नई दिल्ली के प्रेस क्लब में आयोजित हृदयेश जोशी की अनुवादित किताब ‘एटकिन का हिमालय’ की लॉन्च किसी माटरक्लास से कम नहीं थी. ‘एटकिन का हिमालय’ ट्रैवलर बिल एटकिन की अंग्रेजी किताब ‘फुटलूज़ इन द हिमालय’ पुस्तक का अनुवाद है.
‘किताबें लेखक नहीं लिखते, वो खुद को लिखवा लेती है, किताबों का अनुवाद नहीं किया जाता वो अनुवादक ढूंढ लेती है.’ ये कहावत किसी शायर या लेखक ने नहीं बल्कि, अपनी पहली अनुवादित किताब ‘एटकिन का हिमालय’ की लॉन्च पर खुद जोशी ने कहा.
दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के सेमिनार हॉल में पत्रकारों के बीच कोई ऑथर अपनी बुक लॉन्च नहीं कर रहा था बल्कि एक अनुवादक अपनी पहली अनुवादित किताब के पन्ने खोल रहा था.
दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर मनीषा तनेजा ने यह पूछकर इवेंट की शुरुआत की कि क्या जोशी ने अनुवाद से पहले किताब के लिए कोई रिसर्च किया है.
इसके जवाब में जोशी ने जो कहा उससे पत्रकारों की हंसी से पूरा हॉल गूंज उठा, उन्होंने कहा कि उन्होंने केवल एटकिन की इंग्लिश पर रिसर्च किया है क्योंकि उनकी इंग्लिश बहुत कठिन हैं.
उन्होंने आगे कहा, ‘ये किताब मेरे दिल के बहुत करीब है क्योंकि इस किताब में न केवल बहुत सारी कहानियां एवं घटनाएं हैं बल्कि यह किताब बहुत सारे तार भी खोलती है. इस किताब से बहुत सी भावनाएं जुड़ी हैं और यह किताब सिखाती है कि जीवन में सफलता ही सबकुछ नहीं होती.’
जोशी इस बात का ध्यान रखते थे कि वे अपनी बातों में पहाड़ों को रूमानी न बना दें. वो आगे कहते है, ‘हिमालय या पहाड़ों को देखकर या वहां घूमने में तो बहुत मज़ा आता है लेकिन वहां की जिंदगी से जुड़ी बहुत सारी दिक्कतें भी होती हैं. पहाड़ लोगों को इतना पसंद होता है कि बहुत बार लोग पहाड़ों पर घर भी खरीद लेते हैं. लेकिन जब वो कुछ समय वहां रहते है और उन्हें कुछ दिक्कतें होती हैं तो छोड़ कर चले जाते है.
वो कहते हैं, ‘यह किताब केवल पहाड़ों या हिमालय की सुंदरता या वहां से जुड़ी दिक्कतों पर नहीं है. इस किताब को पढ़कर बहुत सारे भ्रम भी टूटते हैं.’
यह बात आश्चर्यजनक है कि जोशी ने अनुवाद प्रक्रिया में एक जिज्ञासु जैसी भूमिका निभाई है. उनका कहना है कि एटकिन ने अनुवाद के दौरान किताब से कुछ चीज़े हटवाई है क्योंकि उन्हें लगता है ‘मेरा लिखा अंग्रेज नहीं समझ पाए तो हिंदी रीडर्स कैसे समझेंगे.’
जोशी कहते हैं, ‘यह पुस्तक दिखाती है कि कैसे हम हमेशा केवल उन पर्वतारोहियों को याद रखते हैं जो शीर्ष पर पहुंच जाते हैं, लेकिन मिशन के पीछे के व्यक्ति को कभी याद नहीं रखा जाता है. हम जानते हैं कि अवतार सिंह चीमा एवरेस्ट पर चढ़ने वाले भारत के पहले व्यक्ति थे, लेकिन हम ये नहीं जानते कि मोहन सिंह कोहली उनके लीडर थे. मैंने इस किताब से ऐसी बहुत सारी चीजें सीखी हैं.’
जोशी ने इस बात पर विशेष ध्यान दिया कि 1960 और 1970 के दशक में जब एटकिंस हिमालय के आश्रमों में रहते थें, तब हिमालय कैसा दिखता था.
जोशी ने कहा, ‘लोग उनके अनुवाद की भाषा को ‘बहुत जटिल और कठिन’ मानते हैं. लेकिन मैं आसान और बोलचाल की भाषा का उपयोग करके अनुवाद को सस्ता नहीं बनाना चाहता था, इसलिए मैंने इसकी भाषा का खास ध्यान रखा है.’
पैनल द्वारा जब हृदयेश से पूछा गया कि उन्होंने अनुवाद क्यों चुना, तो बड़े ही हल्के अंदाज़ में उन्होंने कहा, ‘अनुवाद मेरे कमाई का जरिया है और अनुवाद से पैसे भी बहुत मिलते है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘अगर अनुवाद नहीं होते तो हम दूसरी भाषाओं की किताबें कभी पढ़ ही नहीं पाते और हमें कभी पता भी नहीं चलता कि किस देश में क्या चल रहा हैं और कहा क्या लिखा जा रहा है.’
अपनी बात का अंत करते हुए हृदयेश कहते हैं, ‘मैं इस किताब को फिर से पढ़ूंगा. इसको पढ़कर बहुत सारे दरवाज़े खुलते है. लेखक की अध्ययन शैली बहुत प्रभावित करती है, उन्हें जीवन से कुछ नहीं चाहिए, ऐसी ही बातें मुझे बहुत आकर्षित करती है.’
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