scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमएजुकेशनटॉप के 5 IIT में 98% फेकल्टी उच्च जाति के हैं, इनमें आरक्षण लागू नहीं किया गया है- नेचर की रिपोर्ट

टॉप के 5 IIT में 98% फेकल्टी उच्च जाति के हैं, इनमें आरक्षण लागू नहीं किया गया है- नेचर की रिपोर्ट

आरटीआई और अन्य सरकारी आंकड़ों के आधार पर, पत्रकारें की रिपोर्ट से पता चलता है कि एलीट इंस्टीट्यूट्स में एसटी/एससी समुदायों के छात्रों और फेकल्टी दोनों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है.

Text Size:

नई दिल्ली: एक प्रमुख विज्ञान पत्रिका नेचर में पत्रकार अंकुर पालीवाल के एक लेख के अनुसार, भारत में साइंस स्ट्रीम में जेनरल कैटेगरी की जातियों का वर्चस्व कायम है. गुरुवार को प्रकाशित इस रिपोर्ट से यह पता चलता है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) सहित सभी एलीट संस्थानों में आदिवासी और दलित समुदायों के छात्रों और प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है.

रिपोर्ट के अनुसार, आरटीआई और अन्य आधिकारिक स्रोतों के माध्यम से एकत्र किए गए आंकड़े बताते हैं कि फेकल्टी के पदों के लिए आरक्षण – अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 प्रतिशत और दलितों के लिए 15 प्रतिशत – इन प्रतिष्ठित संस्थानों में नहीं भरे जा रहे हैं. यह विभिन्न देशों में विज्ञान में जातीय या नस्लीय विविधता पर डेटा की जांच करने वाली एक सतत श्रृंखला का एक हिस्सा है.

रिपोर्ट से यह भी पता चला है कि आदिवासियों और दलितों का ग्रैजुएशन के लेवर से ही विज्ञान पाठ्यक्रमों में कम प्रतिनिधित्व है. अंडरग्रेजुएट्स में आदिवासी एसटीईएम (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) कक्षाओं में 5 प्रतिशत से भी कम हैं. दलितों का प्रतिनिधित्व भी कम ही है.

कुल मिलाकर, आर्ट्स स्ट्रीम में इनका प्रतिनिधित्व अधिक है. सोनाझरिया मिंज, एक कंप्यूटर वैज्ञानिक और सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका में कुलपति हैं के हवाले से बताया गया है कि ऐसा इसलिए नहीं है कि आर्ट्स के कोर्सेज अधिक लोकप्रिय हैं, बल्कि इसलिए कि विज्ञान में विशेषज्ञता वाले शिक्षक और संरक्षक इन छात्रों, विशेष रूप से आदिवासियों के ग्रामीण उच्च विद्यालयों में दुर्लभ हैं.”

ऐसी स्थिति में मास्टर्स लेवल के STEM पाठ्यक्रमों में भी दिखाई देती है, जहां अधिकांश संस्थान अपनी एससी और एसटी सीटें नहीं भर रही हैं.

इन समुदायों का प्रतिनिधित्व पीएचडी स्तर पर और भी कम हो जाता है, खासकर अधिक प्रतिष्ठित संस्थानों में. 2020 में पांच हाई रैंकिंग वाले IIT- दिल्ली, बॉम्बे, मद्रास, कानपुर, और खड़गपुर में पीएचडी कार्यक्रमों के लिए डेटा दलितों के लिए औसतन 10 प्रतिशत और आदिवासियों के लिए 2 प्रतिशत दर्शाता है.

यह पांच मिड-रैंकिंग IIT- धनबाद, पटना, गुवाहाटी, रोपड़ और गोवा के औसत से थोड़े कम है.

रिपोर्ट के अनुसार, शीर्ष पांच आईआईटी में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के पीएचडी छात्रों और फैकल्टी सदस्यों की संख्या भी आरक्षण नीतियों द्वारा अनिवार्य स्तरों से नीचे हैं.

भारत के शीर्ष क्रम के विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) का प्रदर्शन भी खराब है.

रिपोर्ट में उद्धृत शोधकर्ताओं ने आरक्षण नीतियों का पालन नहीं करने के लिए संस्थानों के प्रमुखों को दोषी ठहराया और सरकार ने उन्हें हुक से बाहर कर दिया.


यह भी पढ़ें: ‘फिर से दरकिनार’: हरियाणा IAS अधिकारी अशोक खेमका का 55वां ट्रांसफर, आर्काइव्स डिपार्टमेंट में चौथी पोस्टिंग


फेकल्टी में प्रतिनिधित्व

रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष पांच आईआईटी और आईआईएससी में 98 फीसदी प्रोफेसर और 90 फीसदी से ज्यादा असिस्टेंट या एसोसिएट प्रोफेसर विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से हैं.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) में – जिसे ‘उत्कृष्टता का संस्थान’ नामित किया गया है, जो आरक्षण नीतियों का पालन करने से मुक्त है – सभी प्रोफेसर विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से हैं.

इस बीच, 2016 और 2020 के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के इंस्पायर फैकल्टी फैलोशिप के आंकड़ों से पता चलता है कि 80 प्रतिशत प्राप्तकर्ता विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से थे, जबकि सिर्फ 6 प्रतिशत अनुसूचित जाति से और 1 प्रतिशत से कम अनुसूचित जनजाति से थे.

विभिन्न श्रेणियों के बीच की खाई को स्वीकार करते हुए, गणितज्ञ और मुंबई में IIT बॉम्बे में फेकल्टी मामलों की डीन, नीला नटराज को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि “भेदभाव के साथ कम प्रतिनिधित्व की तुलना करना गलत है. कोई भेदभाव नहीं है.”

उन्होंने कहा कि संस्थान भर्ती के माध्यम से प्रतिनिधित्व में सुधार करने की कोशिश कर रहा था, और पीएचडी शुरू करने के लिए कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों के अधिक छात्रों को प्रोत्साहित कर रहा था.

दूसरी ओर, वाराणसी में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान के सहायक प्रोफेसर कृपा राम ने आरोप लगाया कि संकाय सदस्यों के जातिगत पूर्वाग्रह भेदभाव में भूमिका निभाते हैं. राम, जो एक ओबीसी समुदाय से हैं, ने कहा कि जब हाशिये पर रहने वाले समुदायों के छात्र पीएचडी शुरू करते हैं, तब भी जेनरल कैटेगरी के प्रोफेसरों द्वारा उनकी देखरेख नहीं करना “काफी आम” है.

लेख में उद्धृत शोधकर्ताओं ने इस मुद्दे से निपटने के लिए कुछ उपायों का प्रस्ताव दिया, जिसमें संस्थागत प्रमुखों के लिए उच्च स्तर की जवाबदेही, विविधता डेटा का सार्वजनिक खुलासा, और स्कूल स्तर से समर्थन प्रणाली शामिल हैं.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: 3 करोड़ साइन अप लेकिन कोर्स पूरा नहीं कर रहे छात्र, क्यों विफल हो रहा है मोदी सरकार का स्वयं पोर्टल


share & View comments