली से बाहर निकल सकें. इसके अलावा बुरी बात यह हुई कि पाकिस्तानी आइएसआइ ने 2008 के मुंबई हमले के बाद हिज़्ब को समर्थन से हाथ खींच लिया था और आतंकवादी ट्रेनिंग कैंपों को बंद कर दिया. इस फैसले के खिलाफ शाह ने बड़ी कड़वाहट के साथ अपनी शिकायत 2010 में मुजफ्फराबाद में हुई रेली में जाहिर की थी.

इस्लामपंथी युवाओं के उभार का फायदा उठाने में हिज़्ब खुद को असमर्थ पा रहा था. कश्मीर में कार्रवाइयों को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान से गुलाम रसूल खान, गुलाम रसूल दार और सुहैल फैजल जैसे जो कमांडर भेजे गए थे वे कमजोर पद गए थे. कई बार जेल जा चुके और ठोस कट्टरपंथी बन चुके जिस युवा कमांडर यासीन ईटू पर हिज़्ब ने उम्मीद बांधी थी कि वह उसे फिर से ताकतवर बनाएगा, वह 2017 में मारा गया.

2016 के उभार से पहले जो हिज़्ब कमांडर सबसे ज्यादा उभरकर सामने आ रहा था वह था दक्षिणी कश्मीर में पुलवामा क्षेत्र के बेघपूरा गांव के एक दर्जी का बेटा रियाज़ नायकू, जिसका जन्म 1985 में हुआ था. नये रंगरूटों की भर्ती करने में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने में तो वह काफी होशियार निकला लेकिन संगठन सैन्य लिहाज से कुल मिलाकर कमजोर ही रहा.

हिज़्ब से निराश होकर नायकू के दो बड़े रंगरूट, सोशल मीडिया के चहेते बुरहान वानी और ज़ाकिर रशीद भट उन दूसरे जिहादी गुटों की ओर मूड गए, जिनके तार वैश्विक जिहाद से गहरे जुड़े हैं. हालांकि बुरहान के मारे जाने के बाद दक्षिणी कश्मीर में सड़कों पर भारी हिंसा हुई लेकिन हिज़्ब इसका फायदा उठाकर खुद को मजबूत करने में नाकाम रहा.

2020 में मारे जाने के दो साल पहले नायकू ने पाकिस्तान से समर्थन न मिलने के कारण हथियारों और ट्रेनिंग की कमी की खुली शिकायत की थी.

आखिरी लड़ाके

पुलवामा के पास मलंगपुरा के सरकारी स्कूल में पढ़ाई कर चुका अक़ीब उन चंद युवाओं में शामिल है जो 2019 के बाद हिज़्ब में शामिल हुए. औद्योगिक ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाई कर चुके फार्माकोलॉजिस्ट सैफुल्लाह मीर, जिसने नायकू की जगह ली थी, के द्वारा भेजे गए एक ‘कूरियर’ के जरिए हिज़्ब में भर्ती किए गए अक़ीब ने 2021 में कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी थी. कश्मीर पुलिस के जांचकर्ताओं का मानना है कि पिछले साल बिहार के दो प्रवासी मजदूरों पातालेश्वर कुमार और उसके पिता जाको चौधरी की हत्या में अक़ीब का ही हाथ था.

स्थानीय हिज़्ब कमांडर जुबेर वानी को फंड और हथियारों की भारी कमी पड़ गई और अक़ीब जल्दी ही हताश हो गया कि गुट उसके रंगरूटों की ट्रेनिंग और उन्हें हथियारबंद नहीं कर पा रहा था. इससे पहले हिज़्ब के काडर की कई पीढ़ियां पाकिस्तान में फौजी ट्रेनिंग कैंपों में भारी ट्रेनिंग पाती रही थीं लेकिन अक़ीब केवल निहत्थे लोगों पर नजदीक से पिस्तौल से गोली चलाना सीख पाया था.

इस साल के शुरू में, वह लश्करे तय्यबा में शामिल हो गया और शर्मा की हत्या के बाद अपने साथी एजाज़ भट के साथ मारा गया.

1971 के युद्ध के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर में अल-फतह और नेशनल लिबरेशन फ्रंट जैसे जिहादी गुटों को समर्थन देना कम कर दिया था. इस तरह भारतीय शासन के साथ सशस्त्र लड़ाई की संभावना खत्म हुई दिख रही थी. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कश्मीर के पूर्व वजीरे आजम शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के साथ एक समझौता किया था जिसने नयी दिल्ली के वर्चस्व की गारंटी कर दी थी.

कश्मीर की सियासत पर नयी दिल्ली की सख्त पकड़ का नतीजा यह हुआ कि इस्लामपंथियों के लिए विरोध की गुंजाइश खत्म होने लगी. कांग्रेस के समर्थन से नेशनल कनफरेंस ने जो सियासी तानाशाही कायम की उसने कई युवाओं को हथियार उठाने को मजबूर कर दिया. दक्षिणी कश्मीर में इस्लामपंथी युवाओं के विरोध प्रदर्शन 2003 से ही शुरू हो गए थे, जिनके बुरे नतीजे सामने आए.

नाज़िर गीलानी अफसोस जाहीर करते हैं कि “कश्मीरी युवाओं का एलओसी पार करना उतना ही रहस्यपूर्ण है जितना एक लोककथा पर आधारित जॉन कीट्स की कविता में ईव सेंट एग्नेस कुंवारी कन्या के पास पहुंच जाता है.” गीलानी कहते हैं कि कश्मीरी युवा “इस आस्था के प्रति मंत्रमुग्ध नज़र आए कि कश्मीर के भारतीय हिस्से में उनकी तमाम परेशानियों का समाधान कश्मीर केआर पाकिस्तानी हिस्से में ही है.”

2001 के बाद से, कश्मीर में जिहाद अक्सर रसातल के कगार पर खड़ा रहा है, और एक मजबूत लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था बनाने की नाकामी की वजह से उस कगार से वापस लौटता रहा है. आज, नयी दिल्ली हिज़्ब के आखिरी बागी तक को खोज निकालने में जुटी है लेकिन उसे ध्यान रखना होगा कि वह पुरानी गलतियां फिर न दोहराए.

(लेखक दिप्रिंट में राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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