उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू करने के लिए बने 200 प्वाइंट रोस्टर को विश्वविद्यालय/कालेज स्तर पर न लागू करके, विभाग/विषय स्तर पर लागू करने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर रिव्यू पेटिशन यानी पुनर्विचार याचिका खारिज हो गयी है. रिव्यू पेटिशन खारिज होने के बाद सरकार के पास अब किस तरह के कानूनी विकल्प बचे हैं, इस पर सबसे आखिरी में बात करेंगे, लेकिन उससे पहले यह समझ लेते हैं, किस तरह से रोस्टर में बार-बार बदलाव करके आरक्षित वर्ग यानी एससी-एसटी-ओबीसी की सीटें चोरी कर ली गईं?
200 प्वाइंट रोस्टर
200 प्वाइंट रोस्टर की शुरुआत 1997 में सुप्रीम कोर्ट के आरके सब्बरवाल बनाम पंजाब सरकार और जेसी मिलक बनाम रेलवे विभाग के फैसलों से हुई, जिसमें कोर्ट ने कहा कि रिज़र्वेशन को वैकेंसी के आधार पर लागू करने की बजाय पोस्ट के आधार पर लागू किया जाये. इस आदेश के अनुपालन में भारत सरकार के कार्मिक विभाग ने 02 जुलाई 1997 के अपने आदेश संख्या 36012/2/96-Estt. (Res) के माध्यम से सभी विभागों को 200 प्वाइंट वैकेंसी आधारित रोस्टर को 200 प्वाइंट पोस्ट आधारित रोस्टर से बदलने को कहा.
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कोर्ट ने अपने आदेश में यह कहा था कि वैकेंसी आधारित रोस्टर तब तक लागू रहना चाहिए जब तक आरक्षित वर्ग का उनके आरक्षण के अनुपात में कोटा भर नहीं जाता. इसके बावजूद वैकेंसी आधारित रोस्टर को तेजी से बदलकर पोस्ट आधारित रोस्टर कर दिया गया, जिसके परिणाम स्वरूप विश्वविद्यालयों में रातों रात आरक्षित वर्ग की हजारों की संख्या में खाली पड़ी सीटें अनारक्षित में तब्दील हो गईं. ये वे सीटें थी, जिनको ‘योग्य उम्मीदवार नहीं मिलने के बहाने’ लंबे समय से खाली रखा गया था. इसका परिणाम यह हुआ कि उच्च शिक्षण संस्थानों में रिज़र्वेशन लागू रहने के बाद भी एसटी/एससी समुदाय के प्राध्यापक न के बराबर ही नियुक्त हो पाये. यह तथ्य समय-समय पर आरटीआई के माध्यम से बाहर आता रहता है.
वैकेंसी आधारित रोस्टर में 1, 4,….. एवं 7,… पद क्रमशः एससी और एसटी के लिए आरक्षित था, जबकि पोस्ट आधारित रोस्टर में 7, 15, 20,….एससी को और 14, 28, 40 एसटी को आरक्षित किया गया है, इसलिए यह पूरी प्रक्रिया शुरू से ही आरक्षित वर्ग के हितों के खिलाफ थी.
वैकेंसी आधारित रोस्टर और पोस्ट आधारित रोस्टर सिस्टम के तहत यूजीसी ने 2006 तक एससी/एसटी को केवल सहायक प्रोफेसर पद पर ही आरक्षण दिया, जिससे इन समुदायों का एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पद पर प्रतिनिधित्व ही नहीं बन पाया. यह बात जब आरटीआई वगैरह से बाहर आनी शुरू हुई तो व्यापक दबाव बनाने लगा, जिसकी वजह से मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 06 दिसंबर 2006 को यूजीसी को एक पत्र लिखकर रिज़र्वेशन नीति में आई विसंगतियों को दूर करने के लिए कहा, जिसके परिपालन में यूजीसी ने तीन सदस्यीय कमेटी बनाई, जिसमें प्रो आरके काले, प्रो जोस वर्गीज़ और डॉ. आरके चौहान सदस्य थे.
इस कमेटी ने विश्वविद्यालयों की कार्यप्रणाली के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन्दिरा साहनी, आरके सब्बरवाल और जेसी मिलक के मामलों में दिये गए निर्णयों को ध्यान में रखते हुए कार्मिक विभाग के 200 प्वाइंट रोस्टर को आधार बनाकर विश्वविद्यालयों का भी 200 प्वाइंट का रोस्टर बनाया और उसे सभी आरक्षित वर्गों के लिए लागू करने की सिफ़ारिश की.
200 प्वाइंट रोस्टर पर विवाद
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो 200 प्वाइंट रोस्टर पर विवाद की शुरुआत उत्तर प्रदेश से हुई, जहां की सरकारों ने अपने राज्य में विभाग/विषय को यूनिट मानकर रिज़र्वेशन लागू करने का पहले से ही कानून बनाया है. यहां की सरकारों ने बिना अपना कानून बदले ही 200 प्वाइंट रोस्टर लगाकर भर्ती निकाल दी, जो कि हाईकोर्ट में चैलेंज हुई. ऐसी सभी भर्तियों को हाईकोर्ट ने डॉ. विश्वजीत सिंह के मामले में इस आधार पर खारिज कर दिया कि विधानसभा ने पहले से ही विभागवार/विषयवार आरक्षण लागू करने का कानून बनाया है, जिसको सरकार ने बिना बदले ही भर्तियां निकाल दीं. इस निर्णय में आया फैसला आगे चलकर 200 पॉइंट रोस्टर के खिलाफ आए सभी निर्णयों का आधार बना.
दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट का मानना है कि 200 प्वाइंट रोस्टर के आधार पर विश्वविद्यालय को यूनिट मानकर आरक्षण लागू करना कार्यपालिका का बनाया नियम है, जिसको बनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों का उल्लंघन हुआ है. हालांकि, हाईकोर्ट ने विवेकानंद तिवारी केस के अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने जिस निर्णय को उद्धृत किया है, वह मेडिकल कालेजों की सुपर स्पेशिलिटी में आरक्षण लागू करने से संबन्धित था.
उच्च शिक्षण संस्थानों में सामाजिक न्याय का भविष्य
200 प्वाइंट रोस्टर पर हालिया विवाद के बीच अलग-अलग विश्वविद्यालय धड़ाधड़ विज्ञापन निकाल रहे हैं, जिसमें आरक्षित वर्ग की पूरी की पूरी सीटें ही गायब हैं. इससे पता चलता है कि विश्वविद्यालयों में सामाजिक न्याय को कुचलने के लिए किस तरह से एक लाबी तैयार बैठी है. वो हर उस परिस्थिति का फायदा उठाने की कोशिश करती है, जब आरक्षण को लेकर कोई दुविधा पैदा होती है. वर्तमान सरकार के रवैये से एक बार फिर दुविधा पैदा हुई है, जिसका पूरा फायदा आरक्षण विरोधी लाबी उठा लेना चाहती है. यह दुविधा दो वजह से पैदा हुई है.
पहली दुविधा इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के आलोक में सरकार द्वारा यूजीसी के माध्यम से विश्वविद्यालयों को दिये गए निर्देश से पैदा हुई. दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में यूजीसी को निर्देशित किया था कि वह इस मामले को मानव संसाधन विकास मंत्रालय सामने रखकर जरूरी दिशा-निर्देश प्राप्त करे. मंत्रालय ने 6 दिसंबर 2017 के अपने परिपत्र संख्या 1-7/2017-CU.V और दिनांक 22 फरवरी 2018 के अपने परिपत्र संख्या 1-7/2017-CU.V से यूजीसी को विभागवार/विषयवार आरक्षण लागू कराने का आदेश दिया. इन पत्रों के अनुपालन में यूजीसी ने 5 मार्च 2018 को सभी विश्वविद्यालयों को विभागवार/विषयवार आरक्षण लागू करने का दिशानिर्देश जारी किया.
बाद में यूजीसी के आदेश पर जब काफी हंगामा हुआ तो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पेटिशन यानी विशेष अनुमति याचिका डाल दी. उसके खारिज होने पर रिव्यू पेटिशन का रास्ता सरकार ने चुना. अब वह भी खारिज हो चुकी है. इस मामले में सरकार ने जिस तरीके से बार-बार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, उससे लगता है कि या तो उसे यूजीसी के अधिकारियों ने या तो मंत्रालय के अधिकारियों ने गुमराह कर दिया है. या फिर सरकार के इरादे ही गलत हैं.
दूसरी दुविधा इस बात को लेकर पैदा हुई है कि सरकार 200 प्वाइंट रोस्टर को हटा कर 13 पॉइंट का रोस्टर लागू करना चाह रही है. इसके पीछे भी सरकार के कार्मिक विभाग का ही एक कदम जिम्मेदार है, जिसके तहत उसने 09 जनवरी 2019 को आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण हेतु पारित 103वां संविधान संसोधन लागू करने के लिये 09 जनवरी 2019 को आदेश जारी किया है, जिसमें 200 प्वाइंट रोस्टर के साथ ही 13 प्वाइंट का रोस्टर भी अटैच है.
रोस्टर विवाद का समाधान
पिछले संसद सत्र में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने आश्वासन दिया था कि यदि सरकार की रिव्यू पिटिशन खारिज हो जाती है तो वह अध्यादेश लाएगी. वर्तमान परिस्थिति में ऐसा लगता है कि अध्यादेश के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है, क्योंकि सत्रावसान हो जाने की वजह से लोकसभा अब आम चुनाव के बाद ही बैठेगी. ऐसे में सरकार अध्यादेश लाकर इस मामले का कुछ हद तक समाधान निकाल सकती है, भले ही मानव संसाधन विकास मंत्री ने ऐसा करने का वादा भी किया था, लेकिन अध्यादेश इस मामले में कारगर कदम साबित होगा, इस पर भी संशय है.
संविधान के अनुच्छेद-123 तहत राष्ट्रपति के पास संसद के दोनों सदनों के सत्र में न रहने के दौरान अध्यादेश जारी करने की शक्ति है, जिसकी मान्यता एक कानून के ही समान होती है. संसद के सत्र में आते ही उस अध्यादेश को पास करना पड़ता है, वरना वह अपने आप समाप्त हो जाता है. इस मामले में अगर सरकार अध्यादेश लाती भी है, तो यह सुनिश्चित करना होगा कि आम चुनाव के बाद गठित होनी वाली लोकसभा में इसे तुरंत पास कराया जाए.
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इसके अलावा इस मामले में अध्यादेश कितना प्रभावी साबित हो पता है, यह भी देखना होगा क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के जिन निर्णयों को आधार बनाकर अपना निर्णय सुनाया है, वह निर्णय एक संवैधानिक पीठ द्वारा दिया गया था, जिसको निष्प्रभावी करने के लिए संविधान संशोधन करने की जरूरत पड़ सकती है. अध्यादेश के माध्यम से संविधान संशोधन की कोशिश हुई हो, ऐसा हमारे ध्यान में कोई मामला नहीं है,
(जेएनयू के स्कूल ऑफ लाइफ साइंस में प्रोफेसर रहे, प्रो काले 200 पॉइंट रोस्टर बनाने वाली यूजीसी की कमेटी के सदस्य थे, और गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति रह चुके हैं.)
(अरविन्द कुमार, लंदन विश्वविद्यालय के रॉयल होलवे में राजनीति विज्ञान में पीएचडी कर रहे हैं.)