हमारे पास जनवरी 2023 के सबसे हालिया व्यापार डेटा से पता चलता है कि नरेंद्र मोदी सरकार ‘मेक इन इंडिया’ को बनाए रखने और विनिर्माण को सबसे आगे रखने व सेवा क्षेत्र को द्वितीयक स्थिति में लाने के लिए एक मीडियम टर्म एरर कर रही है.
इसके बजाय इस स्थिति को दूसरे तरीके से भी देखा जाना चाहिए. ‘मेक इन इंडिया’ के आठ साल से अधिक समय बीत जाने के बाद, इसमें सुधार का समय आ गया है.
जनवरी के डेटा से पता चलता है कि हमारी सेवाओं का निर्यात बढ़कर लगभग 32 बिलियन डॉलर हो गया है, जो लगभग हमारे धीमे मर्केंडाइज निर्यात के बराबर है. इससे सरकार की रुचि बढ़ने की उम्मीद है. मोदी को मैन्युफैक्चरिंग से सर्विसेज की ओर शिफ्ट होना चाहिए. ‘मेक इन इंडिया’ में सुधार की जरूरत है
वैश्विक अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से विकसित दुनिया में मंदी की प्रतिक्रिया में भारत का माल निर्यात और सेवा निर्यात विपरीत तरीके से व्यवहार करता है.
अमेरिका और यूरोप में लगभग मंदी की स्थिति ने उन्हें भारत से किए जाने वाले माल के आयात में कटौती करने को मजबूर किया है. न केवल आर्थिक गतिविधि धीमी हो रही है, बल्कि उच्च मुद्रास्फीति और ईंधन की लागत ने अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों के लिए भारत से माल परिवहन को तेजी से अव्यवहारिक बना दिया है.
हालांकि, इन्हीं स्थितियों का मतलब है कि भारत सेवाओं के निर्यात का एक तेजी से आकर्षक स्रोत बनता जा रहा है. भारत प्रतिस्पर्धी कीमतों पर उच्च गुणवत्ता वाली सेवाएं प्रदान करता है, ठीक वैसी ही जैसी विकसित दुनिया की बीमार कंपनियों को चाहिए. और कोई परिवहन लागत नहीं है. यही कारण है कि जनवरी में जहां भारत का माल निर्यात वास्तव में 6.5 प्रतिशत कम हुआ, उसी महीने हमारी सेवाओं का निर्यात लगभग 50 प्रतिशत बढ़ गया.
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भारत के सेवा क्षेत्र को चलाने वाले कारक
अधिक उल्लेखनीय बात यह है कि यह वृद्धि केवल सामान्य आईटी/आईटीईएस क्षेत्रों द्वारा संचालित नहीं हो रही है, जिसमें हमारे पास पहले से ही एक ठोस वैश्विक प्रतिष्ठा है. विकास ‘अन्य व्यावसायिक सेवाओं’ नामक एक खंड से भी आ रहा है, जिसमें अनुसंधान और विकास-आधारित सेवाओं का निर्यात, और लेखा परीक्षा, लेखा और कानूनी सेवाओं जैसी पेशेवर और प्रबंधन परामर्श सेवाएं शामिल हैं.
इस वित्तीय वर्ष की पहली छमाही में ‘अन्य व्यावसायिक सेवाओं’ श्रेणी में भारत को 8.6 बिलियन डॉलर का शुद्ध भुगतान देखा गया (भारत द्वारा अन्य देशों को किए गए भुगतानों को घटाने के बाद), जो पिछले वर्ष की समान अवधि के तिगुने से अधिक था. याद रखें, यह रुपये की भारी गिरावट के बावजूद है. दूसरे शब्दों में, एक डॉलर के बावजूद अधिक डॉलर आए, इसके बावजूद कि पहले की तुलना में डॉलर अब मजबूत है.
सेवा क्षेत्र के कुल प्रवाह में इस सेक्टर की हिस्सेदारी भी इसी अवधि में लगभग 5 प्रतिशत से बढ़कर 13 प्रतिशत हो गई, जिसका अर्थ है कि यह हमारी पारंपरिक रूप से लोकप्रिय सेवाओं की तुलना में तेजी से बढ़ी.
हालांकि, पूर्ण संख्या अभी भी कम है, लेकिन यह ठीक यही अवसर है जिसका भारत फायदा उठा सकता है. मर्केंडाइज निर्यात के साथ बात यह है कि यह लगभग हमेशा वैश्विक परिस्थितियों का गुलाम बना रहेगा. लेकिन सेवाओं के निर्यात से न केवल तब लाभ होता है जब वैश्विक स्तर पर चीजें खराब दिख रही हों, बल्कि स्थिति में सुधार होने पर भी उन्हें बनाए रखने की संभावना होती है क्योंकि भारत अन्य देशों की तुलना में प्रतिस्पर्द्धी दर पर गुणवत्ता प्रदान करता है.
ऐसा नहीं है कि अमेरिका में कंपनियां सिर्फ इसलिए अपने अकाउंटिंग या ऑडिटिंग को भारत से आउटसोर्स करना बंद कर देंगी क्योंकि उन्हें अपना मुनाफा बढ़ाना है. हालांकि, अगर भारत सरकार शीर्ष स्तर के प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना करके मात्रा के साथ-साथ गुणवत्ता के मामले में इन क्षेत्रों के विकास पर जोर देता है, तो यह सुनिश्चित कर सकता है कि भारत ऊंच-नीच के वक्त में भी ऐसी सेवाओं के लिए जगह बन जाए.
सरकार राजनीतिक विकल्पों से परे क्यों जा सकती है
राजनीतिक दृष्टिकोण से, यह समझ में आता है कि मोदी सरकार ने सेवाओं के ऊपर विनिर्माण को क्यों चुना है. सेवाओं की तुलना में विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार बढ़ाना एक तेज प्रक्रिया है. कारखाने के निर्माण का वास्तविक कार्य न केवल रोजगार सृजित करता है, बल्कि पर्याप्त प्रोत्साहन के साथ, इसे जल्दी से किया जा सकता है, जिसके बाद कारखाना-श्रमिकों का रोजगार बढ़ता है. एक और फायदा यह है कि इससे कम कुशल श्रमिकों की मांग बढ़ जाती है.
सेवाओं में, निवेश विलंबित परिणाम देते हैं. आपको सबसे पहले अकाउंटेंसी, ऑडिटिंग और अन्य इन-डिमांड सेवाओं में कर्मचारियों को कुशल बनाने की आवश्यकता है. राजनीतिक रूप से, विशेष रूप से जब भारत हर साल विधानसभा चुनाव आयोजित करता है, सेवाओं के बजाय विनिर्माण विकास को प्रोत्साहित करने के लिए धन की अधिक मांग होती है.
मोदी सरकार ने यह भी दिखाया है कि उसके पास मीडियम-टर्म विजन है. माल और सेवा कर, इन्सॉलवेंसी एंड बैंकरप्टसी कोड, और अकाउंट एग्रीगेटर सेटअप बड़े सुधारों के कुछ उदाहरण हैं जिनके वास्तव में परिणाम दिखाने से पहले लंबी अवधि होती है. सेवाओं को मुख्य फोकस बनाना एक और बात हो सकती है.
यहां सरकार को भारत की विनिर्माण क्षमताओं को बढ़ाने से रोकने के लिए तर्क नहीं दिए जा रहे हैं. इसमें थोड़ा सा संदेह है और जो कि हमारे आर्थिक और भू-राजनीतिक सुरक्षा के लिए किया जाना जरूरी भी है. हालांकि, इस बारे में बहुत कुछ लिखा गया है कि हम कितनी भी कोशिश कर लें, हम चीन को दुनिया के कारखाने के रूप में प्रतिस्थापित नहीं कर पाएंगे.
इसलिए, उस अर्थ में, आत्मनिर्भर भारत को मेक इन इंडिया के साथ और बेहतर करने की आवश्यकता है. हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि हम चीन जैसे देशों से कम आयात करें, लेकिन हमें माल निर्यात पर इसके साथ प्रतिस्पर्धा करने को लेकर बहुत ज्यादा ध्यान देने और संसाधनों को झोंकने की जरूरत नहीं है.
आइए इसे दूसरे तरीके से देखें. मेक इन इंडिया अभियान सितंबर 2014 में शुरू किया गया था. तब से, भारत के जीवीए (ग्रॉस वैल्यू ऐडेड) में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी 2014 में लगभग 48 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 की पहली छमाही में 57 प्रतिशत से थोड़ा अधिक हो गई है. सरकार का प्राथमिक फोकस हुए बिना सर्विस सेक्टर ने यह कर दिखाया है. कल्पना कीजिए कि अगर इस पर पूरा फोकस किया जाए तो यह क्या कर सकता है.
अब समय आ गया है कि मोदी सरकार अपना ध्यान मेक इन इंडिया से हटाकर ‘सर्विस इन इंडिया’ पर फिर से केंद्रित करे- या कोई और नारा जिसमें सरकार काफी अच्छी है. हमें अपने लिए अधिक से अधिक ‘बनाने’ का प्रयास करना चाहिए, लेकिन साथ ही दुनिया को भी ‘सर्विस’ देने की भी कोशिश करनी चाहिए.
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(संपादनः शिव पाण्डेय)
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