पहले तो बैंकों को सुधारने की फौरी कार्रवाई हुई. अब व्यवसायियों की बारी है. अनिल अंबानी ग्रुप खुद को दिवालियेपन के कगार पर पा रहा है. नरेश अग्रवाल की विमान सेवा कंपनी जेट एयरवेज़ उनके हाथ से निकलने वाली है. सुभाष चंद्रा की ज़ी किसी उद्धारकर्ता की तलाश में है. रुइया बंधु अपने एक प्रमुख उद्यम से तो हाथ धो ही चुके हैं, दूसरे से भी हाथ धोने वाले हैं. कोलकाता में बी.एम. खेतान ग्रुप अपने चाय बागान बेच रहा है और अपनी कंपनी को बिक्री के लिए पेश कर चुका है. दिल्ली में सिंह बंधु विरासत में मिली रैनबक्सी को तो बरबाद कर ही चुके थे, अब एक-दूसरे को बरबाद करने पर तुले हैं. लंदन में विजय माल्या आर्थर रोड जेल से, जिसे उनके सम्मान में तैयार किया जा रहा है, दूर रहने के लिए खूब हाथ-पैर मार रहे हैं.
इस बीच, ऋण चुकाने के लिए महान सेल चल रही है. चाहे हवाईअड्डों के ‘विश्वकर्मा’ जीएमआर हों या जीवीके, या वित्त के मैदान के दिग्गज आइएल एंड एफएस और डीएचएफएल, या रियल एस्टेट के डीएलएफ, ये सब के सब अतीत में की गई अति से उपजी समस्याओं से जूझ रहे हैं. खुशनुमा सालों में उभरीं भूषण और लैनको सरीखी अति-महत्वाकांक्षी नई रचनाएं नक्शे से गायब हो चुकी हैं. वित्त क्षेत्र में फैले गुप्त विषों को लेकर बिज़नेस सर्किल में अफवाहें गूंज रही हैं. इस सेक्टर में उधड़ रहा है.
सीधी-सी धारणा यह थी कि सार्वजनिक क्षेत्र खराब है, निजी क्षेत्र बढ़िया. सार्वजनिक क्षेत्र अभी भी खराब दिखता है. एयर -इंडिया के मामले को ही लीजिए, पिछले दो साल में सरकारी बैंकों में 1.57 खरब रुपये इसमें झोंके जा चुके हैं लेकिन अब और 48,000 करोड़ रु. झोंके जाएंगे, लाइलाज सरकारी टेलिकॉम कंपनियों- बीएसएनएल और एमटीएनएल का उद्धार भी किया जाना है. लेकिन भारत के अति-प्रशंसित निजी क्षेत्र की ध्वजा को कौन फहराएगा? आखिर इसी क्षेत्र ने तो बैलेंसशीट संबंधी वे समस्याएं पैदा कीं, जिनसे तमाम बैंक जूझ रहे हैं, जिनके चलते उधार सिकुड़ गया और अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ गई.
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धूल चाटने वाले व्यवसायियों में कई वे हैं, जो पहली पीढ़ी के उद्यमी हैं, जिन्हें शायद इसलिए सहानुभूति हासिल थी कि उन्होंने कुछ बड़ा करने के सपने देखे. फिर भी, रूइया बंधुओं ने 1990 में भी दिवालिया होने के बाद भी कोई सबक नहीं सीखा. उनके साथ दूसरों ने भी ऋण पर बहुत ज़्यादा दारोमदार रखा, या जींसों की कीमतों में बदलाव तथा लंबा समय लेने वाली परियोजनाओं से जुड़े खतरों को कम करके आंका. कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने शुरुआती पूंजी ऐसे स्रोतों से ली, जो गहरी जांच को झेल नहीं पाती. यह वही पुरानी कहानी थी कि कंपनी तो गर्त में जा रही है मगर उसके मालिक फल-फूल रहे हैं. अब भला हो नए नियमों का, कंपनियों और उनके प्रोमोटरों के भाग्य एक-दूसरे के साथ गहरे जुड़ गए है. जहां तक दूसरी-तीसरी पीढ़ी वाले उत्तराधिकारी व्यवसायियों की बात है जिन्होंने विरासत मे मिले कारोबार को खराब किया, उनके प्रति कुछ हलक़ों में परपीड़ासुख वाला भाव है.
उनकी जगह कौन लेगा? क्या उद्यमियों की नई पीढ़ी ज़्यादा बेहतर कारोबारी बुद्धि या फिर बेहतर तक़दीर के साथ आगे आएगी? लेकिन तथाकथित नई सोच वाले उद्यमी पुरानो की नकल करते दिखते हैं, जिन्हें नकदी विदेश (चीन समेत) से मिलती है. बीते दौर में तकनीकी सेवाओं में से उभरे कई अरबपति परमार्थ की ओर मुड़ गए हैं. डीमार्ट के राधाकृष्णन दमाणी जैसे कुछ नए सितारे चमक रहे हैं, मगर सन फार्मास्युटिकल के दिलीप संघवी सरीखे तो फार्मा की फीकी पड़ती कहानी के साथ ओझल हो गए हैं. और सुनील मित्तल टेलीकॉम टैरिफ के भंवर में डूब गए हैं. वास्तव में, वर्तमान परिदृश्य की विशेष बात यह है कि टेलीकॉम और उड्डयन जैसे फलते-फूलते क्षेत्र भी सरप्लस नहीं दे रहे. सो, आश्चर्य नहीं कि शेयर बाज़ार पांच साल से सुस्त पड़ा है. अब यही उम्मीद की जा सकती है कि कुछ गुप्त रत्न हो जो अभी सूचीबद्ध नहीं हुए हैं.
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उपभोक्ता से जुड़े बिज़नेस ही अब तक सुरक्षित दिख रहे हैं जिनमें इमामी, मारिको, आदि मैदान में दिग्गजों की मौजूदगी के बावजूद आश्चर्यजनक रूप से अच्छा कर रही हैं. हालांकि इमामी थोड़ी लड़खड़ाई, और कर्ज़ के अपने बोझ को कम करने में जुटी है. कुछ स्थापित ग्रुप— बजाज, महिंद्रा, पीरामल, गोदरेज, और बेशक अथक रिलायंस— लगातार बेहतर कर रहे हैं. लेकिन टाटा डेढ़ टांग के ग्रुप जैसा दिखने लगा है, क्योंकि उसके बॉम्बे हाउस के दिग्गज पूंजी को सोख ले रहे हैं.
इस बीच, सुज़ुकी ने आधे कार बाज़ार पर कब्ज़ा कर रखा है. चीनियों ने मोबाइल फोन बिज़नेस को पकड़ लिया है, कोरियाइयों ने उपभोक्ता सामान सेक्टर को. ब्लैकस्टोन और केकेआर जैसे निवेशक मौका देखकर आ गए हैं. आइबीएम देश में सबसे बड़ी नियोक्ता बन गई है. होंडा ने हीरो को पछाड़ दिया है, दियाजीओ ने माल्या को खरीद लिया है, दो सबसे बड़े निजी बैंक मूलतः विदेशी स्वामित्व वाले हैं, और इतिहाद शायद जेट को उड़ाने लगे. विदेशी खिलाड़ियों के बिना भला हम कहां रहेंगे?
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