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Friday, 22 November, 2024
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पुलवामा हमले के कुछ पल पहले आतंकी डार के कांप रहे थे हाथ, कांपते हाथों से मानव बम ने साथी को थमाई थी अपनी प्यारी घड़ी

यह भारत में किसी भी बगावत के मंच से सबसे अधिक जान-माल की क्षति थी. उन इलाकों का मौसम नम था और बैरकों के अंदर की हालत तो और भी खस्ता थी.

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पुलवामा जिले के हाजीबल में गड्ढों से भरी सड़क पर नीली कार हिचकोले खा रही थी. उसने कुछ ही मिनट बाद, तीन बजे के करीब, झेलम नदी पर बने छोटे पुल को पार किया. कार के ड्राइवर नौजवान शाकिर बशीर की उम्र बीस के लगभग रही होगी. उसने अपने साथ बैठे यात्री आदिल अहमद डार को देखा. डार भी उसका ही हमउम्र था और वह सामने देखते हुए धीमे स्वर में कुछ बुदबुदा रहा था. ड्राइवर ने पहचान लिया कि आदिल कुरान की आयतें पढ़ रहा था.

शाकिर पुल पार करने के बाद रुका. फिर वह नीचे उतरा और कार के दूसरी ओर चला गया. उसका दोस्त भी उतरा और दोनों ने आपस में जगह बदल ली. उसके बाद डार कार को चलाकर आगे ले गया.

तीन बजकर दस मिनट के आसपास, वे अपने सामने उस नेशनल हाईवे को देख सकते थे, जो कश्मीर घाटी को बाकी भारत से जोड़ता था.

डार ने दाईं ओर मोड़ काटा और उस सँकरी लिंक रोड पर कार चलाता रहा, जो हाईवे के साथ-साथ चल रही थी. एक मील तक कार चलाने के बाद वे एक ऐसी जगह रुके, जहाँ से वे यू-टर्न लेकर फिर से हाईवे पर आ सकते थे.

दोनों आदमी नीचे उतरे और आमने-सामने खड़े हो गए. डार के हाथ काँप रहे थे, वह उन्हें काबू करने की कोशिश में था. उसने अपनी इलेक्ट्रॉनिक कलाई घड़ी उतारकर दोस्त को दे दी, जिसे वह हमेशा पहने रखता था.

“यह तुम्हें मेरी याद दिलाती रहेगी,” उसने कहा. “मुझे अपनी दुआओं में याद रखना.”
“अल्लाह हा‌िफज!” शाकिर ने कहा. वे दोनों गले मिले. डार कार में वापस बैठा और दोस्त को वहीं छोड़ दिया. ज्यों ही

उसने चाबी घुमाई, तो जैकेट की जेब को थपथपाया, पिस्तौल सही जगह पर थी. उसके दोस्त ने उसे हाथ हिलाकर विदा दी और हाईवे पर तेजी से कार दौड़ाते हुए श्रीनगर की ओर रवाना हो गया.

बस में सी.आर.पी.एफ. (केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल) के कांस्टेबल एच. गुरु को अपनी पत्नी कलावती की याद आ रही थी—अभी विवाह हुए छह माह ही तो हुए थे.

गुरु की बस उसी सिपाहियों के कारवाँ का हिस्सा थी, जो उस दिन अलसुबह जम्मू से साढ़े तीन बजे चला था. कारवाँ में सेना अधिकारियों को जम्मू से श्रीनगर ले जाया जा रहा था, जिनके बीच लगभग तीन सौ कि.मी. की दूरी थी. वे लोग हमेशा सुबह के समय ही यात्रा आरंभ करते थे, ताकि काजीगुंड से श्रीनगर का रास्ता रोशनी रहते पूरा हो जाए. वहीं से कश्मीर घाटी शुरू होती थी. उस इलाके के बाद सुरक्षा बलों पर आतंकवादी हमलों की आशंका और बढ़ जाती थी.

उस दिन सी.आर.पी.एफ. का का‌िफला आम दिनों के मुकाबले बड़ा था. उसमें अठहत्तर वाहन थे, जिनमें अधिकतर बसें थीं, जो 2,547 अधिकारियों को ले जा रही थीं. पिछले पूरे सप्ताह बर्फबारी के चलते जम्मू-श्रीनगर हाईवे बंद रहा, इसलिए आज सभी सैनिकों को भेजा गया था. जम्मू के सैनिक शिविर खचाखच भर गए थे. गुरु जैसे और भी बहुत से सिपाही भारत के अलग-अलग हिस्सों से कश्मीर घाटी में अपने ड्‍‍यूटी स्टेशनों की ओर जानेवाले थे.

विवाह के बाद गुरु अपना नया घर बनाने में जुटा था. लगभग पंद्रह दिन पहले वह कर्नाटक के मांड्‍‍या जिले में परिवार के साथ समय बिताने गया था. वह तीन दिन पहले ही, 11 फरवरी को ड्‍‍यूटी पर वापस आया, पर उसे बर्फ हटने तक जम्मू में ही इंतजार करना पड़ा, ताकि यातायात बहाल हो सके.

उसी दिन, गुरु ने अपनी माँ से बात की थी और अब वह अपनी पत्नी से भी बात करना चाह रहा था. गुरु ने मोबाइल निकालकर कलावती का नंबर मिलाया. फोन की घंटी बजती रही, पर उसने फोन नहीं उठाया. शायद घर के किसी कामकाज में लगी थी.

गुरु तैंतीस साल का जवान था, जो 2011 में सी.आर.पी.एफ. का हिस्सा बना. उसकी पहली नियुक्ति पूर्वी भारत के झारखंड में माओवादीग्रस्त क्षेत्रों में से एक में हुई. उसे एक साल पहले, 2018 में ही कश्मीर भेजा गया था.

2000 के मध्य, जब सी.आर.पी.एफ. ने बी.एस.एफ. (सीमा सुरक्षा बल) के बजाय, कश्मीर में इसलामी आतंकवाद से निपटने का बीड़ा उठाया तो हालात 2018 की तुलना में कहीं बेहतर थे. वहीं दूसरी ओर, भारत के मध्य और पूर्वी इलाकों में लेफ्ट विंग एक्सट्रीमिस्ट (एल.डब्ल.यू.ई.) के इलाके 2000 के मध्य से एक बुरा सपना बनकर सामने आए.

सी.आर.पी.एफ. उन माओवादी गुरिल्लाओं से लड़ रही थी. अर्धसैनिक बलों के सिपाहियों के पास उन इलाकों के हिसाब से प्रशिक्षण न के बराबर था और वे ऐसे जोशीले गुरिल्लाओं का सामना कर रहे थे, जो उस इलाके को जानने के अलावा आई.ई.डीज, विस्फोटक उपकरणों का भी प्रयोग करते थे. उन्होंने इन्हीं विस्फोटकों के प्रयोग से बहुत कहर ढाया. अप्रैल 2010 में, माओवादियों ने सुरक्षा बलों पर सबसे भारी हमला किया, जिसमें एक विस्फोट के बाद, सी.आर.पी.एफ. दल के साथ खूब गोलीबारी हुई, जिनमें पचहत्तर लोगों की जानें गईं.

यह भारत में किसी भी बगावत के मंच से सबसे अधिक जान-माल की क्षति थी. उन इलाकों का मौसम नम था और बैरकों के अंदर की हालत तो और भी खस्ता थी. मलेरिया का प्रकोप बना रहता और सैकड़ों सिपाही इसके शिकार हुए. उन दिनों सी.आर.पी.एफ. के जवान को एल.डब्‍ल्‍यू.ई. की तुलना में कश्मीर नियुक्ति कहीं बेहतर लगती थी. कश्मीर में सुरक्षा बलों पर होनेवाले हमलों की संख्या बहुत कम थी और कई बरसों के अनुभव के बाद पुलिस और सी.आर.पी.एफ. को पत्थरबाजों से निपटना आ गया था.

परंतु 2015 के बाद से, जब एल.डब्‍ल्‍यू.ई. के इलाकों में हालात कुछ सुधरे, कश्मीर के हालात तेजी से बिगड़ने लगे. सुरक्षा बलों को उसी तरह निशाने पर लिया जाने लगा, जैसा उनके साथ नब्बे के दशक में होता था, जब घाटी में बलवा जोरों पर था. आतंकवादी हमलों की संख्या बढ़ने लगी और इनमें अनेक सिपाहियों की जानें गईं. जब सुरक्षा बलों ने जुलाई 2016 में, दक्षिण कश्मीर में आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के युवा कश्मीरी कमांडर बुरहान वानी को मार गिराया.

कश्मीर घाटी के आरंभ में, जब सी.आर.पी.एफ. के का‌िफले ने जवाहर सुरंग पार कर काजीगुंड में प्रवेश किया तो सोलह बसों का स्थान बख्तरबंद वाहनों ने ले लिया. अकसर ऐसे वाहनों की संख्या इतनी होती थी कि सभी जवानों को ले जाया जा सके, पर उस दिन काफ‌िले में सिपाहियों की संख्या सामान्य से कहीं अधिक थी. बख्तरबंद वाहनों में जितने सिपाहियों को ले जाया जा सकता था, उतने सिपाहियों को बिठाया गया और बाकी लोग अपनी सामान्य बसों में ही आगे बढ़े.

जब कारवाँ चलने लगा, तो तेलंगाना का हवलदार वासुदेव हल्का होने के लिए उतर गया, वह उसी बस में था, जिसमें गुरु सवार था, पर जब वह वापस आया तो गलती से दूसरी बस में चढ़ गया. उसमें बिल्कुल जगह नहीं थी, पर वासुदेव ने एक सहायक सब-इंस्पेक्टर आर.के. पांडे से आग्रह किया कि वह उसके लिए अपनी सीट पर थोड़ी जगह बना दे.

तब तक सी.आर.पी.एफ. की रोड ओपनिंग पार्टी (आर.ओ.पी.) हमेशा की तरह राष्ट्रीय राजमार्ग पर मौजूद थी. जब जवानों का कोई कारवाँ कश्मीर में एक से दूसरी जगह जाता था तो आर.ओ.पी. दल इस बात का ध्यान रखता था कि कहीं वाहनों को उड़ाने के लिए सड़कों के नीचे विस्फोटक न लगाए गए हों! यह दल छोटी सड़कों से आनेवाले अन्य वाहनों की आवाजाही को भी रोकता था, ताकि का‌िफले को निकलने में परेशानी न हो. हाईवे पर दूसरे वाहनों को निकलने की अनुमति दी जा चुकी थी.

इस दौरान गुरु की बस, जिसका नंबर एच.आर.-49 एफ-0637 था, वह का‌िफले में पाँचवें नंबर पर थी. बस में बत्तीस वर्षीय हेड कांस्टेबल सुखजिंदर सिंह भी था. उसने अपने मोबाइल पर एक वीडियो बनाया और पंजाब, तरनतारन में अपनी पत्नी सरबजीत कौर को व्हाट्सएप कर दिया. वह 2003 में फौज का हिस्सा बना और 2022 में रिटायर होने जा रहा था. उसने तय कर लिया था कि उसके बाद वह कनाडा जाकर बस जाएगा.

सिंह ने उसी दिन सुबह अपने परिवार से बात की थी. सिंह ने अपने बड़े भाई से बात करते हुए उनका हाल पूछा और कहा कि वह शाम को दोबारा कॉल करेगा. वह एक साल पहले ही पिता बना था और बेटे की पहली लोहड़ी के मौके पर, जनवरी में घर गया हुआ था. यह त्योहार पंजाब में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. जब सुखजिंदर घाटी में अपनी ड्‍‍यूटी पर वापस आ रहा था तो उसे भी दूसरे जवानों के साथ जम्मू के कैंप में इंतजार करना पड़ा, ताकि रास्ता खुल सके.

सिंह आगेवाली सीटों में एक पर था. उसने अपनी पत्नी को जो वीडियो भेजा, उसमें मोबाइल को बाईं ओर घुमाकर वीडियो बनाया गया था. एक सिपाही दूसरी सीट पर सो रहा था. फिर मोबाइल घूमकर सिंह की सीट के आगे आया, जिस जगह कुछ बैग रखे थे. फिर उसने कैमरा अपनी ओर घुमाया, एक कठोर पर सुंदर चेहरा दिखाई दिया. बाहर सड़क पर मटमैली बर्फ के ढेर दिखाई दे रहे थे.

बस को चौवालीस बरस का हेड कांस्टेबल जयमल सिंह चला रहा था. वह मोगा जिले से था, जो तरनतारन के पास ही पड़ता है. वह भी परिवार से मिलकर वापस लौट रहा था. वह अपने छह साल के बेटे से मिलने गया था, जो शादी के सोलह साल बाद पैदा हुआ था. उस बस का चालक तो कोई और था, पर वह अपने बेटे की शादी में छुट्टी पर चला गया तो जयमल को उसकी जगह बस ले जाने का आदेश मिला.

उसी बस में उत्तर प्रदेश का एक कांस्टेबल प्रदीप कुमार भी था. वह फोन पर अपनी पत्नी नीरजा से बात कर रहा था. वह भी कुछ दिन की छुट्टी मनाकर 11 फरवरी को ही जम्मू आया था. दोपहर 3 बजकर 15 मिनट पर वाहनों का का‌िफला दक्षिण कश्मीर के पुलवामा में चार लेनवाले हाईवे पर तेजी से आगे जा रहा था. श्रीनगर से करीब आधे घंटे का रास्ता रहा होगा.

उसी का‌िफले में थोड़ा पीछे एक दूसरी बस में से कांस्टेबल जसविंदर ने डार की नीली कार को देखा, जो उन्हें ओवरटेक कर रही थी. वे जिस जगह थे, उससे सौ मीटर की दूरी पर ही सड़क पर खड़ी चढ़ाई और एक मोड़ दिख रहा था, जिसके कारण भारी वाहनों की गति थोड़ी कम हो गई थी. उस जगह दाईं ओर कोई घर नहीं था. केवल एक पहाड़ी पर कुछ कम्युनिकेशन टावर्स लगे थे और सामने एक दीवार पर ‘पेप्सी’, ‘स्विफ्ट होम्स मॉड्‍यूलर किचंस’ के विज्ञापन दिखाई दे रहे थे. ऊँचे हाईवे के बाईं ओर कुछेक मकान दिख रहे थे. उन मकानों के पीछे झेलम श्रीनगर की ओर जा रही थी और फिर वहाँ से उत्तर कश्मीर की ओर जाते हुए पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की ओर बढ़ जाती.

(‘बहावलपुर का शातिर प्रेमी’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब पेपर बैक में 300₹ की है.)

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