scorecardresearch
Friday, 15 November, 2024
होमदेश‘चीन समर्थक नैरेटिव’ बनाने के लिए RSS के मुखपत्र ने SRK, JNU के छात्रों और अशोका यूनिवर्सिटी पर निशाना साधा

‘चीन समर्थक नैरेटिव’ बनाने के लिए RSS के मुखपत्र ने SRK, JNU के छात्रों और अशोका यूनिवर्सिटी पर निशाना साधा

अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच इस महीने की झड़प के बाद संपादकीय और कवर स्टोरी में आरोपों की झड़ी लगाई गई है.

Text Size:

नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र, ऑर्गनाइजर ने इस सप्ताह प्रकाशित एक संपादकीय और एक कवर स्टोरी में राजीव गांधी फाउंडेशन (आरजीएफ), अशोका यूनिवर्सिटी, दिवंगत पूर्व राजनयिक मीरा सिन्हा-भट्टाचार्य और लोकप्रिय भारतीय अभिनेताओं पर सालों से भारत में ‘चीन समर्थक नैरेटिव’ विकसित करने का आरोप लगाया है. आरएसएस भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक स्रोत है और इन संस्थानों और शख्सियतों पर यह हमला इस महीने अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हुई झड़प के बाद बोला गया है.

जहां इसके संपादकीय में चीनी दूतावास से कथित फंडिंग पर आरजीएफ विवाद का जिक्र था, वहीं सेंटर फॉर हिमालयन एशिया स्टडीज एंड इंगेजमेंट के अध्यक्ष विजय क्रांति की कवर स्टोरी में अशोका यूनिवर्सिटी जैसे निजी संस्थानों, सिन्हा-भट्टाचार्य और जेएनयू के छात्रों को भारत में ‘चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के नैरेटिव को बेचने’ के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है.

क्रांति ने आरोप लगाते हुए कहा कि कुछ पुराने अध्ययन संस्थानों और भारत के थिंक टैंकों पर चीन का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. लेकिन इसके अलावा भी नई दिल्ली में चीनी दूतावास ने कुछ नए निजी विश्वविद्यालयों पर महत्वपूर्ण प्रभाव विकसित करने का गौरव हासिल किया है. उन्होंने दावा किया कि सबसे अधिक प्रभावित होने वाले संस्थानों में से एक राजधानी में अशोका विश्वविद्यालय है, जो अचानक ‘चीन विशेषज्ञों’ की एक और नर्सरी के रूप में उभरा है.

उन्होंने लिखा, ‘यूनिवर्सिटी और इसके तेजतर्रार संस्थापक (लेख में कोई नाम नहीं लिया गया) के बारे में आरोप लगते रहे है. भारतीय और चीनी विद्वानों की एक-दूसरे के देश में यात्राओं के आयोजन में भागीदारी के कारण इन पर विशेष ध्यान दिया गया है.’

कवर स्टोरी में यह भी आरोप लगाया गया कि भारत में ‘सुन त्जु’ का प्रभाव हिंदी फिल्म उद्योग के भीतर गहराई तक फैला हुआ है. उदाहरणों का हवाला देते हुए कहा गया कि कैसे चीन ने बीजिंग इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (बीआईएफएफ) में शाहरुख खान और कबीर खान सहित कई भारतीय सितारों को आमंत्रित किया था.

सन त्ज़ू एक चीनी रणनीतिकार थे. उनके मुताबिक, ‘युद्ध का मंत्र युद्ध के मोर्चे पर लड़े बिना युद्ध जीतना है.’

क्रांति ने लिखा, ‘चीन ने बॉलीवुड क्लब में सेंध लगाने में अपनी सफलता को उस समय प्रदर्शित कर दिया, जब उसने शाहरुख खान और कबीर खान सहित कई भारतीय सितारों को 2019 में BIFF में आमंत्रित किया था. अपने इस इवेंट में इन भारतीय सितारों को दिखाने के अलावा, BIFF का समापन शाहरुख की फिल्म जीरो की विशेष स्क्रीनिंग के साथ किया गया था. इसी तरह से अभिनेता आमिर खान को चीन के कई शहरों में उनकी फिल्म दंगल के डब किए गए चीनी संस्करण की स्क्रीनिंग की अनुमति दी गई थी.’

अपने संपादकीय में आरएसएस के मुखपत्र ने आरोप लगाया कि 9 दिसंबर को तवांग में घुसपैठ, चीन में निराशाजनक कोविड-19 नियमों और पिछले महीने उरुमकी शहर में आग से अपने लोगों का ध्यान हटाने के लिए अपनाई गई एक रणनीति थी. इस आग में कथित तौर पर दस लोगों की मौत हो गई थी.

संपादकीय में लिखा था, ‘सीपीसी ने जल्दबाजी में देश भर में कोरोना वायरस प्रतिबंधों की घोषणा की, जिसे लोगों ने पसंद नहीं किया. अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में घुसपैठ कर, शी जिनपिंग ने किसी भी अन्य तानाशाह की तरह ध्यान भटकाने का विकल्प चुना. लेकिन भारतीय सैनिकों ने करारा जवाब दिया और चीनियों को अपनी चौकी पर लौटने पर मजबूर कर दिया.


यह भी पढ़ेंः ज़हरीली राख- आखिर क्यों पंजाब में प्रदर्शनकारी पिछले पांच महीने से कर रहे हैं शराब फैक्ट्री का घेराव


‘बौद्धिक घुसपैठ’

संपादकीय में भारत में चीन समर्थक नैरेटिव बनाने के लिए अपनाई गई ‘बौद्धिक घुसपैठ’ के बारे में बात की गई.  इसके लिए कम्युनिस्ट पार्टियों, आरजीएफ और ‘भारतीय मनोरंजन उद्योग’ को दोषी ठहराया गया.

इसमें लिखा था, ‘हालांकि सीमा क्षेत्रों में स्थिति बदल गई है, लेकिन  हमारे लोकतंत्र में कम्युनिस्ट बौद्धिक घुसपैठ अभी भी जारी है. 1955 के बाद से, नेहरू ने न सिर्फ चीन के प्रति एक विनम्र नीति को आने दिया, बल्कि सीसीपी को भारत के भीतर चीन समर्थक कोंस्टीटूएंसी बनाने की भी अनुमति दी. माओवादी उग्रवाद को खड़े होने और उसका बचाव करने से लेकर तथाकथित चीनी प्रगति के बारे में खौफ पैदा करने तक, यह लॉबी बीजिंग के लिए सफलतापूर्वक बल्लेबाजी करती है. मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन के संबंध में वे कभी भी चीन के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलेंगे, लेकिन भारतीय लोकतंत्र की आलोचना करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं.’

संपादकीय में भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं के सीसीपी के शताब्दी वर्ष समारोह में भाग लेने का उल्लेख किया गया था. और कहा गया कि इस पर किसी ने उनसे सवाल नहीं किया. लेख में यह भी आरोप लगाया गया है कि देश के मीडिया घराने सीसीपी से पूरे पेज के विज्ञापन लेते हैं और बदले में चीनी नैरेटिव को चलाते हैं (या बढ़ावा देते हैं).

आरजीएफ और कांग्रेस पर हमलावर होते हुए संपादकीय में दावा किया गया कि फाउंडेशन ने 2005 में चीनी दूतावास से डोनेशन स्वीकार की थी. 2008 में देश में सत्ता में रहने के दौरान सीसीपी ने कांग्रेस के साथ, देश को बिना कोई स्पष्टीकरण दिए एक परामर्श समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. संपादकीय में आरोप लगाया गया है कि फिल्म और मनोरंजन उद्योग सीसीपी के लिए एक नया निवेश मैदान बन गया है और उसके जरिए कमाई करने वाली हस्तियां हमारी सेना का मजाक उड़ाने में गर्व महसूस करती हैं.

क्रांति ने भी उदारवादी संस्थानों (जैसे जेएनयू और अशोका यूनिवर्सिटी) पर तीखा हमला किया. उन्होंने अपने लेख में दावा किया कि चीनी सन त्जू सिद्धांत भारतीय राजनीति की मानसिकता को भेदने और उस पर हावी होने में सक्षम रहा है.

वह लिखते हैं, ‘चीन समर्थक वामपंथी छात्र संगठनों और कश्मीर के इस्लामवादी अलगाववादियों के लिए जेएनयू के छात्रों ने उस समय तालियां बजाई थीं, जब उन्होंने फरवरी 2016 में भारत तेरे टुकड़े होंगे- इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह की धुन पर खुलेआम नृत्य किया था. यह एक साफ संकेत था सन त्जू के सिद्धांत ने भारत को कितनी दूर तक प्रभावित किया है.’


यह भी पढ़ेंः यात्रिगण ध्यान दें! ट्रेन में छूटे आपके सामान को पहुंचाने में जुटे हैं रेलवे स्टेशन मैनेजर राकेश शर्मा


‘चीन-समर्थक माहौल’

पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर ‘चीन-समर्थक माहौल’ प्रदान करने का आरोप लगाने के अलावा, क्रांति ने यह भी दावा किया कि एक वरिष्ठ राजनयिक सिन्हा-भट्टाचार्य के पास अपने कार्यकाल के दौरान, चीन के प्रति भारतीय राजनयिकों, शोधकर्ताओं और मीडिया के अनुसंधान और राय की दिशा तय करने की खुली छूट थी.

क्रांति ने लिखा, ‘पंडित नेहरू ने फ्री तिब्बत (1913-1951) में भारत के हर एक मौजूदा विशेषाधिकार का समर्पण कर दिया. इन विशेषाधिकारों में ल्हासा में भारत का वाणिज्य दूतावास और तिब्बत में दो व्यावसायिक पद शामिल थे. जिसमें से एक तिब्बत में एकमात्र टेलीग्राफ लाइन पर भारत का स्वामित्व और दूसरा भारत को तिब्बत में एक सशस्त्र सेना बनाए रखने का अधिकार था.’

उन्होंने कहा, ‘कोई आश्चर्य नहीं कि भारतीय विदेश मंत्रालय और नई दिल्ली में पीएम कार्यालय में चीन समर्थक माहौल चीनी सरकार के लिए अपनी भारत नीति को सिंथेसिस करने के लिए पर्याप्त था.’

सिन्हा-भट्टाचार्य पर निशाना साधते हुए क्रांति ने लिखा, ‘यह ध्यान रखना काफी दिलचस्प है कि विदेश मंत्रालय में सेवा करने के सिर्फ चार साल बाद, प्रभावशाली मीरा ने इस्तीफा दे दिया और भारत में चीनी अध्ययन के लिए खुद को समर्पित करने का फैसला किया. इन सालों में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय और बाद में जेएनयू में चीनी अध्ययन विभाग की शुरुआत की थी.’

पूर्व राजनयिक की 2009 में मृत्यु हो गई थी.

(अनुवादः संघप्रिया | संपादनः हिना फ़ातिमा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ेंः क्या है नागपुर भूमि आवंटन ‘घोटाला’ और एमवीए क्यों चाहता है शिंदे इस्तीफा दें


share & View comments