नब्बे के दशक में जिन गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) की मदद से जम्मू-कश्मीर विशेषकर जम्मू संभाग में आतंकवाद पर काबू पाया गया था, उन्हीं समितियों को एक बार फिर से मजबूत और सक्रिय करने की दिशा में आखिर सरकार ने कदम उठाने शुरू कर दिए हैं.
इन सुरक्षा समितियों को सुदृढ़ करने की जरूरत पिछले लंबे समय से महसूस की जा रही थी मगर किसी न किसी वजह से ऐसा हो नहीं पा रहा था. लेकिन इस वर्ष पहली जनवरी को जिस तरह से आतंकवादियों ने पाकिस्तान की सीमा से सटे राजौरी जिले के ढांगरी गांव में निर्दोष लोगों के घरों में घुस कर हमला किया उसने गांव सुरक्षा समितियों को दोबारा से सक्रिय करने की ज़रूरत महसूस करवाई है.
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद पर बड़े पैमाने पर लगाम कसी गई है. सुरक्षा बलों को हाल के वर्षों में बड़ी सफलताएं भी हासिल हुई हैं और कई बड़े व खतरनाक आतंकवादी मारे भी गए हैं.
लेकिन अभी भी आतंकवाद पूरी तरह से समाप्त हो गया हो ऐसा भी नहीं है. सेना की उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल उपेंद्र द्विवेदी के अनुसार लगभग 300 आतंकवादी अभी भी सक्रिय हैं. उनके अनुसार इनमें से 80 आतंकवादी पाकिस्तानी मूल के हैं जबकि शेष स्थानीय आतंकवादी हैं.
ऐसे में यह जरूरी है कि आतंकवाद के खिलाफ जारी लड़ाई को किसी भी तरह से ढीला नहीं पड़ने दिया जाए. आतंकवादियों को ऐसा कोई भी मौका न मिलने पाए जिसका वह कोई अनुचित लाभ उठा सकें और सुरक्षा बलों के मनोबल को कोई धक्का पहुंचे. कुछ इसी तरह का फायदा राजौरी जिले के ढांगरी गांव में हुए हमले में आतंकवादियों ने उठाने की कोशिश की है.
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चिंताएं पैदा करता है ढांगरी हमला
जिला मुख्यालय राजौरी से 12 किलोमीटर दूर ढांगरी गांव में हाल ही में हुए आतंकवादी हमले ने कई कारणों से चिंताएं पैदा की हैं. इस हमले से आतंकवादियों ने न केवल अपनी उपस्थिति जाहिर करने की कोशिश की बल्कि इस सीमावर्ती क्षेत्र में आपसी भाईचारे को भी नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया है.
उल्लेखनीय है कि इस मुस्लिम बहुल क्षेत्र में आतंकवाद अपने चरम के दिनों में भी कभी अपने पैर नहीं जमा सका और न ही स्थानीय लोगों ने कभी आपसी भाईचारे को टूटने दिया
आतंकवादियों ने हमले के लिए जो समय चुना है वह भी कई तरह की चिंताओं की ओर इशारा करता है. ढांगरी हमला ऐसे समय पर हुआ है जब इस क्षेत्र के पहाड़ी भाषी लोगों को केंद्र सरकार अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने का ऐलान कर चुकी है. इसने न सिर्फ राजौरी जिले की राजनीतिक हवा को बदला है बल्कि पड़ोसी जिले पुंछ के साथ-साथ कश्मीर घाटी के पहाड़ी भाषी इलाकों में भी व्यापक असर डाला है. इस फैसले से मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी से लंबी दूरी बनाए रखने वाले लोग भी भारतीय जनता पार्टी से जुड़ने लगे हैं.
गृहमंत्री अमित शाह की गत चार अक्टूबर को राजौरी में हुई सभा में उमड़ा विशाल जनसमूह इस बात का प्रमाण है कि भारतीय जनता पार्टी ने पहाड़ी भाषी लोगों को साधने में कामयाबी पाई है.
इन्हीं सब घटनाक्रमों को देखते हुए आतंकवादी और सीमा पार बैठे आतंकवादियों के आका भी किसी न किसी ऐसे मौके की तलाश में थे जिससे सीमावर्ती इलाकों में हालात खराब किए जाए और सांप्रदायिक तनाव पैदा हो.
गौरतलब है कि आतंकवादियों की यह कोशिश रही है कि जम्मू संभाग में फिर से दहशत भरा वातावरण पैदा किया जाए. जम्मू संभाग में पिछले कई वर्षों से कोई बड़ी आतंकवादी घटना नहीं हुई है. इसका श्रेय सुरक्षा बलों के साथ-साथ उन गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों को भी जाता है जिन्होंने सुरक्षा बलों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आतंकवाद का मुकाबला किया और आतंकवादियों को जम्मू संभाग से खदेड़ डाला.
कश्मीर घाटी के साथ-साथ जब आतंकवाद ने जम्मू संभाग के विभिन्न इलाकों में पांव फैलाना शुरू किया तो 1995 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) समितियों को गठित करने की योजना बनाई और उस पर पूरी गंभीरता से अमल करना शुरू किया. सरकार के लिए ऐसा करना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि कश्मीर के मुकाबले क्षेत्रफल के हिसाब से जम्मू संभाग के काफी बड़ा होने के कारण सरकार के लिए लाखों लोगों को सुरक्षा मुहैया करवाना बहुत ही मुश्किल काम था. ऐसे में गांव सुरक्षा समितियां बेहद कारगर साबित हुईं और देखते ही देखते आतंकवाद के खिलाफ जारी लड़ाई का एक आवश्यक अंग बन गई.
जम्मू क्षेत्र के डोडा, किश्तवाड़, भद्रवाह, रामबन, बनिहाल, ऊधमपुर, कठुआ, पुंछ व राजौरी के लगभग सभी इलाकों में गांव सुरक्षा समितियों ने पूरी सक्रियता से काम किया और आतंकवादियों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार पूरे जम्मू संभाग में कुल 4,125 गांव सुरक्षा समितियां हैं जिनमें लगभग 27,924 सदस्य हैं. सबसे ज़्यादा जम्मू संभाग के डोडा जिले में गांव सुरक्षा समितियां हैं.
कश्मीर घाटी में कभी भी कोई भी गांव सुरक्षा समिति नहीं बन सकी. कश्मीर घाटी में 1990-1991 में ही कश्मीरी पंडित समुदाय ने पलायन कर दिया था और मुस्लिम समुदाय में से किसी ने सुरक्षा समितियों में शामिल होने की इच्छा जाहिर नहीं की जबकि जम्मू संभाग में लोग स्वेच्छा से सुरक्षा समितियों में शामिल हुए जिनमें बड़ी संख्या में पूर्व सैनिक भी थे.
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लड़नी पड़ रही है हकों की लड़ाई
लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि गांव सुरक्षा समितियों को लेकर सरकारों का रुख समय और हालात के बदलने के साथ-साथ बदलता भी रहा. ऐसे सुझाव भी आते रहे हैं कि हालात सामान्य होने के कारण गांव सुरक्षा समितियों को भंग कर दिया जाए. इसी तरह के सुझावों पर अमल करते हुए पिछले कुछ समय से कई जगह समितियों को या तो भंग कर दिया गया या निष्क्रिय कर दिया गया. इस तरह के निर्णय और सुझावों का ही परिणाम है ढांगरी गांव में हुआ आतंकवादी हमला.
ढांगरी गांव की सुरक्षा समिति को कुछ समय पहले ही भंग कर दिया गया था. बावजूद इसके गांव सुरक्षा समिति के एक पूर्व सदस्य ने हिम्मत से काम लिया और अपनी निजी बंदूक से उस दिशा में गोलीबारी कर दी जिस तरफ आतंकवादी थे. इस गोलीबारी की वजह से आतंकवादी गांव में और नुकसान नहीं कर सके और भाग निकले.
लेकिन यह एक बड़ी हकीकत है कि ढांगरी हमले से पहले तक गांव सुरक्षा समितियों को लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं थी. कई जगह सुरक्षा समिति के सदस्यों से हथियार वापस ले लिए गए थे और कई जगह समिति के सदस्यों के निजी हथियारों के लाइसेंस का नवीनीकरण भी रोक दिया गया था.
अपनी मांगों को लेकर गांव सुरक्षा समितियों के सदस्यों को बकायदा सड़कों पर भी उतरना पड़ा था और अदालत की भी शरण लेनी पड़ी थी.
लेकिन ढांगरी हमले के बाद सरकार के रुख में बदलाव आया है और फिर से गांव सुरक्षा समितियों को सक्रिय करने की प्रक्रिया शुरू हुई है. ढांगरी गांव और उसके आसपास के अन्य इलाकों में भी सुरक्षा समितियों को हथियारों से लैस किया जा रहा है. पहले की तरह पूर्व सैनिकों और पूर्व पुलिस कर्मियों की मदद भी ली जा रही है.
हालांकि गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों की अधिकतर मांगें अभी भी पूरी नहीं हो पाई है. सरकार ने हाल ही के अपने एक फैसले में गांव सुरक्षा समिति का नाम बदल कर गांव सुरक्षा समूह कर दिया है. इसके साथ ही अब गांव सुरक्षा समितियों के प्रमुख को मासिक 4500 रुपए और शेष सदस्यों को मासिक 4000 रुपए देने का निर्णय लिया गया है.
लेकिन गांव सुरक्षा समितियों के सदस्य अपने लिए कम से कम 12000 रुपये मासिक का मानदेय चाहते हैं. उनका मानना है कि 4000 रुपये मासिक मानदेय किसी भी तरह से सही नहीं है. हालांकि इस निर्णय को गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों ने जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में चुनौती दे रखी है. फिलहाल जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने योजना पर रोक लगा दी है.
(लेखक जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन: कृष्ण मुरारी)
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