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Monday, 25 November, 2024
होममत-विमत1977 में जब बिना ठीक से गठित हुई जनता पार्टी को वोटरों ने देश की सत्ता सौंप दी

1977 में जब बिना ठीक से गठित हुई जनता पार्टी को वोटरों ने देश की सत्ता सौंप दी

भले ही पीएम नरेन्द्र मोदी आजकल यह दावा करते नहीं थक रहे हों कि केन्द्र में गैरकांग्रेसी गोत्र वाली पहली सरकार 2014 में उनके ही नेतृत्व में बनी.

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भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आजकल यह दावा करते नहीं थक रहे हों कि केन्द्र में गैरकांग्रेसी गोत्र वाली पहली सरकार 2014 में उनके ही नेतृत्व में बनी, हमारे लोकतांत्रिक इतिहास की यह ऐतिहासिक सच्चाई बदलने वाली नहीं कि लोकसभा के 1977 के आम चुनाव में देश की सरकार बदल सकने की अपनी शक्ति का मतदाताओं द्वारा किया गया पहला ही प्रदर्शन इतना जोरदार था कि आजादी के बाद से चला आता कांग्रेस का एकछत्र राज उसके एक झटके में खत्म हो गया था.

देश की इन दिनों की युवा पीढ़ी शायद ही यकीन करे कि उन दिनों के माहौल में देश में हुआ यह सत्ता परिवर्तन इतना अप्रत्याशित था कि आम लोगों को किसी चमत्कार से कम नहीं लगता था. बाद में सामान्य ज्ञान की परीक्षाओं में इस ‘चमत्कार’ से जुड़े और कौतूहल पैदा करने वाले कई तरह के प्रश्न पूछे जाने लगे थे. मसलन, उस राजनीतिक पार्टी का नाम बताइए, जो गठित होने से पहले ही देश की सत्ता पा गई हो? इस सवाल का तब भी एक ही जवाब था और अब भी एक ही है- जनता पार्टी. अब देश में राजनीति की जो हालत हो गई है, उसमें लगता भी नहीं कि आगे कभी कोई पार्टी अब अस्तित्व तक में नहीं रह गई जनता पार्टी के नाम दर्ज इस रिकार्ड को तोड़ पायेगी.


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दरअस्ल, 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपनी सरकार के खिलाफ रह रह कर भड़क रहे व्यापक असंतोष के बीच जयप्रकाश नारायण की अगुआई में विपक्षी दलों की बड़ी घेरेबन्दी भी झेल रही थीं. इसी बीच 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी राजनारायण की चुनाव याचिका पर 1971 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली सीट से उनका चुनाव अवैध घोषित कर दिया तो जैसे आग में घी पड़ गया. तब श्रीमती गांधी को असंतोष की इस आग को काबू में लाने का कोई रास्ता नहीं सूझा और उन्होंने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर आंतरिक सुरक्षा को खतरे के बहाने देश पर इमर्जेंसी थोपकर प्रायः सारे विपक्षी नेताओं को सींखचों में डाल दिया और नागरिकों के सारे मौलिक अधिकार छीन लिया. इसके बाद भी चैन नहीं आया तो उन्होंने संविधान में संशोधन करके लोकसभा के चुनाव भी टाल दिये.

19 महीनों के भयानक दमन व उत्पीड़न के बाद उन्होंने तब अचानक नये लोकसभा चुनाव कराने की घोषणा की, जब उन्हें उनके विश्वस्तों और गुप्तचरों ने पूरी तरह आश्वस्त कर दिया कि इस बीच इमर्जेंसी भरपूर ‘फूलने-फलने’ लगी है और विपक्षी दलों द्वारा खड़ा किया गया सारा प्रतिरोध उसकी ‘उपलब्धियों’ के महासागर में डूब गया है. इससे आह्लादित होकर उन्होंने ‘निर्भय व निष्पक्ष चुनाव’ के लिए जेलों में बन्द विपक्षी नेताओं की रिहाई शुरू की तो जैसा कि बहुत स्वाभाविक था, छूटने वाले नेताओं को एकबारगी यह सब भी उनके किसी बड़े षडयंत्र का हिस्सा लगा. वैसे भी किसी नेता को अचानक जेल से निकालकर कह दिया जाये कि अब जाओ, चुनाव के मैदान में जोर आजमाइश कऱो, तो उस पर बुरी ही बीतेगी. उसके पास किसी तैयारी का समय जो नहीं होगा.

उन दिनों भारतीय लोकदल के नेता चैधरी चरण सिंह ने शायद इसी की अभिव्यक्ति करते हुए अपने बयान में कहा था, ‘दरअस्ल, गांधी हमें चुनाव के जाल में फंसा रही हैं’ वस्तुतः ऐसा था भी. वह तो देश के मतदाता थे, जिन्होंने अपने फैसले से उनके उस जाल को सर्वथा नये प्रातःकाल में बदल दिया.

खैर, उस चुनाव में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पहल पर कांग्रेस को सीधी टक्कर देने के लिए उसके प्रमुख विरोधी दलों का विलय कर नई पार्टी बनाने पर सहमति हुई तो जल्दी-जल्दी उसका नाम और झंडे का रूप-रंग भर तय किया जा सका. पार्टी के विधिवत गठन की औपचारिकताएं पूरी करने का वक्त नहीं था और इसके बिना चुनाव मैदान में उतरने पर उसके सारे प्रत्याशियों को एक या कि साझा चुनाव चिह्न मिलना मुमकिन नहीं होने वाला था. इससे उसकी संभावनाओं पर पड़ सकने वाले बुरे असर के मद्देनजर चौधरी चरण सिंह के भारतीय लोकदल के चुनाव निशान ‘चक्र में कंधे पर हल धरे किसान’ का प्रयोग करने का फैसला किया गया.

इस तरह 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर लड़ने वाले सारे उम्मीदवार तकनीकी तौर पर भारतीय लोक दल के उम्मीदवार थे और जनता पार्टी सत्ता में आई तो उसका विधिवत गठित होना बाकी था. लेकिन उसके इस गौरवशाली इतिहास का दूसरा पहलू बहुत दुखद है: विधिवत गठन के बाद भी जनता पार्टी के घटक दलों में नीति व सिद्धांत आधारित सच्ची एकता संभव नहीं हो पाई. उन्होंने ऊपर-ऊपर से तो अपने दिल मिला लिये, लेकिन अन्दर-अन्दर खीरे की फांकों जैसी दूरियां बनाये रखीं.

इस कारण उनके आपसी मनोमालिन्य व तनातनी के बीच एक दूसरे को सबक सिखाने वाले दांव-पेच भी जारी रहे. इन दांव पेचों के चक्कर में वे कई बार सामान्य शिष्टाचार भी भूल जाते थे. यह भी कि उन्होंने राष्ट्रपिता की समाधि पर जाकर एक व नेक रहने और देश के दूसरी आजादी के सपने को परवान चढ़ाने की कसम खाई है. बाद में पार्टी के समाजवादी खेमे को उसके जनसंघ घटक से ताल्लुक रखने वालों को लेकर बहुत से एतराज रहने लगे थे और वे उन्हें जताने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं दे़ते थे.

इसका एक उदाहरण 1978 में सामने आया जब एक उपचुनाव के दौरान केन्द्रीय उद्योग मंत्री जार्ज फर्नांडीज जनता पार्टी प्रत्याशी का प्रचार करने फैजाबाद पहुंचे. ऐतिहासिक गुलाबबाड़ी मैदान में मतदाताओं की सभा को सम्बोधित करने के बाद उनके भोजन व जलपान का प्रबंध पार्टी के जनसंघ घटक के एक प्रभावशाली स्थानीय नेता के, जो व्यवसायी भी थे, लाजपतनगर स्थित आवास पर किया गया था, लेकिन समाजवादी खेमे के स्थानीय कार्यकर्ता नहीं चाहते थे कि जार्ज उस नेता के घर जाकर उसका ‘भाव’ बढ़ायें. इसके लिए और कुछ करते नहीं बना तो उन्होंने वापसी में जार्ज के काफिले को रास्ता भटकवा दिया. गलत रास्ते के कारण जार्ज वहां से दूसरी तरफ निकल गये तो समय और दूरी के बहाने उन्हें फैजाबाद के ऐतिहासिक चौक में ही चाय आदि पिलाकर सीधे हवाई पट्टी की ओर रवाना कर दिया गया.


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जाते-जाते जार्ज ने अपने समर्थकों से इतना जरूर कहा कि उन नेता जी से मेरी ओर से क्षमा याचना कर लीजिएगा. मुझे दिल्ली पहुंचकर एक जरूरी बैठक में भाग न लेना होता तो मैं उनके साथ भोजन जरूर करता. इतिहास गवाह है कि आगे चलकर इन्हीं जार्ज फर्नांडीज ने जनसंघ घटक को सबक सिखाने के लिए अपने दूसरे साथियों के साथ मिलकर जनता पार्टी में ‘दोहरी सदस्यता’ का बहुचर्चित मामला उठाया और उसे जनता पार्टी के विघटन और उसकी सरकार के पतन तक ले जाकर छोड़ा.

यह और बात है कि बीती शताब्दी के आखिरी दशक में वे जनसंघ के नये अवतार भाजपा के अत्यंत निकट सहयोगी बने और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रक्षा जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय का दायित्व संभाला. वे लम्बे अरसे तक भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन के संयोजक भी रहे. जनता पार्टी के दौर में जिन जनसंघियों के साथ उन्हें रोटी दाल तक खाना स्वीकार नहीं था, भारतीय जनता पार्टी के दौर में उन्होंने उन्हीं के साथ सरकार में साझेदारी करना और सत्तासुख उठाना तक स्वीकार किया. तब अवध में लोग उनके लिए प्रसिद्ध शायर पंडित दयाशंकर नसीम लखनवी का एक शेर उद्धृत किया करते थे- लाये उस बुत को इल्तिजा करके, कुफ्र टूटा खुदा-खुदा करके.

(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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