बांग्लादेश युद्ध के हीरो का ताज कभी इंदिरा के सिर पर रखा जाता है, तो कभी सैम मानेक शॉ के सर, लेकिन शेख मुजीबुर्रहमान की मुक्तिवाहिनी को आर्म्स और वॉर ट्रेनिंग में कई भारतीय अफसरों ने बड़ी भूमिका निभाई. जिनमें रॉ जैसी गुप्तचर संस्था को खड़ा करने वाले रामेश्वर नाथ काव भी थे और मेजर जनरल शाबेग सिंह भी.
दिलचस्प बात यह थी कि इंदिरा का साथ देने वाले ये दोनों अधिकारी ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ में भी सक्रिय थे, लेकिन दोनों ही अलग-अलग पक्ष में खड़े थे. शाबेग सिंह भिंडरावाला की आर्मी की कमान संभाले हुए थे और रामेश्वर नाथ काव स्पेशल कमांडो फोर्स को एक एयरफोर्स बेस पर ट्रेनिंग दे रहे थे. आखिर ऐसा कैसे हुआ कि 1971 के युद्ध का इतना बड़ा हीरो देश के खिलाफ लड़ने वाली ताकतों को मजबूत करने में जुट गया, जिस आर्मी का वह सेनापति था, उसी के खिलाफ आतंकियों को प्रशिक्षण देने में जुट गया, उनके लिए बम, बारूद और हथियार जुटाने में लग गया? उसकी वजह थीं इंदिरा गांधी.
1971 के युद्ध के बाद शाबेग सिंह को मेजर जनरल बना दिया गया और उन्हें ‘परम विशिष्ट सेवा पदक’ से भी सम्मानित किया गया था.
जब भी बांग्लादेश को अलग करने के इतिहास की चर्चा होगी, मुक्तिवाहिनी को प्रशिक्षित करने के लिए शाबेग सिंह का नाम भी लिया जाएगा. लेकिन अंत बुरा तो सब बुरा!
समय चक्र घूमा तो इमरजेंसी के बाद दोबारा इंदिरा सत्ता में लौटीं तो आर.एन. काव इंदिरा के डायरेक्टर जनरल, सिक्योरिटी (डी.जी.एस.) के तौर पर इंदिरा के पंजाब से जुड़े मुद्दों पर सलाहकार थे, तो शाबेग सिंह को रिटायरमेंट से ठीक पहले भ्रष्टाचार के आरोप में सेना ने बरखास्त कर दिया था. ऐसे में शाबेग सिंह को लगा कि उनके साथ ज्यादती हुई है.
उनके करीबियों ने आरोप लगाया कि इतने शानदार कॅरियर वाले ऑफिसर पर छोटे-मोटे आरोप जानबूझकर लगाए गए—2500 रुपए का किसी से उपहार लेना या अपने सरकारी आवास में तरकारी आदि की खेती करना, किसी और के नाम से ट्रक खरीदना, 1.75 लाख रुपए में बने घर की कीमत 9 लाख रुपए ठहराना आदि.
कई मशहूर पत्रकारों और रक्षा विशेषज्ञों के लेखों से सजी पुस्तक ‘द पंजाब स्टोरी’ बताती है कि कैसे रिटायरमेंट से ठीक 1 दिन पहले उसे आर्मी से बरखास्त कर दिया गया और एक ऐसे क्लॉज के तहत, जिसमें ट्रायल की जरूरत नहीं थी.
इससे पहले किसी भी आर्मी ऑफिसर पर वह क्लॉज इस्तेमाल नहीं हुआ था. इसके बाद इस केस को सी.बी.आई. को सौंप दिया गया. सी.बी.आई. ने शाबेग सिंह के ऊपर दो केस लगाए—आर्मी ट्रांसपोर्ट का गलत इस्तेमाल करके किसी और के नाम पर ट्रक लेने का और दूसरा, 9 लाख रुपए की लागत से घर बनाने का. उससे भी ज्यादा उनकी निराशा तब और बढ़ गई, जब सालों तक दिल्ली के चक्कर लगाने पड़े कि कम-से-कम उसका ट्रायल तो हो और उन्हें अपनी बात रखने का मौका तो मिले! उस पर उनकी पत्नी की गंभीर बीमारी ने उन्हें तोड़कर रख दिया कि जिस देश के लिए उन्होंने पूरी 12 साल की सर्विस में केवल 6 महीने का ब्रेक लिया था, सिख होने के बावजूद केश कटवाकर बांग्लादेश में मुसलिम वेश तक रखा था, आज बुढ़ापे में वहीं अन्याय हो रहा था.
शाबेग सिंह के भाई बेअंत सिंह ने ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को बताया कि शाबेग को बरखास्तगी का पत्र बाजपुर (उत्तराखंड) में एक रिश्तेदार के यहां भोज में मिला, शाबेग को काफी बेइज्जती महसूस हुई.
मां प्रीतम कौर ने भी पूछा कि देश की इतनी सेवा की तो फौज ने उसके साथ ऐसा बरताव क्यों किया? सच्चाई जो भी हो, उन्हें नौकरी से बरखास्त कर दिया गया. पेंशन रोक ली गई, तीन महीने के लिए जेल में भी रखा. शाबेग की पत्नी के ब्लैडर में ट्यूमर था, उन दिनों हालत काफी खराब थी. शाबेग सिंह ने 1984 मई में ‘टेलीग्राफ’ से इंटरव्यू में आरोप लगाया कि मेरा ट्रायल भी नहीं हुआ, कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया तक नहीं हुई और मुझे सजा दे दी गई!
शाबेग ने कहा कि उनके ऊपर जो क्लॉज लगाया गया, वह इससे पहले किसी भी आर्मी ऑफिसर के ऊपर नहीं लगा था, यहां तक कि ब्रिटिश आर्मी में भी नहीं. दिक्कत उससे ज्यादा तब हुई, जब सीबीआई का केस 5 साल तक खिंचता रहा और वे गृहमंत्री ज्ञानी जेल सिंह से भी मिले, लेकिन वादा करके भी उन्होंने कोई मदद नहीं की. इतने साल तक कोर्ट और नेताओं के चक्कर काट-काटकर उनका मोह धीरे-धीरे सिस्टम से हटता चला गया.
तब वे पहले अकालियों के साथ जुड़े, लेकिन ‘सिख विकी’ के मुताबिक उत्तराखंड में हल्द्वानी के तराई इलाके में रह रहे उनके भाई की जब एक कांग्रेसी नेता ने हत्या कर दी, तो उनके विचार और भी उग्र हो गए. फिर वे भिंडरावाला के साथ हो गए और उसकी आर्मी को प्रशिक्षित करने लगे.
शाबेग इंडियन आर्मी और पैरा कमांडोज की ताकत और कमजोरी दोनों जानते थे. शाबेग की शुरुआती पढ़ाई अमृतसर के खालसा कॉलेज में ही हुई थी, सो उनका लगाव शुरुआत से ही स्वर्ण मंदिर से था भी. उनका गांव ख्याला वहां से महज 16 किमी. दूर था. ऐसे में सरकार से कानूनी लड़ाई लड़ते वक्त भी काफी समय वे स्वर्ण मंदिर में गुजारते और फिर गांव चले जाते. धीरे-धीरे शाबेग सिंह का भरोसा भिंडरावाले में बढ़ने लगा था. शाबेग को दोनों की लड़ाई एक ही लगने लगी थी, जो सरकार के खिलाफ थी.
शाबेग सिंह के शब्दों में—“He is a man who stands by the truth. The government is deliberately terming him a traitor because his brand of politics probably doesn’t suit them. But the fact is that There is hardly a Sikh in this world who doesn’t accept him as a leader. I also accept him as a leader.”
भिंडरावाले में यह श्रद्धा इसलिए भी बढ़ गई थी, क्योंकि दोनों ही सरकार के खिलाफ थे, दोनों को लगता था कि सरकार ने उन्हें धोखा दिया है. शाबेग ने भिंडरावाले के मिलिटरी एडवाइजर के तौर पर अत्याधुनिक हथियारों की खेप जुटा ली. जब स्वर्ण मंदिर पर ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के बाद शाबेग सिंह भी मारे गए तो कुल 51 तो लाइट मशीन गन्स ही बरामद हुईं, बाकी और भी तमाम हथियार थे. ज़ाहिर है कि यह सब हथियार शाबेग सिंह ने ही अपने संबंधों के जरिए जुटाए होंगे. हालांकि, आरोप लगते रहे हैं कि ये पाकिस्तान की मदद से हासिल किए गए थे.
दिलचस्प बात यह भी है कि पत्रकार वरिंदर वालिया ने शाबेग सिंह की भूमिका के बारे में अपनी पुस्तक ‘तनखैये’ में बताया कि कैसे बांग्लादेश में पाकिस्तान के सरेंडर डॉक्यूमेंट पर हस्ताक्षर करने वाले पाक अफसर नियाजी ने अपनी बायोग्राफी में लिखा था कि उनको एक बार शाबेग सिंह ने खालिस्तान का नक्शा दिखाया था. लेकिन इस घटना के बारे में पूरी जानकारी नहीं दी.
साफ था कि शाबेग सिंह कहीं-न-कहीं बाद में भी नियाजी के संपर्क में रहे हो सकते हैं. ऐसे में बहुतों को काफी हैरानी हुई थी कि बांग्लादेश युद्ध में भगत सिंह की तरह अपने सिर के केश कटवा देने वाले शाबेग सिंह ने ऐसा क्यों किया? क्यों उन्होंने यह तक कहा कि गुरु गोविंद सिंह के बाद संत भिंडरावाले ही सिखों के सबसे बड़े लीडर पैदा हुए हैं.
‘टेलीग्राफ’ को जो इंटरव्यू शाबेग सिंह ने दिया था, उसमें खुलकर बताया कि उन्होंने इंदिरा गांधी से कई अपील कीं, कहा कि उनका मुकदमा या तो सिविल कोर्ट में चलाया जाए या फिर कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया हो, लेकिन जल्दी किया जाए.
उन्होंने अपनी पत्नी की बीमारी का हवाला भी दिया, उनको आर्थिक दिक्कतें भी होने लगी थीं. बावजूद उसके शाबेग सिंह ने मुक्तिवाहिनी से जुड़े किसी भी सीक्रेट ऑपरेशन की जानकारी इस इंटरव्यू में नहीं दी. कहा कि मैं देशभक्त हूं और इस मुद्दे पर कुछ भी नहीं बोल सकता हूं.
यह इंटरव्यू मई 1984 में हुआ था. तब नहीं लगा था कि इतना कुछ होगा, उसके बाद बाकी सिख विद्रोहियों समेत शाबेग सिंह की लाश ही मिली. लेकिन सोचिए कि अगर इस कद के सैन्य अधिकारी की इंदिरा ने बातें सुन ली होतीं, उनका पक्ष भी जान लेतीं, ठीक से जांच करवातीं, मुकदमा फास्ट ट्रैक करवा लेतीं तो शायद ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ होता ही नहीं, भिंडरावाले की आर्मी से टकराने की हिम्मत ही न होती, न ही इंदिरा गांधी की हत्या होती और न ही हजारों सिखों को 1984 के दंगों में अपनी जान, माल तथा परिवारों से हाथ धोना पड़ता.
(‘इंदिरा फाइल्स’ किताब को प्रभात प्रकाशन ने छापा है और सॉफ्टकवर में इसकी कीमत 450₹ है.)
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