भारत में विश्वविद्यालय में भर्ती प्रणाली में भाई-भतीजावाद, धांधलियां नई बात नहीं है. हिंदी पट्टी के विश्वविद्यालयों में तो पीएचडी करने वाले विद्यार्थियों में यह मज़ाक आम हो गया था कि अगर गुरु जी की कोई बेटी है तो उसे पटाने पर मेहनत करें, दामाद बनने की संभावना बनते ही विश्वविद्यालय में नौकरी पक्की हो जाएगी.
विश्वविद्यालयों में यह आम है कि कोई एपी बैजल होते हैं, उन्हीं का बेटा बीपी बैजल और उनका नाती सीपी बैजल तीन पीढ़ियों से पढ़ा रहा होता है. और इसमें सबसे आश्चर्य की बात यह होती है कि अक्सर वे एक ही विभाग में पढ़ा रहे होते हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के विद्वान उस विषय में निकलते हैं और विश्वविद्यालय उनका लगातार चयन भी करता रहता है. इसके अलावा दूसरे तरह की भी चेन चलती है, जो कई विभागों और विश्वविद्यालयों में फैली रहती है. प्रोफेसर परिवार के साथ उनकी पूरी रिश्तेदारी योग्य होती है और पूरा का पूरा कुनबा सरकार के पैसे पर लाख से दो लाख रुपये महीने वेतन लेकर विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहा होता है.
चूंकि भारत में परिवार आम तौर पर जातियों के अंदर ही बनते हैं, इसलिए परिवारवाद का कुल रिज़ल्ट जातिवाद में तब्दील हो जाता है. इस मामले में यूनिवर्सिटी में टीचर बहाली का सिस्टम हायर ज्यूडिशियरी के कोलिजियम सिस्टम से मिलता जुलता है. जैसे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जज लोग ही जज चुन लेते हैं, उसी तरह यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर लोग प्रोफेसर चुन लेते हैं.
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ऐसे परिवार या रिश्तेदारों के कुनबों का नेटवर्क देश में ही नहीं, विदेश तक फैला होता है. वे विश्वविद्यालय का पिंड तब छोड़ते हैं, जब उनके परिवार में एकल बेटा निकले और वह इतना योग्य हो जाए कि बर्कलेज़ युनिवर्सिटी या ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में बैठा इनका कोई परिचित या रिश्तेदार उस एकल बेटे को किसी विकसित देश में सेट करा दे. इसकी तैयारी गुरु जी लोग बच्चे के जन्म के समय से ही शुरू कर देते हैं. अगर इंटरमीडियेट तक बच्चा पढ़ने में औसत रहा और ठीकठाक नहीं निकला तो उसे अपने ही विभाग में एडमिशन दिलाया जाता है. परीक्षा देने के बाद किस जगह कॉपी जांच के लिए गई है, वह पता लगाया जाता है. गुरु जी का लड़का विभाग टॉप कर जाता है. हालांकि अब जांचों व सख्तियों के बीच गुरुजी लोग इतनी सावधानी बरतते हैं कि उनके बेटी-बेटा टॉप न करने पाएं, लेकिन टॉप 10 या टॉप 5 में आ ही जाएं और मार्क्स 70 प्रतिशत के करीब हो जाए.
इस तरह से देखें तो विश्वविद्यालयों में हायर जुडिशियरी की कोलेजियम व्यवस्था से भी खतरनाक व्यवस्था है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपने बाल-बच्चों को सेट करती रहती है. और यह किसी एक विश्वविद्यालय की कहानी नहीं है.
इसके अलावा जब जातियों के इंटर कॉलेज हुआ करते थे तो उस विद्यालय में क्लर्क से लगाकर प्रधानाचार्य तक एक ही जाति के लोग होते थे. जब इन्हें अनुदान पर लिया गया, खासकर उत्तर प्रदेश, तब आयोग के माध्यम से नियुक्तियां शुरू हुईं और छठी से बारहवीं तक चलने वाले इन कॉलेजों का जातीय कॉकस टूट गया.
स्थिति यह है कि ज़्यादातर विश्वविद्यालयों की पीएचडी कचरा होती है, जो वहां जमा हो रही है. हर साल हज़ारों की संख्या में डॉक्टरेट की उपाधियां बांटी जा रही हैं, लेकिन उनमें से एक भी पीएचडी की चर्चा नहीं हो पाती.
आरक्षण लागू होने से दिक्कत यह हुई कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के बच्चों को विश्वविद्यालय में नौकरी देने की मजबूरी हो गई. विश्वविद्यालयों ने स्वायत्तता का लाभ उठाया और ज़्यादातर विश्वविद्यालयों की गवर्निंग काउंसिल ने आरक्षण लागू करने को मंजूरी ही नहीं दी. जब वंचित तबको की सरकार बनी, तो दबाव में गवर्निंग काउंसिलों ने आरक्षण को अनुमति तो दी, लेकिन तमाम तरह के रिट दायर कराकर आरक्षण प्रणाली में इतने कांटे बिछा दिए कि आरक्षण से चयन करीब असंभव हो जाए. दिक्कत यह थी कि विश्वविद्यालयों में एससी, एसटी और ओबीसी प्रोफेसरों की संख्या नगण्य है. जिन जातियों के लोग कब्ज़ा जमाए बैठे हैं, उन्हें अपने रिश्तेदारों को भरने का मौका नहीं मिल रहा है. ऐसे में उन्हें आरक्षण में मेरिट की मौत के अलावा कुछ भी नज़र नहीं आता.
इसे मौजूदा आंकड़ों से समझा जा सकता है. इंडियन एक्सप्रेस ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के माध्यम से डीओपीटी, यूजीसी और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से आंकड़े निकाले हैं. 16 जनवरी 2019 को प्रकाशित खबर के मुताबिक 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों, जहां ओबीसी आरक्षण लागू है,ओबीसी असिस्टेंट प्रोफेसर की संख्या उनके 27 प्रतिशत कोटे की करीब आधी 14.28 प्रतिशत है. वहीं ओबीसी प्रोफेसरों और एसोसिएट प्रोफेसरों की संख्या शून्य है. आंकड़ों के मुताबिक 95.2 प्रतिशत प्रोफेसर, 92.9 प्रतिशत एसोसिएट प्रोफेसर और 66.27 प्रतिशत असिस्टेंट प्रोफेसर सामान्य श्रेणी के हैं.
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कुछ सरकारों ने समय समय पर कदम भी उठाए ताकि पूरी प्रणाली साफ सुथरी हो सके. जेआरएफ-नेट क्वालीफायड बच्चों के चयन का नियम बना. आरक्षण लागू होने के बाद से तमाम चयन आयोग बने. यह व्यवस्था की गई कि साक्षात्कार में अगर किसी के परिजन हिस्सा ले रहे हैं तो संबंधित प्रोफेसर उसमें नहीं बैठेंगे. बिहार में 1982 में यूनिवर्सिटीज सर्विस कमीशन बनाया गया. गुरुजनों ने वहां भी अपना खेल दिखाना शुरू किया और आखिरकार भाई भतीजाबाद के आरोपों के कारण 2007 में उस आयोग को भंग कर दिया. इसी तरह से जब अपने रिश्तेदार के साक्षात्कार में बैठने से गुरुजनों को रोका गया तो वे एक-दूसरे के बेटे, बेटियों को उपकृत करके भर्तियां करने लगे.
सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों को रिश्तेदारी जोड़ने में आसानी होती है, लेकिन उनमें भी जो गांव गिरांव के लोग हैं, उनके सामने भारी मुसीबत है. वहीं एससी, एसटी और ओबीसी के लिए तो विश्वविद्यालय में अपना रिश्तेदार या परिचित भी ढूंढ पाना असंभव हो जाता है. यहां तक कि अगर किसी आरक्षित तबके के विद्यार्थी ने विदेश में पढ़ाई करने की स्कॉलरशिप हासिल कर ली और उसे किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर या विभागाध्यक्ष को गारंटर बनाने या उससे डॉक्यूमेंट्स प्रमाणित कराने में नाकों चने चबाने पड़ जाते हैं.
ऐसे में विश्वविद्यालयों की भर्ती प्रणाली और उनकी बीमारी दूर करने का एक ही उपचार है कि पूरी भर्ती प्रणाली को दुरुस्त की जाए. एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय सेवा आयोग का गठन हो. वह प्रश्न पत्रों और चयन प्रणाली को तैयार करने का काम करे. साथ ही संघ लोक सेवा आयोग जैसे प्रतिष्ठित संस्थान को परीक्षा और साक्षात्कारों का आयोजन कराने का काम सौंपा जाए.
अगर ऐसा होता है तभी वंचितों का 49.5 प्रतिशत आरक्षण लागू हो पाएगा. सामान्य वर्ग के आम परिवारों के छात्रों के लिए भी रास्ते तभी खुलेंगे.
(लेखिका सामाजिक और राजनीतिक मामलों की टिप्पणीकार हैं.)