बजट का ‘क्वारंटाइन’ या ‘क्वाइट’ पीरियड शुरू होने में महज एक सप्ताह का समय बचा है, ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार के लिए अभी भी पर्याप्त समय है कि वह बजट बनाने की प्रक्रिया से जुड़ी उपनिवेशकालीन आखिरी पंरंपरा को भी तोड़ दे और ये है बजट प्रक्रिया से जुड़ी गोपनीयता. ये भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार की तरफ से बजट सुधारों की दिशा में पहले ही उठाए जा चुके कदमों की अगली कड़ी होगी.
क्वारंटाइन अवधि दिसंबर में शुरू होती है और 1 फरवरी को बजट पेश होने तक जारी रहती है. इस दौरान, पत्रकारों, नीति सलाहकार समूहों और उद्योग निकायों को वित्त मंत्रालय में प्रवेश नहीं करने दिया जाता. आम बजट तैयार करने की पूरी प्रक्रिया से जुड़े महत्वपूर्ण अधिकारी एक तरह से लॉकडाउन की स्थिति में पहुंच जाते हैं, उनमें से कईं तो क्वारंटाइन की पूरी अवधि मंत्रालय में ही गुज़ारते हैं और बजट पेश होने तक घर नहीं जाते.
2021 में डिजिटल-ओनली बजट की शुरुआत का नतीजा यह हुआ है कि ऐसे लोगों की संख्या जिन्हें इस तरह लॉकडाउन में रहना पड़ता था उनकी क्वारंटाइन अवधि काफी हद घट गई है. हालांकि, बजट को लेकर गोपनीयता बरते जाने को अभी भी बहुत ज्यादा महत्व दिया जाता है.
बजट गोपनीयता एक ऐसी पंरपरा है जिसे आज़ादी के बाद से भारतीय नीति निर्माता काफी महत्व देते रहे हैं. कोलोनियल काल के दौरान तो गोपनीयता महत्वपूर्ण होना समझ आता है, क्योंकि भारत में पेश करने के बाद बजट को ब्रिटिश संसद में पेश किया जाता था. इसने ब्रिटिश और भारतीय अधिकारियों को प्रस्तावित टैक्स बदलावों को लेकर अंदरूनी सूत्रों के जरिये शेयर बाजार में मुनाफा कमाने का मौका दिया.
इसलिए, यह बेहद आवश्यक हो गया था कि बजट सामग्री को संसद में प्रस्तुत किए जाने से पहले केवल कुछ ही खास लोगों को इसके बारे में जानकारी हो. यह व्यवस्था स्वतंत्र भारत में भी जारी रही. लेकिन अब कई वजहों से इस तरह की गोपनीयता की ज़रूरत नहीं रह गई है और इसे खत्म किए जाने से वास्तव में नीति निर्माताओं को लाभ ही होगा.
मुख्य कारणों में से एक वह भी है जिसकी वजह से केंद्रीय बजट को प्राइमेंट पॉलिसी डॉक्यूमेंट के तौर पर एक खास दर्जा हासिल रहा है.
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सुधारों के बाद बजट गोपनीयता की जरूरत नहीं रही
जुलाई 2017 में माल एवं सेवा कर (जीएसटी) व्यवस्था लागू होने से पहले, केंद्रीय बजट में कराधान प्रस्तावों के संदर्भ में एक लंबा-चौड़ा ‘सेक्शन बी’ हुआ करता था. इसमें न केवल प्रत्यक्ष कर प्रस्ताव (आयकर, कॉर्पोरेट टैक्स, वेल्थ टैक्स, कैपिटल गेन टैक्स, आदि) शामिल थे, बल्कि तमाम अप्रत्यक्ष कर प्रस्ताव (सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क, सर्विस टैक्स, आदि) भी शामिल थे.
जीएसटी लागू किए जाने के साथ न केवल इन अप्रत्यक्ष करों में से अधिकांश को नए कर के दायरे में लाया गया, बल्कि जीएसटी दरें तय करने का निर्णय भी बजट से बाहर कर दिया गया और इसका फैसला करने के लिए जीएसटी काउंसिल बनाई गई. दूसरे शब्दों में कहें तो अब अधिकांश अप्रत्यक्ष करों की दरों को तय करने का काम आम बजट या असल में केंद्र सरकार के हाथ में नही रहा है.
इसने बजट के सेक्शन-बी को काफी छोटा कर दिया है और गोपनीयता बनाए रखने के पक्ष में दिए जाने वाले तर्कों को काफी कमज़ोर भी किया है.
प्रत्यक्ष कर अभी भी बजट के दायरे में आते हैं और संभवतः कैपिटल गेन टैक्स के अपवाद के साथ, वास्तव में किसी भी तरीके से शेयर बाजार पर असर नहीं डालते हैं. शायद इसलिए भी, क्योंकि बजट में घोषित बदलावों पर अमल अगले वित्तीय वर्ष यानी एक अप्रैल से ही शुरू होता है.
यह बजट संबंधित सुधारों में से एक की वजह से ही संभव हुआ है जो मोदी सरकार पहले ही लागू कर चुकी है. 2017 से, बजट को फरवरी माह की आखिरी तारीख को पेश करने की पुरानी व्यवस्था के बजाये 1 फरवरी को संसद को पेश किया जाता है.
इसका मतलब है, व्यक्तियों और कंपनियों के पास पूरे दो महीने (फरवरी और मार्च) का समय होता है जब वह बजट में प्रस्तावित घोषणाओं के लागू होने पहले उन्हें अच्छी तरह जान-समझ सकते हैं. ऐसे में 1 फरवरी से पहले घोषणाओं को गुप्त रखने का वास्तव में कोई फायदा नहीं है.
संयोग से, 2017 में ही पहली बार रेल बजट का भी आम बजट में विलय किया गया था, जिससे उन्हें अलग रखने की एक और उपनिवेशकालीन परपंरा खत्म हो गई थी. इससे पहले, 1999 में पहली बार बजट पेश करने का समय शाम पांच बजे से बदल कर सुबह 11 बजे किया गया था. दरअसल, शाम पांच बजट पेश करने की प्रथा ब्रिटेन के साथ समय के अंतर के मद्देनज़र लागू की गई थी.
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कैसे पूरी तरह खत्म हो सकती है औपनिवेशिक व्यवस्था
बजट का पार्ट-ए नीतिगत घोषणाओं, बजटीय आवंटन और नई योजनाओं से संबंधित होता है. यह बजट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है लेकिन सरकार इस पर एक अलग ही तरह से काम करती है. सबसे पहले तो, सरकार 1 फरवरी को (कुछ सीमित परामर्श के बाद) नीतियां घोषित करती है, फिर पोस्ट-बजट प्रतिक्रियाओं या आलोचनाओं पर गौर करती है और उसके अनुरूप इसमें अपेक्षित बदलाव करती है.
सरकार के लिए बेहतर तो यही होगा कि वह अपनी प्रस्तावित योजनाओं और नीतिगत प्रस्तावों को पहले से, दिसंबर की शुरुआत में ही, सार्वजनिक (पब्लिक डोमेन) कर दे. इस पर लोगों से प्रतिक्रियाएं देने के लिए कहा जा सकता है, जरूरी विचार-विमर्श शुरू करवाया जा सकता है और फिर इसके बाद 1 फरवरी को अंतत: इन्हें बजट घोषणाओं का हिस्सा बनाया जा सकता है.
बजट गोपनीयता खत्म करने के अलावा, केंद्र सरकार महामारी से निपटने के दौरान हासिल अनुभवों से भी सीख ले सकती है और बजट को साल में केवल एक बार पेश करने के बजाये छमाही पेश करने की परंपरा शुरू कर सकती है. 2020 में, फरवरी में पेश बजट लगभग तुरंत ही कोविड-19 महामारी के कारण अप्रासंगिक हो गया था. ऐसे में, सरकार को विभिन्न आत्मनिर्भर भारत ‘मिनी-बजट’ के रूप में अपनी नीतियों को नियमित तौर पर संशोधित करने को बाध्य होना पड़ा था.
इस साल भी, फरवरी अंत में शुरू हुए रूस-यूक्रेन युद्ध और उसके बाद उच्च मुद्रास्फीति और कम मांग के मद्देनजर बजट 2022 को मध्य वर्ष में नीतियों में किए गए संशोधन से फायदा हो सकता है.
मौजूदा समय की बात करें तो अनुदान के लिए पूरक मांगें केवल लेखा संबंधी अभ्यास बनी हुई हैं, क्योंकि जहां भी जरूरत पड़ती है, अधिक धन दिया जाता है. हालांकि, नीतिगत स्थिरता जरूरी है, लेकिन आम बजट में पूरे सालभर को ध्यान में रखकर नीतियां बनाने के बजाये तमाम अन्य प्रभावित करने वाले फैक्टरों के आधार पर मध्यावधि पुनर्विचार की औपचारिक प्रणाली लागू करना उपयोगी साबित हो सकता है.
लेकिन अभी ऐसा करना कुछ ज्यादा हो सकता है. लेकिन गोपनीयता की परिपाटी धीरे-धीरे खत्म की जा सकती है. पार्ट-ए के साथ शुरू करें, जिसे जल्द सार्वजनिक करने से सबसे ज्यादा फायदे होंगे. यह नीतिगत बदलाव बजट बनाने की प्रक्रिया में औपनिवेशिक हैंगओवर से बाहर आने की दिशा में भारत का एक बड़ा कदम होगा.
(व्यक्त विचार निजी हैं.)
(अनुवादः रावी द्विवेदी | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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