अंतरिम बजट सत्र के आखिरी दिन संसद भवन के मेन गेट पर गांधी जी की प्रतिमा के पास खड़े होकर तृणमूल कांग्रेस के नेता चिल्ला रहे थे- छोटा मोदी चोर है, चश्मा मोदी चोर है, दाढ़ी मोदी चोर है. राहुल गांधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी इस भीड़ को ज्वाइन किया और नारेबाजी की. ये मामला राफेल का था. कांग्रेस पार्टी के लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर राफेल खरीद को लेकर लगातार आरोप लगाते रहे हैं.
हालांकि सीएजी की रिपोर्ट सरकार का ही पक्ष ले रही है लेकिन राहुल बेहद आक्रामक तरीके से ‘चौकीदार चोर है’ और ‘मेरा पीएम चोर है’ जैसे नारों को अपनी रैलियों से लेकर प्रेस-कांफ्रेंस में बार-बार दोहरा रहे हैं. ‘चौकीदार चोर है’ कई बार ट्वीटर पर ट्रेंडिंग हैशटैग भी बन चुका है.
विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के प्रधानमंत्री को सीधे चोर बोल देना छोटी बात नहीं है. हालांकि इससे पहले भी देश के प्रधानमंत्रियों को चोर कहा जा चुका है. कांग्रेस की सरकार को घोटालों पर घेरकर मनमोहन सिंह को संसद में ही चोर बोला गया था. इससे मनमोहन सिंह काफी मायूस हुए थे. मनमोहन सिंह से पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को 1999 के करगिल युद्ध के दौरान हुए कथित ताबूत घोटाले को लेकर घेरा गया था.
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लेकिन यहां पर सरकार को ‘चोर’ कहने से एक अनूठी घटना हुई थी. इसी नारेबाजी ने 2001 में कई सांसदों की जान बचाई थी.
वो घटना जब “चोर” कहने की वजह से सांसदों की जान बची थी
13 दिसंबर, 2001 का दिन था और संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था. उस दिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को राज्य सभा में सवाल-जवाब के लिए उपस्थित होना था, लेकिन वो आए नहीं.
दरअसल, वाजपेयी की सरकार ‘ताबूत घोटाले’ की वजह से सवालों के घेरे में थी. आरोप थे कि इस घोटाले में उनके सबसे वरिष्ठ सहयोगी और मौजूदा रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस शामिल थे. विपक्ष का कहना था कि फर्नांडिस ने करगिल युद्ध में मारे गए सैनिकों के शवों के लिए खरीदे गए ताबूतों से संबंधित सौदे में धांधलेबाजी की है. विवाद के चलते वाजपेयी को संसद में पेश नहीं होने की सलाह दी गई थी. क्योंकि विपक्ष द्वारा हंगामे किए जाने के चलते कुछ मिनटों के भीतर ही संसद को स्थगित कर दिए जाने की संभावना थी.
कुछ ऐसा ही घटित भी हुआ. राज्यसभा 45 मिनट तक चले हंगामे की वजह से स्थगित हो गई. ‘कफन चोर, गद्दी छोड़’, ‘सेना खून बहाती है, सरकार दलाली खाती है’ जैसे नारों से लोकसभा और राज्यसभा गूंज उठे. विपक्ष तात्कालिक रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस का इस्तीफा मांगने पर अड़ा था.
विपक्ष क्या कर रहा है, देखने के लिए वाजपेयी रेसकोर्स रोड 7 (अब लोक कल्याण मार्ग) पर कमरे में टीवी के सामने बैठ गए. उस वक्त सोनिया गांधी विपक्ष की नेता थीं, जी.एम.सी. बालयोगी लोकसभा अध्यक्ष और कृष्ण कांत राज्यसभा अध्यक्ष थे. ‘कफन चोर, गद्दी छोड़’ जैसे नारों के बाद संसद स्थगित कर दी गई. इसके तुरंत बाद सोनिया गांधी 10 जनपथ के लिए रवाना हो गईं. वाजपेयी और सोनिया को छोड़कर देश के कई और शीर्ष राजनीतिक नेता उस वक्त सदन में मौजूद थे.
सोनिया गांधी के जाने के करीब 45 मिनट बाद संसद में तेज धमाका हुआ. ज्यादातर पत्रकार जीएमसी बालयोगी के कक्ष के बाहर थे. बालयोगी उस समय एक हताश सरकार और एक पुनर्गठित विपक्ष के बीच बातों को सुलझाने के काम में व्यस्त थे. ये धमाका भारत की संसद पर हुआ एक आतंकवादी हमला था.
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वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर लिखी अपनी किताब ‘हार नहीं मानूंगा’ में संसद पर हुए इस हमले का जिक्र करते हुए लिखते हैं:-
‘उस सुबह उपराष्ट्रपति के ड्राइवर शेखर संसद में राज्यसभा के दरवाजे पर उपराष्ट्रपति कृष्णकांत के आने का इंतजार कर रहे थे…तभी ड्राइवर शेखर ने अचानक जोर से चिल्लाने की आवाज सुनी. एक सफेद एम्बैसेडर कार ने उनकी कार को टक्कर मार दी थी. जब तक शेखर संभलते तब तक गाड़ी से 5 आतंकवादी AK-47 के साथ निकले और चारों ओर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. शेखर कार के पीछे छिए गए. उसके बाद उपराष्ट्रपति के सुरक्षा गार्डों ने भी जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी…उपराष्ट्रपति कृष्णकांत, लोकसभा अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी और राज्यसभा में उपसभापति नजमा हेपतुल्ला समेत करीब दो सौ से ज्यादा सांसद अंदर थे. इसके साथ ही पत्रकार, खासतौर से टीवी पत्रकार और कैमरामैन भी वहां मौजूद थे…’
‘हिंदुस्तान के लोकतंत्र के मंदिर’ पर इस हमले पर विजय त्रिवेदी आगे लिखते हैं-
‘…भारत में इस सारे काम को अंजाम देने वाला था अफजल गुरु. हमले से दो दिन पहले 11 दिसंबर को इन लोगों ने दिल्ली के करोल बाग से एक लाख 10 हजार रुपए में कार खरीदी और फिर लाल बत्ती का इंतजाम किया. इंटरनेट की मदद से संसद में प्रवेश करने के लिए स्टीकर निकाला. 12 दिसंबर की रात को वह नक्शे पर पूरी योजना को अंतिम रूप देता रहा… प्लान के अनुसार तय किया गया कि वो लोग गेट नंबर दो से प्रवेश करेंगे. अफजल को इस बात की जिम्मेदारी दी गई कि वो टीवी पर देखकर संसद का हाल बताए, कि क्या कार्रवाई चल रही है. लेकिन अफजल जहां रुका था वहां बिजली नहीं आ रही थी. इसलिए वो आतंकवादियों को नहीं बता पाया कि कार्रवाई स्थगित हो गई है और बहुत से सासंद चले गए हैं. उनके पास संसद के अंदर का नक्शा नहीं था.’
इस हमले की खबर सुनते ही सोनिया ने तुरंत वाजपेयी को फोन किया और पूछा कि क्या वह ठीक हैं.
1998 और 1999 में ‘मजबूत’ राज्य की वकालत करके सत्ता हासिल करने वाली भाजपा के लिए संसद पर हमला, 1999 के कंधार अपहरण के बाद दूसरा बड़ा झटका साबित हुआ.
नारेबाजी के बाद इस तरह की घटना होना महज एक संयोग है. प्रधानमंत्री को चोर कहना और सुनना, अच्छा नहीं है. ऐसी स्थिति में वर्तमान प्रधानमंत्री को ऐसे आरोपों को गंभीरता से लेते हुए मामला स्पष्ट करना चाहिए.
(लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)