एक विवाद जो अक्सर चलता रहता है वह है हिजाब, नक़ाब या बुर्का का. यह एक ऐसा विवाद है जिसके पक्ष एवं विपक्ष दोनों ओर लाखों लोग खड़े रहते हैं. यह विवाद केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में है. इस विवाद के कई पहलू हैं, मसलन – इस्लाम, धर्म, संस्कृति, महिला अधिकार, पितृसत्ता, मानव अधिकार आदि.
आये दिन ऐसा होता रहता है जब कोई महिला बुर्का पहनती है, तो कुछ लोग उसकी तारीफ करते हैं और उसे संस्कारी बताते हैं, वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोगों की लाइन लग जाती है जो इसे पितृसत्ता का प्रतीक और महिला गुलामी की निशानी मानते हैं. अभी हाल में एक फोटो मीडिया में तेजी से वायरल हुई जिसमें ए आर रहमान की बेटी खतीजा उनके साथ स्टेज शेयर कर रही थीं जिसमें उन्होंने काली साड़ी पहनी थी और बुर्का भी पहन रखा था जिसके बाद विवाद बढ़ गया. विवाद बढ़ता देख गीतकार-संगीतकार ए. आर. रहमान की एक बेटी खतीजा रहमान बुर्के में खड़ी हैं और दो बिना बुर्के में खड़ी हैं वह फोटो सोशल मीडिया पर शेयर की और कहा कि वह उसकी मर्जी है कि वह क्या पहनती है. इसको लेकर तुरंत एक विवाद शुरू हो गया.
कुछ लोगो का मानना है कि जो महिला बुर्का या नकाब पहनती हैं, वह अपनी मर्जी से इन्हें नहीं पहनती हैं. यह तर्क एक हद तक सही हो सकता है. हो सकता है कि बुर्का पहनने वाली महिलाओं के दिमाग में यह बात बिठाई गई हो कि उन्हें यही पहनना चाहिए. लेकिन यहां प्रश्न है कि बात बार-बार बुर्का पर ही क्यों आकर रुक जाती है?
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कोई भी कपड़ा पहनना इंसान बचपन में तय नहीं करता (न लड़का और न लड़की). बल्कि यह उनके माता–पिता और परिवार के लोग तय करते हैं. माता–पिता जिस तरह के कपड़े पहना देते हैं, उसी का हमें अभ्यास हो जाता है. लड़के को पेंट-शर्ट ओर लड़की को फ्रॉक पहनना अपने आप नहीं आता. यह बात हर पोशाक के साथ है. हिन्दू परिवार में कोई लड़की बचपन में साड़ी-पेटीकोट नहीं पहनती है, बड़ी होकर पहनती है. इसके पीछे आसपास का असर होता है. लेकिन कोई भी विचारक यह कहते नहीं पाया गया कि साड़ी–पेटीकोट असहज पहनावा है, और कि इसे महिलाओं ने खुद नहीं चुना, बल्कि उनको पहनाया गया है.
ऐसे काफी लोग हैं जो किसी महिला को बुर्क़े में देखते हैं, तो मान लेते हैं कि यह महिला परिवार में दबी हुयी है, शोषित है. उनके हिसाब से धर्म और संस्कृति के दबाव ने उन्हें बुर्का पहनने को मजबूर किया है. यह एक प्रकार की स्वनिर्मित पूर्वधारणा (Self Created Imposition) है, जो उन्होंने अपने मन में बना ली है. लेकिन वे एक बार भी उस महिला से नहीं पूछते कि उसका बुर्के पर क्या नजरिया है.
बुर्क़े या हिजाब को लेकर पब्लिक स्पेस में ज्यादातर बहस करने वाले पुरुष होते है, समर्थन करने वाले भी और विरोध करने वाले भी, जो खुद कभी बुर्का नहीं पहनते.
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बुर्क़े या हिजाब को देखकर ही कहना कि यह महिला शोषित है, अपने आप में एक खोखला तर्क है. जैसे – ए. आर. रहमान की तीन बेटियों में से एक बेटी बुर्के में हैं, और दो बिना बुर्के के. तो क्या यह कहा जा सकता है कि उसकी एक बेटी शोषित है, और दो शोषण-मुक्त स्वतंत्र जीवन जी रही हैं? ड्रेस के आधार पर किसी को शोषित या शोषक कहना बहुत ही जल्दबाज़ी है. इंदिरा गांधी साड़ी पहनती थीं, लेकिन इसने उनके व्यक्तित्व को कमजोर नहीं बनाया.
कुछ इलाकों के हिन्दू ग्रामीण समाज में जो महिला शादीशुदा है, यदि वह सलवार – कुर्ता पहनती हैं, इसे अच्छा नहीं माना जाता. ऐसी महिला के चरित्र को संदिग्ध माना जा सकता है. यह बात मैं उत्तर प्रदेश की कर रहा हूं. जबकि पंजाब में सभी शादीशुदा औरतें सलवार–कुर्ता पहनती हैं. वहां करेक्टर को लेकर ऐसी कोई धारणा नहीं है. एक ही देश में एक ड्रेस को लेकर अलग अलग क्षेत्रों में महिला के आचरण फिक्स कर दिए जाते हैं.
जो हिन्दू पुरुष यह तर्क देते हैं कि मुस्लिम महिलाएं अपनी इच्छा से बुर्का नहीं पहनतीं, बल्कि इसे उन पर थोपा जाता है, वे अपने ही समाज में इस तर्क को लागू नहीं करते. परंपरागत हिन्दू समाज में कोई लड़की अपना पति खुद नहीं चुनती. लड़की के मां –बाप उसके लिए पति चुनते हैं. निकाह की तरह शादियों में, होने वाली पत्नी की राय स्पष्ट रूप से नहीं पूछी जाती. परिवार द्वारा चुना गया मर्द उसका जीवन भर का पति रहता है. ऐसे पुरुष जो बुर्क़े को थोपा हुआ मानते हैं, क्या वे अपने ऊपर इस नियम को लागू करेंगे कि वे शादी के बाद किसी महिला पर थोप दिए गये हैं? या कि उन्होंने अपनी बेटी पर किसी मर्द को थोप दिया है. सत्य होने के बावजूद इसे स्वीकार नहीं किया जाता और इस पर कोई विवाद भी नहीं है.
विवाद का हल इसी से होगा कि महिला से पूछा जाये कि बुर्का उसने अपनी इच्छा से पहना है या नहीं. यदि वह हाँ कहती है, तो दूसरे को उसके मामले में पड़ने की जरूरत नहीं है. यह भी हो सकता है (और इस बात से मैं इंकार भी नहीं करता) कि कुछ महिलाएं परिवार के दबाब में बुर्का पहनती होंगी. लेकिन कुछ उदहारण से यह नियम सभी पर लागू नहीं हो सकता. दबाब में बुर्का पहनाना गलत है, तो यह कहना कि जो महिला बुर्का पहनी हैं, वह शोषित ही होंगी, उतना ही गलत है.
ईरान, सऊदी अरब जैसे देशो में बुर्का बाध्यकारी है, जिसका समर्थन हरगिज नहीं किया जा सकता. लेकिन जिन देशो में बुर्क़े पर प्रतिबन्ध लगाया गया है, वहां महिलाएं बुर्का पहले से ज्यादा पहनने लगी हैं, क्योकि उन्हें लगता है कि यह उनकी संस्कृति पर हमला है. फ्रांस, बेल्जियम इसके उदाहरण हैं.
जो लोग जो बुर्क़े का विरोध करते है, वे अन्य सभी पहनावे/ड्रेस पर चुप रहते हैं. हिन्दू महिला साड़ी पहनती है. किसी समस्या में फंसने पर वह इस ड्रेस में तेज नहीं भाग सकती. वह साड़ी में फंसकर गिर सकती है. लेकिन साड़ी विवादों से परे है. भारत में हर किसी के अपने पहनावे हैं, कुछ मान्यताएं हैं. सिख पगड़ी पहनते हैं, तमिलनाडु के लोग लुंगी/धोती लपेटते हैं. दिगंबर जैन महात्मा नंगे रहते हैं, कुम्भ मेला के नागा साधु नंगे रहते हैं. मैंने इन पर किसी को बहस करते नहीं देखा. बहस होगी केवल बुर्का पर. इस बहस में कोई दोष नहीं है. लेकिन इन बहसों की नीयत अक्सर खराब होती है और इसका मकसद एक समुदाय को नीचा दिखाना होता है. इसका कोई फायदा नहीं है. यह महिलाओं की मुक्ति के लिए भी नहीं है.
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक रहे हैं.)